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This Article is From Jun 25, 2016

ब्रेक्ज्टि : यूरोप में उग्र राष्ट्रवादी विचारों का उभार

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 25, 2016 15:07 pm IST
    • Published On जून 25, 2016 15:07 pm IST
    • Last Updated On जून 25, 2016 15:07 pm IST
यूरोपीय आर्थिक समुदाय से खुद को अलग करने के ब्रिटेन के लोगों के (सरकार के नहीं) फैसले ने राजनीतिकों को जहां चौकाया है, वहीं सामाजिक-सांस्कृतिक विचारकों के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें उकेर दी हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि ब्रिटेन के लोगों ने ऐसा करके यह घोषणा कर दी है कि उनके लिए आर्थिक हितों से भी ऊपर है- सामाजिक एवं सांस्कृतिक हित। ब्रिटेन का पढ़ा-लिखा वर्ग यूरोपीय समुदाय में रहने के पक्ष में था। उनकी नहीं चली। चली उन आम लोगों की जो अर्थशास्त्र के सिद्धांतों एवं सूत्रों से पूरी तरह अनजान हैं, और जिन्हें इस बात की चिंता अधिक है कि हमारी संस्कृति का क्या होगा।
    
ज्ञातव्य है कि कुल साढ़े छः करोड़ की आबादी वाले इस ब्रिटेन में पिछले कुछ सालों में लगभग पच्चीस लाख प्रवासियों का आगमन हुआ है। इनमें सबसे बड़ी संख्या मध्य एवं पश्चिम एशिया से आए हुए मुस्लिम शरणाथियों की है। दरअसल, ब्रिटेन के लोगों का डर मुख्यतः इन्हीं लोगों से है, जो आज कमोवेश पूरे यूरोप का डर बन गया है। पिछले कुछ सालों से आईएसआईएस ने जिन हिंसात्मक कामों को बेल्जियम, फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देशों में अंजाम दिया है, उससे विश्व-जनमत उसके खिलाफ हो गया है। इसने पूरी दुनिया में एक प्रकार के इस्लामोफोबिया का रूप ले लिया है। निःसंदेह रूप में इससे सबसे अधिक ग्रसित यूरोपीय आर्थिक समुदाय के देश हैं, केवल उनकी गतिविधियों से ही नहीं; बल्कि अपने यहां उनके शरणार्थी बनकर आने से भी। अब इन देशों को लगने लगा है कि यह प्रवासी उनके हिस्से का केवल रोजगार ही नहीं छीन रहे हैं, बल्कि उनकी अपनी सांस्कृतिक लयात्मक को भी भंग कर रहे हैं।

यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि अन्य यूरोपीय देशों में इन प्रवासियों के बारे में जनमत संग्रह कराया जाए, तो उसके नतीजे भी बहुत कुछ इसी तरह के होंगे। इस लक्षण के प्रमाण इन देशों में पिछले दो-तीन सालों से दक्षिणपंथी विचारों के प्रसार तथा राजनीतिक प्रभावों में देखा जा सकता है।

जर्मनी की चांसलर मर्केल इन शरणार्थियों की सबसे बड़ी हमदर्द बनकर सामने आई थीं। लेकिन इसके बाद के हुए तीन राज्यों के चुनाव में उनकी पार्टी को उस एएफडी पार्टी से मुंह की खानी पड़ी थी, जिसने चांसलर मर्केल की शरणार्थियों के प्रति नरम नीति बरतने के विरुद्ध अभियान छेड़ा था। फ्रांस में हुए राज्यों के चुनाव में भी मैरीन ली पैन की पार्टी नेशनल फ्रंट को भारी सफलता मिली। कहा जा रहा है कि ली पैन अगले साल होने वाले राष्ट्रपति पद की सबसे प्रबल दावेदार होंगी। पोलैण्ड में पिछले साल अति दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में आई। हंगरी में पहले से ही प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान इसी तरह की विचारधारा वाली पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। विएना शहर के नगर-निकायों पर दक्षिणपंथियों का कब्जा है।
    
सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि उत्तरी यूरोप के देश शुरू से ही अपनी उदारता और मेहमाननवाजी के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। अब इस भाग के भी देशों में राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारधारा को लोकप्रियता मिलती जा रही है। विशेषकर स्वीडन, फिनलैण्ड, डेनमार्क तथा नार्वे आदि देशों में भी प्रवासियों से जुड़ी नीति के प्रति सख्त रवैया देखने को मिल रहा है।
    
ब्रिटेन का यह ब्रेक्जिट इसी सख्त रवैया का चरम है। यह वही ब्रिटेन है, जिसने इस धरती पर औद्योगिक क्रांति की शुरुआत करके आधुनिक युग की नींव रखी थी। जिसकी लोकतांत्रिक विचारधारा की ही नहीं बल्कि साहित्य, कला और संस्कृति की पूरी दुनिया में धूम थी। लग रहा है कि उसकी प्रगतिशीलता को ग्रहण लग चुका है। यह केवल ब्रिटेन के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है।

अब प्रतीक्षा है अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव के नतीजे का, जहां दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारक ट्रम्प ने उम्मीदवारी की दावेदारी जीतकर लोगों को अचम्भे में डाल दिया है। ट्रम्प की जीत इस विचारधारा की जीत की प्रमाणिक मुहर होगी।

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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