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This Article is From May 06, 2021

कांग्रेस के पास ना अर्जुन है और ना ही भगवान कृष्ण...

Aadesh Rawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 07, 2021 19:16 pm IST
    • Published On मई 06, 2021 17:03 pm IST
    • Last Updated On मई 07, 2021 19:16 pm IST

पांच राज्यों के चुनावी नतीजे हमारे सामने हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अपना क़िला सुरक्षित रखा, केरल के वामपंथी भी अपना एक मात्र गढ़ सुरक्षित रखने में सफल रहे. असम में बीजेपी ने भगवा झंडा फिर फहराया तो, डीएमके दस वर्षों के बाद सत्ता पर दोबारा क़ाबिज़ हुई. भाजपा गठबंधन ने पुडुचेरी कांग्रेस से छीन लिया लेकिन इन सबके बीच यह बात दीगर रही कि कांग्रेस को लोगों ने नकार दिया. तमिलनाडु में कांग्रेस डीएमके के कंधे पर चढ़कर नाम मात्र के लिए कुछ सीटें जीती. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का सुपड़ा साफ़ हो गया और पुडुचेरी मे सत्ता ही छि‍न गयी. असम में जहां पर सीधी टक्कर भाजपा से थी, भाजपा अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही.

ऐसे ही केरल में वाम मोर्चा ने भी अपनी सीटों में इज़ाफ़ा किया. इन दोनों में या किसी एक मैं अगर कांग्रेस सरकार बनाती तो यह कांग्रेस के लिए संजीवनी बूटी जैसा काम करता. इस जीत की उम्मीद के मद्देनज़र राहुल गांधी ने 1 मई को अपने एक इंटरव्यू में कहा, 'मैं लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता हूं. पार्टी जो भी ज़िम्मेदारी मुझे देगी मैं उसे निभाने के लिए तैयार हूं.' यह इस भरोसे के संकेत थे कि केरल और असम में से किसी एक राज्य में अगर सरकार बनेगी तो निकट भविष्य में राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी की कमान एक बार फिर संभाल लेंगे.  

अब वर्तमान परिस्थितियों में राहुल गांधी और उनके सलाहकारों को पार्टी पर पुनः क़ाबिज़ होने के लिए कुछ और यत्न करना होगा. मैं इसको अगर महाभारत से जोडू तो ऐसा कहा जा सकता है कि फ़िलहाल कांग्रेस के पास ना तो भगवान कृष्णा के रूप में कोई उपदेशक है और ना ही कोई सार्थी! और अर्जुन की भूमिका में भी कोई नज़र नहीं आ रहा.

क्यों हारे केरल
केरल में 1957 से हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन होता रहा है. वहीं से राहुल गांधी भी इस बार सांसद हैं. उन्होंने वहां पर ज़मीनी स्तर पर चुनाव प्रचार भी किया. इसके अलावा केरल जीतने से राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर दावा ठोंकने में आसानी हो जाती. इन तीन कारणों से केरल जीतना नियति थी. केरल जीतकर राहुल गांधी पार्टी के अंदर उभर रहे अपने विरोध के स्वरों को दबा सकते थे. यह महत्वपूर्ण है कि राहुल गांधी के नज़दीकी राष्ट्रीय संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल केरल से ही आते हैं. यह अलग बात है कि राज्यसभा में आने के लिए उनको राजस्थान में अशोक गहलोत के भरोसे होना पड़ा. दबे स्वरों में यह बात भी सामने आ रही है कि केरल के गुटिए नेताओं ने अपने -अपने गुट के उम्मीदवारों को जि‍ताने के लिए ज़ोर लगाया. कही ना कही सबके मन में यह आशंका भी थी कि कहीं राहुल गांधी कांग्रेस के जीतने पर के सी वेणुगोपाल को मुख्यमंत्री ना बना दें.

केरल की शिक्षित जनता इस बात को पचा नहीं पाई कि केरल में वामपंथ से महाभारत और पश्चिम बंगाल में भरत मिलाप. हालांकि यह भरत मिलाप केवल और केवल अधीर रंजन चौधरी की ज़िद और राजनैतिक समझौतावादी राजनीत की वजह से हुआ. हालांकि ममता बनर्जी कांग्रेस के साथ समझौते को लगभग तैयार थी. केरल कांग्रेस मनी के साथ समझौता तोड़ना भी कांग्रेस के लिए केरल में घातक रहा.

बंगाल की कहानी केरल की व्यथा से जुड़ी हुई है. पश्चिम बंगाल की मजबूरियों ने केरल में तो कांग्रेस को हराने में एक अहम भूमिका निभाई और बंगाल में कांग्रेस को ज़मींदोज़ कर दिया.

असम क्यों हारे
असम में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने ख़ूब प्रचार किया. असम के प्रभारी महासचिव जितेन्द्र सिंह व्यक्तिगत रूप से पूरे चुनाव प्रचार की कमान संभाले हुए थे. उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को आश्वस्त किया था कि हम असम में सरकार बनाएंगे. कांग्रेस का असम में दावा था कि राज्य में हवा सत्ता परिवर्तन की चल रही है. इन्हीं कारणों से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने पूरे साधन, संसाधन और कार्यकर्ता चुनाव में झोंक दिए. नीजी नज़दीकियों की वजह से प्रभारी महासचिव राहुल और प्रियंका का बहुत समय असम के चुनाव प्रचार के लिए इस्तेमाल कर सके लेकिन तीन सीटों  के इज़ाफ़े के अलावा यह रणनीति कामयाब नहीं हो सकी. राज्य कांग्रेस इकाई में प्रबल विरोध के स्वर के बावजूद बदरूद्दीन अजमल से समझौता, सीएए का मुद्दा, तरुण गोगोई की अनुपस्थिति बीजेपी के लिए वरदान साबित हुई. इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी का विरोध सरकार विरोधी लहर के बावजूद कांग्रेस को भारी पड़ा. भाजपा पूरे चुनाव को हिन्दू- मुस्लिम में बदलने में कामयाब रही. पड़ोसी राज्य बंगाल में फुरफुरा शरीफ़ के ख़ादिम और बदरूद्दीन अजमल के साथ समझौता करने से असम में कांग्रेस को बहुसंख्यक हिन्दू वोट का नुक्सान हुआ. 

हैरानी इस बात की है कि कांग्रेस के ऊपर विरोधी मुस्लिम परस्त (एटंनी कमेटी रिपोर्ट में भी) होने का आरोप लगता रहा है. लेकिन इस दिशा में नेतृत्व की तरफ़ से चुनाव के संदर्भ में कोई रणनीति नहीं बनाई गई और ना ही कोई नेरेटिव खड़ा किया गया. इस आरोप को ख़ारिज करने में कांग्रेस पूरी तरह नाकामयाब रही. 

कांग्रेस के ज़्यादातर नेता और कार्यकर्ता राहुल गांधी से मिलने और अपनी बात पहुंचाने में असमर्थ हैं. हालांकि ऐसा उनके आस पास की कोटरी के छोटे दिल होने की वजह से होता है और इससे उपजी निराशा क्षोभ और पीड़ा का शिकार राहुल गांधी खुद ही बनते हैं. अभी हुए चुनाव में भी राहुल गांधी को जो रिपोर्ट दी गयी उसमें दावा किया गया था कि असम और केरल में कांग्रेस जीत रही है.

किसी भी चुनावी हार के बाद राहुल गांधी ने कभी अपने दरवाज़े कार्यकर्ताओं के लिए नहीं खोले. जिस दिन राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए दरवाज़े खोल देंगे, उनके साथ फ़ोटो खिंचवाएंगे, उनकी बात सुनेंगे, अपनी कहेंगे. अपने पिता की तरह, 1989 की हार के बाद राजीव गांधी रेल से, सड़क से पूरा देश छान लेंगे, उस दिन राहुल गांधी पूरी कांग्रेस के एकछत्र नेता और देश के सबसे बड़े क़द के हो जाएंगे.

राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा बनना चाहते हैं. उस के लिए उन्हें सही राजनैतिक सलाह की और दिशा व नीति की ज़रूरत है. एक ऐसे भगवान कृष्ण की ज़रूरत है जो खुद शस्त्र ना भी उठाएं, युद्ध ना भी करें, किसी का वध ना भी करें लेकिन “गीता का उपदेश दे सकें और चुनावी महाभारत के युद्ध का निर्णय राहुल गांधी के पक्ष में कर सकें.”  

आज भी गांव में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के घर में नेहरू, इंदिरा, राजीव, मनमोहन सिंह या फिर सोनिया गांधी की फ़ोटो दिखाई दे जाती है. जब तक राहुल गांधी इन कार्यकर्ताओं के मन में नहीं बसेंगे तब तक कांग्रेस का नेतृत्व नहीं कर पाएंगे. 

वर्तमान में सोनिया गांधी कांग्रेस को राहुल गांधी की कांग्रेस में तब्दील करने के लिए कार्यकर्ताओं के मन में घर करना होगा, संगठन मज़बूत करना होगा और अपने मन के और मकान के दरवाज़े कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए खोलने पड़ेंगे.

(आदेश रावल वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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