यह ख़बर 26 जनवरी, 2012 को प्रकाशित हुई थी

भूखे पेट नहीं गा पाएंगे ये देशभक्ति के तराने...

खास बातें

  • 63वें गणतंत्र दिवस पर जहां पूरा लखनऊ शहर जोश और उमंग के साथ तिरंगे को नमन कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ फुटपाथों पर जीवन व्यतीत कर रहे लोगों की कहानी दिल को व्यथित कर देने वाली है।
लखनऊ:

63वें गणतंत्र दिवस पर जहां पूरा लखनऊ शहर जोश और उमंग के साथ तिरंगे को नमन कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ  शहर में अलग-अलग जगहों पर फुटपाथों पर जीवन व्यतीत कर रहे लोगों की कहानी दिल को व्यथित कर देने वाली है। ये लोग दुखी मन से यही कहते हैं कि गणतंत्र दिवस तो हम भी मनाना चाहते हैं लेकिन भूखे पेट कैसे मनाएं। शहर के फुटपाथों पर जिंदगी गुजार रहे इन लोगों के पास पांच रुपये तक नहीं कि वे एक प्लास्टिक का तिरंगा खरीदकर गणतंत्र दिवस का जश्न मना सकें।

इन लोगों का दर्द यही है गणतंत्र दिवस तो उनके लिए रोजमर्रा के अन्य दिनों की तरह है जिसमें सुबह से शाम तक हाथ में भीख का कटोरा लिए दो जून की रोटी जुटाने में पसीने छूट जाते हैं। गणतंत्र दिवस के मौके पर चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर एक ऐसे परिवार से मुलाकात हुई जिसका हर सदस्य सुबह सिर्फ एक ही मकसद लेकर सड़क पर कटोरा लेकर खड़ा होता है कि कुछ पैसे मिल जाएं तो पेट की भूख मिटाई जा सके।

इस परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य दयाराम कुशवाहा से मुलाकात हुई। वह मूलत: बुंदेलखण्ड के बबीना के रहने वाले हैं। उनकी दो बेटियां और एक बेटा हैं। सभी का एक मकसद है भीख मांगकर दो जून की रोटी का जुगाड़ करना। कुशवाहा से जब पूछा, "कल गणतंत्र दिवस है। आप कैसे मनाएंगे।" उन्होंने बड़े ही सरल अंदाज में कहा, "काहे का गणतंत्र दिवस। यह उनके लिए है जिनकी जेब में पैसे हैं। हम भूख मिटाने के लिए सड़क पर भीख मांगे कि गणतंत्र दिवस मनाएं।"
कुशवाहा ने कहा कि बहुत पहले जब गांव से नया-नया आया था उस समय गणतंत्र दिवस की एक झलक देखी थी लेकिन अब गणतंत्र दिवस से बड़ी जिम्मेदारी बच्चों के पेट पालने की है। परिवार की माली हालत के बारे में पूछने पर कुशवाहा की आंखों में आंसू भर आए। रूंधे गले से उन्होंने कहा कि बच्चों को सभी पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं लेकिन मजबूरी ऐसी है कि उनसे ही भीख मंगवानी पड़ रही है।
उनसे जब कहा गया कि सरकार की तमाम ऐसी योजनाएं हैं, जिसकी आप मदद ले सकते हैं, तो उन्होंने कहा, बाबू सरकारी योजनाएं तो महज दिखावा हैं। इनका लाभ तो सिर्फ बड़ों को ही मिलता है। हमारी सुनने वाला कोई नहीं। बैंक भी उसी को कर्ज देते हैं जहां से मिलने की आस होती है। अब बच्चों को पढ़ाएं तो कैसे।
अभी अगला सवाल करने ही वाला था कि उन्होंने कहा, "बाबू आप जाओ, काहे अपना समय खोटा करते हो, हमें भी काम पर जाना है।"
दयाराम की तरह ही पूर्वाचल के सोनभद्र जिले के जीतन पटेल के परिवार का गुजारा सड़कों की रेड लाइटों पर भीख मांगकर होता है। उनका एक बच्चा है जो पढ़ना तो चाहता है लेकिन पिता की मजबूरियों के आगे वह अपनी इच्छा को स्वत: ही समाप्त कर देता है। पटेल ने कहा, "अन्य बच्चों को स्कूल जाते हुए देखता है तो वह भी स्कूल जाने की जिद करता है लेकिन मैं किसी तरह दो जून की रोटी ही जुटा पाता हूं। दिन भर में भीख मांगकर 100 रुपये का जुगाड़ करना ही चुनौती होती है।"

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पटेल के बेटे मोहन की उम्र 10 साल के आसपास है। जब उससे पूछा कि गणतंत्र दिवस के दिन क्या करते हो तो वह कहता है, "करना क्या है रोज की तरह बाबू के साथ हाथ बटाता हूं। मैं भी स्कूल जाना चाहता हूं लेकिन बाबू मना कर देते हैं।"  इन दो आम नागरिकों के बाद एक तीसरी महिला रामदुलारी के पास पहुंचा। वह सुल्तानपुर की हैं। इनका दर्द तो और भयानक था। परिवार के बारे में पूछने पर पता चला कि आगे पीछे कोई नहीं है सिर्फ अपने लिए ही स्टेशन आने जाने वालों के सामने कटोरा लेकर खड़ा रहती हैं। शाम तक किसी तरह सूखी रोटी का इंतजाम हो जाता है।  वह कहती हैं, "बेटा मत पूछो करीब 20 साल से ऊपर हो गए और लोग भी हैं जो दूसरे शहरों में हैं लेकिन पूछने वाला कोई नहीं।"