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18वीं सदी की दिल्ली और संतश्री वंशीअलि का ललित संप्रदाय

डॉ. संदीप चटर्जी
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 22, 2025 18:57 pm IST
    • Published On सितंबर 22, 2025 18:55 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 22, 2025 18:57 pm IST
18वीं सदी की दिल्ली और संतश्री वंशीअलि का ललित संप्रदाय

पारंपरिक इतिहास लेखन में 'मध्यकाल' की अवधि सामान्यतः अठारहवीं शताब्दी तक विस्तृत मानी जाती है. यह कालखंड एक प्रकार का 'संधिकाल' भी था, जब उत्तर भारत में मुगल सत्ता का तीव्र पतन प्रारंभ हो चुका था. इसी राजनीतिक विघटन के साथ-साथ, दीर्घकाल से दबे हुए हिन्दू एवं जैन समाजों में धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की एक नवीन चेतना का संचार हुआ, जो विशेषतः मंदिर निर्माण और अन्य धार्मिक स्थापत्य संरचनाओं के पुनरुत्थान में परिलक्षित होता है.

इससे पूर्व के कालखंड में यद्यपि भक्ति काव्य, रसशास्त्र, और धार्मिक साहित्यिक परंपराएं अपने उत्कर्ष पर थीं, तथापि सल्तनत काल और उसके अनंतर मुगल शासन के अधीन उत्तर भारत—विशेषकर दिल्ली में बड़े पैमाने पर धार्मिक प्रतीकों और मंदिरों का विनाश हुआ. इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में प्राचीन हिंदू अथवा जैन मंदिरों का मौलिक रूप में अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया था.

दिल्ली के धार्मिक स्थलों का जीर्णोद्धार

अठारहवीं शताब्दी में, जब मुगल सत्ता अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, दिल्ली में एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है. इस काल में न केवल प्राचीन धार्मिक स्थलों का जीर्णोद्धार हुआ, बल्कि अनेक नवीन मंदिरों, हवेलियों और धार्मिक केंद्रों की भी स्थापना की गई. चांदनी चौक के समीप स्थित लाल जैन मंदिर, दाऊ जी की हवेली, चरणदास जी की बगीची, गौरी शंकर मंदिर आदि इसी सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की प्रमुख प्रतीकात्मक संरचनाएं हैं. इसी काल में योगमाया मंदिर और कालकाजी मंदिर का भी पुनर्निर्माण कराया गया. इन सभी प्रयासों में स्थानीय हिन्दू और जैन समुदायों के साथ-साथ मराठा शक्ति की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही.

इन स्थापत्य प्रतीकों के समानांतर, दिल्ली में भक्ति, काव्य और रसपरक साधना की एक नई धारा का उद्भव होता है. इस 'नवीन धारा' को विशेष कहने का कारण यह है कि अठारहवीं शताब्दी से पूर्व कभी भी दिल्ली केंद्रित भक्ति आंदोलन इस प्रकार व्यवस्थित और शक्तिशाली रूप में दृष्टिगोचर नहीं हुआ था. इस परंपरा में दो प्रमुख संत-रसिक-कवियों की उपस्थिति उल्लेखनीय है वंशीअलि जी और चरणदास जी. जहां वंशीअलि जी ने वृंदावन और दिल्ली के मध्य एक जीवंत आध्यात्मिक सेतु की स्थापना की, वहीं चरणदास जी की साधना, सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को नई दिशा देने वाली थी. चरणदास जी पर विस्तृत चर्चा एक पृथक लेख का विषय है.

संक्षेप में कह सकते हैं कि अठारहवीं शताब्दी की दिल्ली केवल राजनीतिक संक्रमण की भूमि नहीं थी, अपितु यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण, धार्मिक पुनर्संरचना और भक्ति काव्य की नवोत्थान यात्रा का भी एक सशक्त केंद्र बनकर उभरी.

पुरानी दिल्ली के कटरा नील में संतश्री वंशीअलि की ओर से बनवाया गया लाडलीजी का मंदिर.

पुरानी दिल्ली के कटरा नील में संतश्री वंशीअलि की ओर से बनवाया गया लाडलीजी का मंदिर.

वंशीअलि का जन्म कब हुआ था

नवरात्रि के प्रथम दिन पुरानी दिल्ली शाहजहानाबाद के कटरा नील में आज से 318 साल पहले वंशीअलि जी का जन्म हुआ था. साल था 1707, इसी साल औरंगजेब की मृत्यु हुई थी. दिल्ली के गद्दी पर बहादुरशाह प्रथम का राज था. वंशीअलि के पिता श्री प्रद्युम्न मिश्र, कटरा नील के खत्री समाज के गुरु थे. उन्हीं के कहने पर वृंदावन से सपरिवार दिल्ली आकर निवास करने लगे थे. वंशीअलि जी के चरित्र (भावना विलास नामक यह ग्रंथ किशोरीअलि ने लिखा है) से ज्ञात होता है की उनके जन्म की बात सुनकर बादशाह ने भी उनके घर मुहरें भिजवाई थीं.
भावना विलास के लेखक के अनुसार, ''इंद्रप्रस्थ मधि भवन भई रंग बधाई.'' वंशीअलि जी के जन्म के बाद इंद्रप्रस्थ यानि दिल्ली में बधाई गाई गई.

उसी समय का बनाया हुआ पुरानी दिल्ली कटरा नील का मंदिर अब तक ज्यों का त्यों स्थित है. वंशीअलि जी ने अपने जीवन का एक प्रमुख भाग अपनी जन्मभूमि दिल्ली में बिताया. कटरा नील के अपने हवेली प्रांगण में जामुन वृक्ष तले उन्हें श्रीराधिका जी की बड़ी सुंदर मूर्ति मिली, जिसकी स्थापना उन्होंने अपनी हवेली में ही की. लाडीलीजी महाराज के बड़े मंदिर के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान अब तक कटरा नील में विराजित है और हजारों लोगों की आस्था का प्रतीक है.  इनके संबंध में कथा प्रसिद्ध है की इन्हें स्वयं श्रीराधिका जी की सखी ललिता ने मंत्र उपदेश दिया. वही इनकी गुरु बनीं. ललिता जी इनकी गुरु हैं, अतः इनके संप्रदाय को ललित संप्रदाय कहा गया. संस्कृत और व्रज भाषा में वंशीअलि जी ने अनेकों पुस्तक लिखी, दुर्भाग्य से उनमें से ज्यादातर अप्राप्य ही हैं. 

दिल्ली का सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष 

18वीं सदी की दिल्ली के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में वंशीअलि जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है. सदियों से सुप्त पड़े दिल्ली के अध्यात्मिक जीवन को उन्होंने नवजीवन दान दिया. मध्यकालीन वैष्णव संप्रदायों के आचार्यों में उनका नाम अन्यतम है. दिल्ली को उनकी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है. इस नवीन संप्रदाय की कई बातें इसे अन्य वैष्णव संप्रदायों से अलग करती हैं. इस संप्रदाय के प्रमुख धार्मिक विश्वासों में एक है, श्रीराधिका जी को ही ब्रह्मांड की उत्पत्ति, पालन और संहार का एक मात्र हेतु मानना. इनके अनुसार श्रीकृष्ण भी श्रीराधिकाजी से ही आविर्भूत होते हैं. वास्तव में श्रीराधिका जी ही शक्तिमान परब्रह्म हैं. यह अत्यंत ही अनूठा सिद्धांत है, जो ना तो शक्ति उपासक संप्रदायों से मेल खाता है और ना ही पारंपरिक वैष्णव संप्रदायों से. संस्कृत के दुरूह मतों को इन्होंने आम जनता के लिए स्थानीय भाषा में लिखा. अध्यात्म के साथ-साथ इससे भाषा की भी बहुत उन्नति हुई. इस संप्रदाय में वंशीअलि जी को श्रीराधिका जी की वंशी का अवतार माना गया है. इनके लिखे ग्रंथों में 'राधा सिद्धांत' और 'राधा तत्व प्रकाश' प्रमुख है. एक संप्रदाय के रूप में वंशीअलि जी ने ललित संप्रदाय को तीन केंद्रों में स्थापित किया. प्रमुख केंद्र उनका जन्मस्थान दिल्ली बना रहा, दूसरा स्थान वृंदावन था, जहां उन्होंने ललिता जी से दीक्षा प्राप्त कर अनेक ग्रंथों की रचना की और तीसरा केंद्र था जयपुर, जहां जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह द्वितीय ने उन्हें कई गावों की जमींदारी दान में दी थी. राजा जयसिंह द्वितीय इनकी विद्वता से बहुत प्रभावित थे. राजा जयसिंह द्वितीय ने ही 1724 में दिल्ली में जंतर मंत्र बनवाया था. आज जहां कनॉट प्लेस है, उस पूरे इलाके का नाम इन्हीं के नाम पर जयसिंहपुरा कहलाता था. 

वंशीअलि जी, जो 18वीं शताब्दी के एक प्रमुख संत, भक्ति कवि और आध्यात्मिक विचारक थे, अपने जीवनकाल में न केवल भक्ति आंदोलन के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे, बल्कि ग्रंथ रचना और संत परंपरा की निरंतरता में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनके चरित्र ग्रंथ के अनुसार, उन्होंने ईस्वी सन 1765 में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, जो संयोगवश उनका जन्मदिवस भी था, को वृंदावन में नित्य धाम में (निधन) प्रवेश किया. यह दिन भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा में अत्यंत पावन माना जाता है.

दिल्ली की सांस्कृतिक विरासत 

दिल्ली, जिसे सामान्यतः राजनीतिक सत्ता संघर्ष और ऐतिहासिक उथल-पुथल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, वास्तव में एक समृद्ध अध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत की भी धरोहर रही है. दुर्भाग्यवश, यह पक्ष अभी तक न तो व्यापक जनमानस के ध्यान में आ सका है और न ही शिक्षाविदों और इतिहासकारों द्वारा उसे पर्याप्त स्थान मिल पाया है. नवरात्रि के शुभारंभ—अर्थात आश्विन शुक्ल प्रतिपदा—के दिन, जो वंशीअलि जी का जन्मदिवस भी है, हम इस महान संत को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हैं और नमन करते हैं. यह अपेक्षा करते हैं कि दिल्ली के इस अपेक्षाकृत अलक्षित आध्यात्मिक इतिहास को निकट भविष्य में अधिक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त होगी.

दिल्ली शहर से गहरे प्रेम और जुड़ाव रखने वाले लोगों के लिए, चांदनी चौक स्थित कटरा नील क्षेत्र में स्थित वंशीअलि जी की 18वीं शताब्दी की हवेली और मंदिर, निःसंदेह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गंतव्य स्थल हैं. यह स्थान न केवल वास्तुकला की दृष्टि से, बल्कि धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से भी अध्ययन और अन्वेषण का विषय है.

(इस लेख के लिए दिल्ली के कटरा नील मंदिर के वर्तमान महंत और वंशीअलि के वंशज नवीन गोस्वामी ने महत्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराया.)           

डिस्केलमर: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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