यह ख़बर 22 अक्टूबर, 2013 को प्रकाशित हुई थी

चंद्रगुप्त मौर्य काल का है डौंडियाखेड़ा किला!

उन्नाव:

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का डौंडियाखेड़ा किला 155 वर्षों से वीरान व गुमनाम पड़ा हुआ था, लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा सोने की खोज में वहां खुदाई करने की वजह से समूचे देश की निगाहें अचानक इतने वर्षों बाद इस किले पर आ टिकी हैं।

सोने का खजाना मिलना या न मिलना अभी भविष्य की गर्त में है, लेकिन डौंडियाखेड़ा किले से संबंधित कुछ बहुत ही रोचक जानकारियां जरूर निकलने लगी हैं। डौंडियाखेड़ा किले के बारे में जो नई जानकारी मिली है, वह यह है कि यह किला राजा राव रामबख्श का नहीं, बल्कि चंद्रगुप्त मौर्य काल से ही अस्तित्व में है।

उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा गांव में गंगा नदी के किनारे बने इस किले के बारे में गांव के बुजुर्गों का कहना है कि डौंडियाखेड़ा को पहले द्रोणि क्षेत्र या फिर द्रोणिखेर से पहचाना जाता था। चंद्रगुप्त मौर्य काल में यह इलाका पांचाल प्रांत का हिस्सा हुआ करता था। उस काल में 400 से 500 गांवों के भू-भाग को द्रोणिमुख कहा जाता था।

इस द्रोणिमुख क्षेत्र की राजधानी डौंडियाखेड़ा हुआ करती थी, इसलिए इसका काफी महत्व था। साथ ही तब के राजा का एक सैन्य अधिकारी अपनी टुकड़ी के साथ यहां बसनेर किया करते थे। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता अलेक्जेंडर की मानें तो उन्होंने अपनी एक पुस्तक में कहा है कि बौद्धकालीन हयमुख नामक प्रसिद्ध नगर यहीं था, जहां पर हर्षवर्धन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था।

डौंडियाखेड़ा किले के बारे में अपने को राजा राव रामबख्श सिंह का वंशज बताने वाले चंडीवीर प्रताप सिंह का कहना है कि इस किले में शुरू में बाहुबली भरों का कब्जा हुआ करता था। भरों से किला जीतने के लिए बैसों ने कई बार कोशिश की, लेकिन असफल रहे। सन 1266 के आस-पास बैसों के राजा करन राय के बेटे सेढूराय ने आखिरकार इस किले को भरों से जीत लिया।

वह बताते हैं कि इस किले पर बैसों का कब्जा होने की वजह से यह बैसवारा नाम से चर्चित हुआ और डौंडियाखेड़ा इसकी राजधानी रही। वह आगे बताते हैं कि बैस राजवंश में त्रिलोकचंद्र नामक प्रतापी राजा हुए। उन्होंने इस किले को न सिर्फ सुदृढ़ कराया, बल्कि किले के अंदर दो महल भी बनवाए, साथ ही किले के अंदर 500 सैनिक और किले के बाहर दस हजार सैनिकों की तैनाती भी की।

राजा त्रिलोकचंद्र के बारे में उन्होंने बताया कि वह दिल्ली सल्तनत के बादशाह बहलोल लोदी के काफी नजदीकी सहयोगी माने जाते रहे हैं। त्रिलोकचंद्र के काल में ही कालपी, मैनपुरी से लेकर प्रतापगढ़ जिले के मानिकपुर और पूर्व में बहराइच तक फैल चुका था।

गांव के 90 साल के बुजुर्ग सरवन बताते हैं कि बैस वंश के अंतिम राजा राव रामबख्श सिंह को 28 दिसंबर 1857 को फांसी देने के बाद ब्रिटिश सेनानायक सर होप ग्रांट ने हमला करवा कर इसे नेस्तनाबूद करवा दिया था।

अगर इस किले के भूगोल के बारे में चर्चा करें तो उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला मुख्यालय से करीब 33 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में 50 फिट ऊंचे मिट्टी के टीले पर यह किला बना हुआ है। किले के पश्चिम दिशा में गंगा नदी टीले को छू कर बहती है और किले का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर था।

किले के सामने की लंबाई 385 फिट है और पीछे का हिस्सा कुछ चौड़ा है। किले का क्षेत्रफल 1,92,500 वर्ग फिट है। यह किला चारों तरफ मिट्टी की 30-32 फिट मोटी दीवारों से घिरा था और इसके चारों तरफ 50 फिट गहरी खाई बनी थी, जिसमें हमेशा पानी भरा रहता था।

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यह बताना जरूरी है कि इससे पहले खंडहर में बदल चुके इस ऐतिहासिक धरोहर की खबर न तो एएसआई को थी और न ही कोई गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ही इस किले के संरक्षण के लिए अब तक आगे आया। अब जब एक संत शोभन सरकार ने यहां एक हजार टन सोने का खजाना होने के सपने के बारे में केंद्र सरकार को बताया तो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) व एएसआई हरकत में आई और यह सुर्खियों में आ गया।