सबके हिस्से के अपने "कमाल" सर...

मैं कई बार भाव को ख़बर से अलग नहीं कर पाता, गुस्सा लहज़े में हाव-भाव में दिख जाता है लेकिन कमाल सर इन सबमें कमाल ही थे ... भाषाई शुद्धता के परे उनमें सम हो जाना अद्भुत था.

सबके हिस्से के अपने

कमाल खान भाषा को लेकर अलग स्तर पर थे

सिमटते टीवी के कई दायरे हैं, उनमें से एक है कि राज्य के अलग-अलग ब्यूरो के साथी एक-दूसरे को टीवी पर देख पाते हैं, फोन से हालचाल पूछ लेते हैं, मिल नहीं पाते...आज कमाल सर नहीं हैं, सबके अपने अपने हिस्सों में कमाल सर मौजूद हैं.कई बातें हैं लेकिन व्हाट्सऐप पलटता हूं तो उनका ये मैसेज बार बार देखता हूं, दो बार उन्होंने शिवरात्रि पर यही मैसेज भेजा एक गुज़ारिश के साथ कि मैं इसे पढूं.

महादेव:
जैसे-जैसे सूरज निकलता है,
नीला होता जाता है आसमान।
जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।
धीरे-धीरे राख झाड़,उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने तपने लगती है भरपूर।
शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा....और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।
कवि:फरीद ख़ान

कमाल सर ध्यान में नील हो गये, वो जानते थे कि मैं ईश्वर में अगाध आस्था रखता हूं सो कई दफे कई बातें कहते थे अनूठी और अलहदा.
      
2014 में मराठवाड़ा में किसानों की दुर्दशा पर एक सीरीज़ करते मैंने अदम गोंडवी का एक शेर बोला, जामिया में मेरे शिक्षक शाहिद सर ने कार्यक्रम ख़त्म होते ही फोन किया और डांटते हुए कहा इतनी अच्छी रिपोर्ट थी, क्यों कमाल खान की तरह शायरी करने लगे हो ( शाहिद सर, कमाल सर के करीबी भी हैं ) ... मैंने कहा सर याद करके नहीं बोला बस लगा कि यहां इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता और कमाल सर की तो परछाई भी बहुत बड़ी है. शाहिद सर ने समझाया कि तुम्हारी कहानियां आंकड़ों के साथ होती हैं, उसका अलग फ्लेवर है कमाल भाषा को लेकर अलग स्तर पर हैं दोनों का घालमेल कई बार गड़बड़ भी सकता है. मैंने सर की बात समझी.

आज रवीश सर ने लिखा है "कमाल ख़ान को देखा और सुना है. जिसे जानना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पता चले कि कमाल ख़ान अहमद फराज़ और हबीब जालिब के शेर सुन कर नहीं बन जाता है. दो मिनट की रिपोर्ट लिखने के लिए भी वो दिन भर सोचा करते थे."

कमाल सर की कहानियां में जो सब्र था वो उनकी शख्सियत में भी था. बात में भी कभी हड़बड़ी नहीं आराम से जो पूछा, जैसी मदद मांगी उन्होंने कभी मना नहीं किया. कई बार उनके साथ लाइव करने पर उनको सुनना लंबा लगा लेकिन बोझिल नहीं हर एक शब्द उनकी समझ, लगन, अध्ययन में पिरोया हुआ.  

हम बातें करते कई बार उसका दायरा दफ़्तर ही था, ब्यूरो के साथियों के लिये कई बार दिल्ली दूर ही होती है. वो जैसे दिखते थे, वैसे ही थे अनुशासित, गंगा-जमनी तहजीब के पैरोकार समाज के हर तबके के लिये संवेदनशील सबके हिस्से उनकी कल की आख़िरी तस्वीर है जिसमें वो लैंगिक समानता की ही बात कर रहे थे.2010 में मॉनसून एक्सप्रेस के दौरान लखनऊ जाना हुआ, लेकिन सिर्फ छूकर निकल गये कमाल सर से मिल नहीं पाया. भाषा में अशिष्ट ना होने के संस्कार उन्हें लखनऊ ने ही दिये होंगे तभी तो प्रियदर्शन सर उन्हें याद करते लिखते हैं, "यूपी की राजनीति में नेताओं की अशिष्ट भाषा पर बात करते हुए उन्होंने एक लंबी खबर तैयार की. लगभग हर दल के नेता इस अशिष्टता में एक-दूसरे को मात देते दिख रहे थे. ख़बर के अंत में कमाल ख़ान ने इन सबकी भर्त्सना नहीं की. उन्होंने कहा, तहज़ीब के शहर लखनऊ से, शर्मिंदा मैं कमाल ख़ान."अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएट लेकिन हिन्दी, उर्दू में कमाल की कलम रशियन के जानकार. 

मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी ने एक संदेश में लिखा "मुझे अच्छे से याद है जब 2007 में मायावती की सरकार का आरोहण हो रहा था तब कमाल खान ने कैमरे के सामने एक शेर कहा था: "इसके पहले यहां जो शख्स तख्त नशीन था, उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीन था"
     
मैं कई बार भाव को ख़बर से अलग नहीं कर पाता, गुस्सा लहज़े में हाव-भाव में दिख जाता है लेकिन कमाल सर इन सबमें कमाल ही थे ... भाषाई शुद्धता के परे उनमें सम हो जाना अद्भुत था. आज सुबह मनीष सर का मैसेज आया, मैं 2-3 दफे यही कहता रहा कौन कमाल यक़ीन ही नहीं था, फोन किया यही दुहराता रहा वो तो बहुत फिट और अनुशासित थे ऐसा कैसे ... फिर ख़बर चलने लगी, लगातार देशभर से कई लोग पूछने लगे ... मैं सब्र दे रहा था खुद को भी ... हमारे यहां मौत की ख़बर को कभी ब्रेक करने का दबाव नहीं रहता, कमाल सर ऐसा क्या दबाव था इस ख़बर को देने का.

सर आपने इकबाल को अपनी रिपोर्ट में उद्धृत किया था, मैं आपके लिये...
है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज़, अहले-ए-नज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिंद.

अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में स्‍थानीय संपादक (न्यूज़) हैं...

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