आतंकवाद और दूसरी चुनौतियों से निपटने के लिए दुनिया के 25 से ज्यादा मुस्लिम देश अमेरिका के सहयोगी संगठन NATO यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन की तर्ज पर एक नया संगठन बनाने की तैयारी कर रहे हैं. इस्लामिक NATO में सऊदी अरब, पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, बहरीन, तुर्की, मिस्र, बांग्लादेश, मलेशिया और अफगानिस्तान जैसे देश शामिल हो सकते हैं. इस्लामिक NATO का लक्ष्य भले ही आतंकवाद से लड़ना हो, लेकिन पाकिस्तान जैसा देश जिस संगठन का अहम सदस्य होगा, उसका आतंक पर क्या रुख होगा, ये पूरी दुनिया को मालूम है.
आइए समझते हैं क्या है इस्लामिक NATO? इसे बनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? टेरर फंडिग करने वाले और आतंकियों के पनाहगार पाकिस्तान के इसमें शामिल होने से क्या नुकसान होगा? असली NATO के रहते हुए इस्लामिक NATO कितना हकीकत और कितना फसाना साबित होगा:-
पहले असली NATO के बारे में जानिए?
यूरोप और उत्तरी अमेरिका में NATO के 32 सदस्य हैं. इनमें ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन और तुर्किए शामिल हैं. इनका मकसद एक दूसरे की सामरिक मदद करना है. अब उसी रास्ते पर कुछ मुस्लिम देश भी चलना चाहते हैं.
इस्लामिक NATO के कितने सदस्य?
इस्लामिक NATO के कोर मेंबर के तौर पर सऊदी अरब, पाकिस्तान, तुर्की, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, बहरीन, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और मलेशिया शामिल हो सकते हैं. इन 10 कोर मुस्लिम देशों के अलावा इस्लामिक NATO को संरक्षण देने वालों में इंडोनेशिया, ईरान, इराक, कतर, कुवैत, ओमान, लीबिया, मोरक्को, ट्यूनिशिया और अल्जीरिया, अजरबैजान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ब्रुनेई भी इसमें शामिल हो सकते हैं.
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इस्लामिक NATO का मकसद?
आज दुनिया में इस्लामिक देशों की संख्या 57 है. अगर मुस्लिम देशों के NATO के एजेंडे को देखें, तो इसका मकसद आतंकवाद रोधी ऑपरेशन चलाना, आपसी सहयोग से मिलिट्री को मॉडर्न बनाना, रक्षा साझेदारी और सहयोग कायम करना, एक दूसरे से खुफिया जानकारी शेयर करना और इस्लामिक एकजुटता को बढ़ावा देना है.
इस्लामिक NATO कितना हकीकत और कितना फसाना?
NATO का सबसे प्रमुख देश अमेरिका है, जबकि इस्मालिक NATO का सबसे प्रमुख देश सऊदी अरब हो सकता है. दोनों देशों के एक दूसरे से बेहद अच्छे संबंध हैं. इसके बाद भी हिज्बुल्लाह और हमास को लेकर सऊदी अरब कभी भी ईरान की तरह आक्रामक या खुलकर सामने नहीं आया. न ही सऊदी अरब ने युद्ध को लेकर इजरायल का खुलकर समर्थन किया है.
57 मुस्लिम देशों वाले ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कॉर्पोरेशन यानी OIC ने भले ही इजरायल की कड़ी निंदा की हो, लेकिन निजी तौर पर तमाम मुस्लिम देश इससे दूर ही रहे. ऐसे में आतंकवाद और ऐसे मुद्दों पर ये इस्लामिक देश कैसे एक मंच पर एक राय बना पाएंगे? ये बड़ा सवाल है, जिसका फिलहाल कोई जवाब नहीं है.
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हालांकि, इस्लामिक नाटो के लिए मुस्लिम देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देश खुद ही एक चुनौती हैं, जहां आतंकवाद का कारोबार सरेआम चलता है.
भारत पर क्या पड़ेगा इसका असर?
जिन मुस्लिम देशों की बात हो रही है, उनमें इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद सबसे ज्यादा मुसलमान तो भारत में हैं, लेकिन मुस्लिम या इस्लामिक नाटो से भारत को खतरा हो सकता है. खासकर कश्मीर के सवाल पर विवाद होने की आशंका है. डिफेंस और इंटरनेशनल अफेयर्स एक्सपर्ट कमर आगा का मानना है कि अगर इस्लामिक नाटो बनता है, तो कश्मीर विवाद बढ़ सकता है. क्योंकि, पाकिस्तान के एजेंडे पर यही मुद्दा अहम रहेगा. ये समूह भारत के ऊपर दबाव बनाने का प्रयास कर सकता है. इस समूह के बन जाने से पाकिस्तान मजबूत होगा. लिहाजा सीमा पर सुरक्षा को लेकर परेशानी हो सकती है."
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क्या भारत में मुस्लिम आबादी पर पड़ेगा असर?
पूर्व राजनयिक अशोक सज्जनहार कहते हैं, "भारत में मुस्लिम आबादी करीब 15 फीसदी है. मैं समझता हूं पूरे विश्व में भारत के सभी मुस्मिल देशों के साथ अच्छे रिश्ते हैं. मैं नहीं समझता कि अगर NATO जैसी मुस्लिम देशों की कोई शक्ति उभरकर आती है, तो भी हमारे उनके साथ संबंध बेहतर ही होंगे. साथ ही ऐसी शक्ति से भारत के मुसलमानों पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा."
सऊदी अरब अमेरिका की तरह ही संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, और विश्व व्यापार संगठन जैसे कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है. ऐसे में अगर मुस्लिम NATO बनता है और उसकी कमान सऊदी अरब के हाथों में होती है, तो हालात बिगड़ने का डर कम हो सकता है.
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