
- बिहार के नवादा जिले के वारिसलीगंज के गांवों में दुर्गा प्रतिमा स्थापना और पूजा को लेकर अनोखी परंपराएं हैं.
- माफी गांव में प्रतिमा स्थापना के लिए 2067 और रेवार में 2046 तक श्रद्वालुओं के नामों की बुकिंग हो चुकी है.
- नारोमुरार गांव में दुर्गा पूजा की परंपरा 1922 से है और यहां पर अगले 35 वर्षों तक की बुकिंग हो चुकी है.
बिहार के नवादा जिले के वारिसलीगंज प्रखंड के गांवों में दुर्गा पूजा को लेकर अनोखी परंपराएं हैं. ग्रामीणों की आस्था है कि माता उनकी हर मुराद पूरी करती हैं. यही कारण है कि यहां पर दुर्गा पूजा की जिम्मेदारी हर साल अलग-अलग लोग निभाते हैं और बाकायदा इसके लिए बुकिंग होती है. यहां पर लोग दुर्गा पूजा के दौरान प्रतिमा स्थापना के लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ता है. यहां के माफी गांव में जहां 2067 तक और रेवार गांव में 2046 तक श्रद्वालुओं के नामों की बुकिंग हो चुकी है. जातीय हिंसाओं की घटनाओं के लिए चर्चित वारिसलीगंज के गांवों में धार्मिक आस्था और परंपरा की ऐसी मिसाल अद्भुत है.
माफी गांव में इस साल दुर्गा पूजा की जिम्मेदारी स्वीकृता सिंह निभा रही हैं. 15 साल के लंबे इंतजार के बाद उन्हें यह अवसर मिला है. स्वीकृता के पति मधुसूदन सिंह ने अपने जीवन में यह संकल्प लिया था कि वे दुर्गा पूजा का पूरा खर्च उठाएंगे, लेकिन उनके निधन के बाद अब स्वीकृता इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं. वे मूर्ति स्थापना, प्रसाद, पूजा और बाजे का सारा खर्च स्वयं उठा रही हैं. स्वीकृता कहती हैं कि वह सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें 15 साल के अंतराल में नंबर आ गया है.

1954 से चली आ रही है परंपरा
दुर्गा पूजा समिति माफी से जुड़े रंजन कुमार राजू बताते हैं कि माफी गांव के दुर्गा मंडप में दुर्गा पूजा करनेवालों की फेहरिस्त काफी बड़ी है. यह 2067 तक बुक है. राजू के मुताबिक, यह परंपरा 1954 से चली आ रही है. सर्वप्रथम अकलू मांझी ने मूर्ति बनाने का जिम्मा लिया था. इसके बाद हरि पाठक ने निशुल्क पूजा की, जबकि राम खेलावन सिंह, देवकी प्रसाद सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा ने बाकी का खर्च उठाया था. इसके बाद से यह परंपरा चली आ रही है. समय गुजरता गया और अन्य लोग भी आ गए. लिहाजा 2010 में पूजा कराने वालों की एक लिस्ट तैयार की गई और उस वक्त यह 2036 तक बुक हो गया था. इसके बाद हर साल दो-चार लोग आते गए और अब यह 2067 तक बुक है.

सप्तमी के दिन नंबर लगाने की परंपरा
उन्होंने बताया कि हर साल सप्तमी के दिन नंबर लगाने की परंपरा रही है. राजू के मुताबिक, दो वर्ष तक गांव वाले, दो वर्ष तक विवाहित बेटियां और दो वर्ष तक रिश्तेदारों को मौका दिया जाता है.
लोगों की बढ़ती तादाद के कारण माफी गांव में एक और दुर्गा पूजा कमेटी का गठन किया गया है. नव दुर्गा पूजा कमेटी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता नवीन सिंह कहते हैं कि लंबी कतार के कारण कई लोगों को मौका नही मिल पाता था. ऐसे में एक नई कमेटी का गठन किया गया है, जिसमें अगले दस साल तक बुक हो गया है.

35 साल तक दुर्गा प्रतिमा स्थापित करनेवालों की कतार
दरअसल, वारिसलीगंज की पहचान जातीय नरसंहार के कारण रही है. हालांकि इस इलाके में धार्मिक अनुष्ठान की अनूठी परंपरा है. वारिसलीगंज का माफी अकेला गांव नहीं है. वारिसलीगंज इलाके के नारोमुरार गांव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. सामाजिक कार्यकर्ता धनंजय कुमार कहते हैं कि नारोमुरार गांव में 1922 से दुर्गापूजा के अवसर पर मूर्ति स्थापित करने की परंपरा शुरू हुई थी. इसकी शुरूआत नागेश्वर गुरूजी ने की थी. नागेश्वर गुरूजी दुर्गा के उपासक थे. बाद में लोगों की आस्था बढ़ती गई. अब ऐसी स्थिति है कि दुर्गा प्रतिमा स्थापित करने वालों की होड़ लगी रहती है. धनंजय बताते हैं कि अगले 35 साल तक दुर्गा प्रतिमा स्थापित करनेवालों की लंबी कतार है.

वारिसलीगंज इलाका धार्मिक शिक्षा का प्रमुख केन्द्र
वारिसलीगंज इलाका के पकरीबरावां प्रखंड के रेवार गांव में दुर्गा प्रतिमा स्थापित करने की अनूठी परंपरा कायम है. दुर्गा पूजा कमेटी रेवार से जुड़े और पटना एसबीआई के ब्रांच मैनेजर ग्यानचंद कुमार बताते हैं कि 1995 में यह परंपरा शुरू हुई थी. नवादा के मथुरा यादव ने इस परंपरा की शुरूआत की थी, जो अब तक चली आ रही है. ग्यानचंद कुमार के मुताबिक, 2046 तक भक्तों की लंबी लिस्ट है. दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के बाद कमेटी बैठती है, जिसमें नए नामों की एंट्री होती है.
वरिष्ठ साहित्यकार राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर कहते हैं कि प्राचीन काल से वारिसलीगंज इलाका धार्मिक शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा है. यह परंपरा उसी की कड़ी है जो कई स्वरूपों में देखने को मिलता है। देखें तो आमतौर पर दुर्गा प्रतिमा स्थापित करने को लेकर महीनों तक चंदा किया जाता है, लेकिन नवादा के माफी, नारोमुरार और रेवार गांव अनूठा है, जहां दुर्गा प्रतिमा स्थापित करने के लिए लोग अपनी बारी का सालों इंतजार करते हैं.
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