संसद में डेढ़ हज़ार से ज़्यादा शब्दों को असंसदीय घोषित कर दिया गया है। इनमें 'भ्रष्ट', 'गिरगिट', 'शर्म' 'घड़ियाली आंसू', 'शर्मनाक', 'जुमलाजीवी' 'पाखंड' जैसे शब्द भी शामिल हैं। जब यह सवाल उठा कि क्या इन शब्दों को प्रतिबंधित कर दिया गया है तो लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि ऐसा नहीं है। उनके मुताबिक हर साल ऐसे शब्दों की सूची जारी होती है जिन्हें संसदीय कार्यवाही के दौरान असंसदीय मान कर हटा दिया जाता है।
लेकिन मोटी समझ यही बताती है कि अब संसद की कार्यवाही के दौरान इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। यानी अब किसी वाकये को शर्मनाक नहीं बताया जा सकेगा, किसी को भ्रष्ट नहीं कहा जा सकेगा, किसी के लिए गिरगिट जैसा विश्लेषण इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। किसी पाखंड को पाखंड नहीं कहा जा सकेगा। अगर कोई ऐसा करेगा तो इसे संसद के रिकॉर्ड पर नहीं रखा जाएगा।
लेकिन क्या कोई शब्द असंसदीय होता है? या वह जिस संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है, वह असंसदीय होता है? अगर आप किसी को कुत्ता कहें तो यह निश्चय ही असंसदीय है, लेकिन अगर संसद की चर्चा में अगर आप कुत्तों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार पर टिप्पणी करना चाहें तो कुत्ता शब्द तो इस्तेमाल करना ही होगा। फिर शब्दों पर पाबंदी लगाने का यह संसदीय नियम कैसा है?
भारतीय परंपरा में शब्द को ब्रह्म कहते हैं। शब्द के बाहर कुछ नहीं होता। शून्य और मौन तक को शब्दों के जरिए ही व्यक्त किया जा सकता है। दुख और मृत्यु भी शब्द की उंगली पकड़ कर धरती पर आते हैं। तो जब एक शब्द पर रोक लगाई जाती है तो यह बस भाषा के भीतर एक कार्रवाई नहीं होती, जीवन की कुछ स्थितियों को भी अदृश्य बना देने का कृत्य होता है। हालांकि हमारी संसदीय चर्चाओं का इन दिनों जो हाल है, उसमें यह उम्मीद कम ही है कि यह सूक्ष्म सी बात किसी को समझ में आए। कभी इसी संसद की शान बढ़ाने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया कहते थे कि शब्दों के अर्थ मांजते रहने चाहिए, इनसे उनमें चमक पैदा होती है। वे आसक्ति और आशिक़ी में मेल देखते थे। वे नेहरू और इंदिरा गांधी पर अपने हमलों में कहीं से कटुता कम करने वाले नेता नहीं थे। लेकिन उनको मालूम था कि राजनीतिक हमलों और असंसदीय टिप्पणियों में क्या अंतर होता है। राममनोहर लोहिया शब्दों को नहीं, कृत्यों को कठघरे में खड़ा करते थे। जब देश के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 500 ब्राह्मणों के पांव धोए तो डॉ लोहिया ने इसे अश्लील कृत्य की संज्ञा दी। कहा कि जब जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर राष्ट्रपति किसी के पांव धोए तो यह समाज को उदास करने वाला काम होता है।
बहरहाल, शब्दों पर लौटें। शब्द गुनहगार हैं या वे सांसद गुनहगार हैं जिन्होंने इन शब्दों को असंसदीय बनाया? क़ायदे से ऐसे सांसदों के व्यवहार पर पाबंदी लगनी चाहिए या शब्दों पर? शब्द तो बेमतलब बदनाम हो गए।
लेकिन असली दुख यह नहीं है। असली दुख यह है कि डेढ़ हज़ार शब्दों पर पाबंदी लग जाने से संसद कुछ ज़्यादा संसदीय नहीं हो जाएगी। फिर दुहराना होगा कि शब्द अशालीन नहीं होते, संदर्भ हो सकते हैं, मुद्राएं हो सकती हैं। कुछ लोगों की हंसी तक अश्लील लग सकती है। कुछ टिप्पणियां बिना किसी असंसदीय शब्द के इस्तेमाल के भी अश्लील बनाई जा सकती हैं। इसी संसद भवन में एक महिला सांसद की गूंजती हंसी पर देश के प्रधानमंत्री को शूर्पनखा की याद आई और उनके साथ पूरा सदन हंसने लगा तो वह एक उदास करने वाला दृश्य था- उस पर पाबंदी नहीं लग सकती थी क्योंकि उसमें कोई शब्द असंसदीय नहीं था।
जाहिर है, यह शब्द नहीं, हमारे माननीय जन प्रतिनिधियों का असंसदीय व्यवहार है जो चिंताजनक है। उसमें कुछ हज़ार शब्दों पर पाबंदी से कमी आ जाएगी, यह संभावना बेमानी है। राजनीतिक दलों में बढ़ती कटुता, नेताओं के बीच घटता सद्भाव- यह सब बहुत स्पष्ट हैं। दरअसल पहले भी शब्द प्रतिबंधित होते थे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसे शब्दों की तादाद बड़ी होती जा रही है।
दूसरी चिंता यह है कि अब ज़्यादातर वे शब्द प्रतिबंधित हो रहे हैं जो विपक्षी सांसदों द्वारा इस्तेमाल किए गए हैं। इनमें भी कई शब्द ऐसे हैं जो राजनीतिक हमले के काम आते हैं। वे अश्लील या असंसदीय नहीं हैं, कुछ लोगों को भले उनसे चोट पहुंचे। अगर प्रधानमंत्री आंदोलनजीवी जैसा शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं तो विपक्ष के नेता जुमलाजीवी जैसा जुमला क्यों नहीं उछाल सकते? अगर हरकतें शर्मनाक हो सकती हैं तो उनको शर्मनाक क्यों नहीं कहा जा सकता? जाहिर है, शब्दों पर यह पाबंदी सिर्फ़ उनकी असंसदीयता की वजह से नहीं है, बल्कि इसलिए भी है कि इनकी मार सत्ता पक्ष को झेलनी पड़ती है। फिर मामला इतना भर नहीं है। अगर शकुनी और जयचंद जैसे शब्द असंसदीय माने जा सकते हैं तो फिर किसी की हंसी पर शूर्पनखा को याद करना असंसदीय क्यों नहीं है?
वैसे इस राजनीतिक बहस में असली संकट पर किसी की नज़र नहीं है। शब्द संसदीय और असंसदीय नहीं रहे, वे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। उनसे उनके अर्थ जैसे छीन लिए गए हैं। उन पर यक़ीन करने की वजह नहीं बची है। राजनीति में सच्चाई और शुचिता पहले ही हास्यास्पद हो चुकी थीं, अब बाक़ी शब्द भी बेमानी होते जा रहे हैं।
अनुपम मिश्र कई शब्दों के अंतर्विरोध से दुखी रहते थे। उनका कहना था कि जिसे हम उदारीकरण बोलते हैं, वह तो दरअसल सख़्तीकरण है। इसे उदारीकरण कह कर हम बाज़ार की क्रूरता को छुपा लेते हैं। इसी तरह खिलाड़ियों या अभिनेताओं का संन्यास लेना उन्हें अजीब लगता था। संन्यास लेना उनके लिए एक बड़ा उदात्त कर्म था। उनका कहना था कि खिलाड़ियों के खेल से अलग हो जाने, खेल छोड़ देने को संन्यास लेना नहीं कह सकते।
संभव है, बहुत सारे लोग इस बात से सहमत न हों। लेकिन सहमति या असहमति से बड़ी बात यह है कि आप शब्दों की आत्मा में झांकने को तैयार हैं या नहीं। या आपके शब्द आपकी आत्मा की कोख से निकलते हैं या नहीं।
संसद और असंसदीय शब्दों की सूची पर लौटें। ध्यान से देखें तो हमारे लोकतंत्र में लोकतंत्र वाली मर्यादा नहीं है, हमारे राजनीतिक दल जो विश्वास मत हासिल करते हैं, वह अक्सर कई विडंबनाओं से भरा होता है। कोई नहीं पूछता कि यह कौन सी राजनीतिक मर्यादा है जिसमें सांसदों और विधायकों की बाड़ेबंदी की जाती है, उन्हें होटलों और रिसॉर्ट में हफ़्तों कैद रखा जाता है, विमानों से एक शहर से दूसरे शहर लाया-ले जाया जाता है? कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि इन सबका ख़र्च कौन उठाता है और इतना पैसा कहां से आता है? क्योंकि यह जैसे मान लिया गया है कि जिसे हम लोकतंत्र की तरह पहचानते हैं, उस पर पूंजीतंत्र हावी है। यह शब्द बस एक झूठ को ढंकने के काम आ रहा है।
ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। आस्था अपना अर्थ खो बैठी है और उन्माद में बदल गई है, धार्मिकता का अर्थ कर्मकांड हो गया है, अन्याय न्याय के कपड़े पहन कर घूम रहा है, साधु नफ़रत की भाषा बोल रहे हैं, परंपरा कट्टरता बन बैठी है और ख़बर का मतलब तमाशा हो गया है। क्रिकेट टीवी शो हो चुका है, दुनिया नरक हो चुकी है और नरक हमारा घर बन गया है।
शब्दों के बेमानी होते जाने का नतीजा यह हुआ है कि हमने देखना और महसूस करना छोड़ दिया है। हम वही समझते हैं जो इन बेमानी शब्दों के खोखल के पार देखकर समझना चाहते हैं। हमारी उम्मीद, हमारी हताशाएं- सब बेमानी हैं। यह टिप्पणी नहीं गुबार है जिसे कभी-कभार निकलना चाहिए। और इस टिप्पणी के शीर्षक में जो ‘माननीय' शब्द है, उसका आप मनचाहा अर्थ लगा सकते हैं।
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.