सीरिया में छिड़ी लड़ाई ने 40 लाख लोगों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया
सुरुक, तुर्की:
दुनिया को हिला कर रख देने वाले शरणार्थी संकट को युद्धग्रस्त सीरिया के लोगों के यूरोप में प्रवेश करने की कोशिश के रूप में परिभाषित किया गया। लेकिन जो लोग पश्चिमी देशों में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हैं उनकी संख्या बहुत ही कम है। लाखों लोगों में से 10 फीसदी से भी कम लोग यूरोप पहुंच पाते हैं, बाकियों की पहुंच से पश्चिमी देश दूर ही हैं। इस पूरे हफ्ते एनडीटीवी पर पलायन से जुड़ी विशेष शृंखला, जिसके तहत हमने शरणार्थी संकट की अदृश्य जड़ों को ढूंढने की कोशिश की। पेश है इस शृंखला की पहली कड़ी सीरिया-तुर्की के बॉर्डर से...
युद्ध से त्रस्त देश के एक छोर पर बसे एक शहर में हमारी मुलाकात 12 साल के जेमजिन से हुई। सीरिया की सीमा से कुछ मील की दूरी पर स्थित तुर्की के धूल भरे शहर सुरुक की एक कपड़े की दुकान में अलमारियों को व्यवस्थित करता जेमजिन कोबेन का रहने वाला है। सीरिया की सीमा पर स्थित कोबेन वही शहर है जहां भारी नरसंहार और हजारों लोगों के पलायन के बाद अक्टूबर 2014 से ही आईएसआईएस का कब्जा है।
जेमलिन का परिवार भी उन लाखों सीरियाई शरणार्थियों में शामिल है जो तुर्की में शरण लिए हुए हैं। इनमें से बहुत से परिवार बेहद गरीब हैं। हफ्ते में 6 दिन 8 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जेमजिन करीब 20 टर्किश लीरा ही कमा पाता है यानी हफ्ते में 10 डॉलर से भी कम। उसने हमें बताया कि उसे कोबेन में अपने स्कूल की याद आती है जहां उसने विज्ञान, गणित और इतिहास भी सीखा, हालांकि विकल्प कम ही थे।
सड़क के उस तरफ, एक छोटी सी सिलाई दुकान में हमें मुहम्मद मिला, वह भी जेमजिन की तरह ही कोबेन का है और अब स्कूल नहीं जा पाता। 13 साल के मुहम्मद ने अब एक नया काम सीख लिया है, वह अब पर्दों की सिलाई करता है जो स्थानीय बाजार में बिकते हैं।
मुहम्मद हर दिन 8-10 घंटे काम करता है और उसे भी उतने ही पैसे मिलते हैं जितने जेमजिन को। पास ही में 13 साल का खालिद मिला, हालांकि वो उम्र में थोड़ा बड़ा लग रहा था। खालिद ने एम्ब्रॉयडरी मशीन चलाना सीख लिया है। उसने हमें बताया कि वह पिछले तीन साल से इस दुकान में काम कर रहा है यानी उसने 10 साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर दिया था।
अपने अनुभव के चलते खालिद कुछ ज्यादा पैसे कमा लेता है, यानी हफ्ते में 20 से 50 लीरा तक। खालिद और बाकी दो ही अकेले नहीं हैं। सुरुक के बाजारों में कोबेन के बच्चे हर तरफ मिल जाएंगे, गुलामों जैसी मजदूरी के लिए घंटों कड़ी मशक्कत करते हुए।
उनके नियोक्ताओं का कहना है कि बच्चों को वाजिब पैसे मिल रहे हैं। मोहम्मद के नियोक्ता ने बताया कि सुरुक कोई अमीर शहर तो है नहीं और वो जो पैसे दे रहे हैं वो पर्याप्त है। लेकिन तुर्की में न्यूनतम मजदूरी 1000 लीरा प्रति सप्ताह है और बच्चों को उसका 2 फीसदी भी मुश्किल से ही मिल पा रहा है। जबकि बाल मजदूरी गैर कानूनी है।
कुछ बच्चों ने हमें बताया कि तुर्की में सीरियाई बच्चों के लिए कोई माकूल स्कूल नहीं है। पढ़ाई का माध्यम या तो तुर्की भाषा है या फिर अंग्रेजी, बच्चों को अरबी आती है इसलिए वो तुर्की या अंग्रेजी समझ नहीं पाते।
सुरुक के पड़ोस में ही हम खालिद के माता-पिता से मिले। उनकी कहानी बेहद डरावनी है। वो लोग सीरिया के रक्का में रहते थे। आईएस ने कोबेन पर कब्जे से पहले रक्का को ही अपनी राजधानी बना रहा था।
खालिद के पिता मुस्तफा जो कि पेशे से प्लंबर हैं, ने बताया कि उनके पास बेटे से काम करवाने के अलावा कोई चारा नहीं था। जिस काम के लिए तुर्की के किसी प्लंबर को 700 लीरा मिलते हैं, वहीं मुझे उसी काम के लिए केवल 400 लीरा ही मिलते हैं।
मुस्तफा अपने परिवार को पालने के लिए जूझ रहे हैं। परिवार में पत्नी और 4 बच्चे हैं जिनमें खालिद सबसे बड़ा है। खालिद के छोटे भाई की टीशर्ट की ओर इशारा करते हुए उनकी मां ने बताया कि ये टीशर्ट उन्होंने उसे तीन साल पहले सीरिया से खरीदा था। उन्होंने बताया, 'हम नए कपड़े खरीदने में समर्थ नहीं हैं।'
तुर्की ने अपनी तरफ से करीब 25 लाख सीरियाई शरणार्थियों की देखरेख के लिए 7 अरब डॉलर खर्च किये हैं। सीरियाई युद्ध ने करीब 40 लाख लोगों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।
केवल 10 फीसदी लोग ही पश्चिमी देशों तक पहुंच पाते हैं, जबकि ये कहा जाता कि यूरोप सीरिया शरणार्थियों से भर गया है। इस बात से तुर्की को नाराजगी है।
असमानता की इस बात को मानते हुए पिछले हफ्ते ब्रुसेल्स में यूरोप के नेताओं की एक बैठक हुई जिसमें सीरियाई शरणार्थियों के लिए तुर्की द्वारा किए जा रहे प्रयासों के लिए ज्यादा फंड की व्यवस्था करने पर चर्चा हुई। लेकिन नई दिल्ली स्थित साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली शबनम अकापार कहती हैं कि जितने भी वादे किए जा रहे हैं वो हकीकत से दूर हैं। उन्होंने बताया कि तुर्की को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अब तक केवल 4,17000 डॉलर ही प्राप्त हुए हैं।
खालिद के माता-पिता और उनके जैसे दूसरे लोग यूरोप तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं।
जब हमने कोबेन में सीरियाई सीमा तक यात्रा की तो पाया कि जो लोग रह गए हैं वो भी निकट भविष्य में अपने घरों को नहीं लौट सकेंगे। शहर पर अब फिर से कुर्दों का नियंत्रण है जो आईएस और बशर अल असद की सेना से एक साथ लड़ रहे हैं, हालांकि शहर का बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका है।
खालिद, मुहम्मद और जेमजिन की तरह ही तीन साल का आयलान कुर्दी, पश्चिमी तुर्की के समुद्र तट पर अचेत पड़ा वही बच्चा जिसकी तस्वीर ने दुनिया को हिला कर रख दिया था, वो भी कोबेन से ही था। उसके परिवार ने अच्छी जिंदगी की उम्मीद में उसे दूर ले जाने की कोशिश की थी लेकिन उसकी नाव तुर्की और ग्रीस के बीच एजियन सागर में डूब गई।
पर सुरुक के बाजारों में हमने पाया कि शरणार्थियों के लिए यहां जीवन आसान नहीं है, खासकर बच्चों के लिए और भी मुश्किल है।
युद्ध से त्रस्त देश के एक छोर पर बसे एक शहर में हमारी मुलाकात 12 साल के जेमजिन से हुई। सीरिया की सीमा से कुछ मील की दूरी पर स्थित तुर्की के धूल भरे शहर सुरुक की एक कपड़े की दुकान में अलमारियों को व्यवस्थित करता जेमजिन कोबेन का रहने वाला है। सीरिया की सीमा पर स्थित कोबेन वही शहर है जहां भारी नरसंहार और हजारों लोगों के पलायन के बाद अक्टूबर 2014 से ही आईएसआईएस का कब्जा है।
जेमलिन का परिवार भी उन लाखों सीरियाई शरणार्थियों में शामिल है जो तुर्की में शरण लिए हुए हैं। इनमें से बहुत से परिवार बेहद गरीब हैं। हफ्ते में 6 दिन 8 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद जेमजिन करीब 20 टर्किश लीरा ही कमा पाता है यानी हफ्ते में 10 डॉलर से भी कम। उसने हमें बताया कि उसे कोबेन में अपने स्कूल की याद आती है जहां उसने विज्ञान, गणित और इतिहास भी सीखा, हालांकि विकल्प कम ही थे।
सड़क के उस तरफ, एक छोटी सी सिलाई दुकान में हमें मुहम्मद मिला, वह भी जेमजिन की तरह ही कोबेन का है और अब स्कूल नहीं जा पाता। 13 साल के मुहम्मद ने अब एक नया काम सीख लिया है, वह अब पर्दों की सिलाई करता है जो स्थानीय बाजार में बिकते हैं।
मुहम्मद हर दिन 8-10 घंटे काम करता है और उसे भी उतने ही पैसे मिलते हैं जितने जेमजिन को। पास ही में 13 साल का खालिद मिला, हालांकि वो उम्र में थोड़ा बड़ा लग रहा था। खालिद ने एम्ब्रॉयडरी मशीन चलाना सीख लिया है। उसने हमें बताया कि वह पिछले तीन साल से इस दुकान में काम कर रहा है यानी उसने 10 साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर दिया था।
अपने अनुभव के चलते खालिद कुछ ज्यादा पैसे कमा लेता है, यानी हफ्ते में 20 से 50 लीरा तक। खालिद और बाकी दो ही अकेले नहीं हैं। सुरुक के बाजारों में कोबेन के बच्चे हर तरफ मिल जाएंगे, गुलामों जैसी मजदूरी के लिए घंटों कड़ी मशक्कत करते हुए।
उनके नियोक्ताओं का कहना है कि बच्चों को वाजिब पैसे मिल रहे हैं। मोहम्मद के नियोक्ता ने बताया कि सुरुक कोई अमीर शहर तो है नहीं और वो जो पैसे दे रहे हैं वो पर्याप्त है। लेकिन तुर्की में न्यूनतम मजदूरी 1000 लीरा प्रति सप्ताह है और बच्चों को उसका 2 फीसदी भी मुश्किल से ही मिल पा रहा है। जबकि बाल मजदूरी गैर कानूनी है।
कुछ बच्चों ने हमें बताया कि तुर्की में सीरियाई बच्चों के लिए कोई माकूल स्कूल नहीं है। पढ़ाई का माध्यम या तो तुर्की भाषा है या फिर अंग्रेजी, बच्चों को अरबी आती है इसलिए वो तुर्की या अंग्रेजी समझ नहीं पाते।
सुरुक के पड़ोस में ही हम खालिद के माता-पिता से मिले। उनकी कहानी बेहद डरावनी है। वो लोग सीरिया के रक्का में रहते थे। आईएस ने कोबेन पर कब्जे से पहले रक्का को ही अपनी राजधानी बना रहा था।
खालिद के पिता मुस्तफा जो कि पेशे से प्लंबर हैं, ने बताया कि उनके पास बेटे से काम करवाने के अलावा कोई चारा नहीं था। जिस काम के लिए तुर्की के किसी प्लंबर को 700 लीरा मिलते हैं, वहीं मुझे उसी काम के लिए केवल 400 लीरा ही मिलते हैं।
मुस्तफा अपने परिवार को पालने के लिए जूझ रहे हैं। परिवार में पत्नी और 4 बच्चे हैं जिनमें खालिद सबसे बड़ा है। खालिद के छोटे भाई की टीशर्ट की ओर इशारा करते हुए उनकी मां ने बताया कि ये टीशर्ट उन्होंने उसे तीन साल पहले सीरिया से खरीदा था। उन्होंने बताया, 'हम नए कपड़े खरीदने में समर्थ नहीं हैं।'
तुर्की ने अपनी तरफ से करीब 25 लाख सीरियाई शरणार्थियों की देखरेख के लिए 7 अरब डॉलर खर्च किये हैं। सीरियाई युद्ध ने करीब 40 लाख लोगों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।
केवल 10 फीसदी लोग ही पश्चिमी देशों तक पहुंच पाते हैं, जबकि ये कहा जाता कि यूरोप सीरिया शरणार्थियों से भर गया है। इस बात से तुर्की को नाराजगी है।
असमानता की इस बात को मानते हुए पिछले हफ्ते ब्रुसेल्स में यूरोप के नेताओं की एक बैठक हुई जिसमें सीरियाई शरणार्थियों के लिए तुर्की द्वारा किए जा रहे प्रयासों के लिए ज्यादा फंड की व्यवस्था करने पर चर्चा हुई। लेकिन नई दिल्ली स्थित साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली शबनम अकापार कहती हैं कि जितने भी वादे किए जा रहे हैं वो हकीकत से दूर हैं। उन्होंने बताया कि तुर्की को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अब तक केवल 4,17000 डॉलर ही प्राप्त हुए हैं।
खालिद के माता-पिता और उनके जैसे दूसरे लोग यूरोप तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं।
जब हमने कोबेन में सीरियाई सीमा तक यात्रा की तो पाया कि जो लोग रह गए हैं वो भी निकट भविष्य में अपने घरों को नहीं लौट सकेंगे। शहर पर अब फिर से कुर्दों का नियंत्रण है जो आईएस और बशर अल असद की सेना से एक साथ लड़ रहे हैं, हालांकि शहर का बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका है।
खालिद, मुहम्मद और जेमजिन की तरह ही तीन साल का आयलान कुर्दी, पश्चिमी तुर्की के समुद्र तट पर अचेत पड़ा वही बच्चा जिसकी तस्वीर ने दुनिया को हिला कर रख दिया था, वो भी कोबेन से ही था। उसके परिवार ने अच्छी जिंदगी की उम्मीद में उसे दूर ले जाने की कोशिश की थी लेकिन उसकी नाव तुर्की और ग्रीस के बीच एजियन सागर में डूब गई।
पर सुरुक के बाजारों में हमने पाया कि शरणार्थियों के लिए यहां जीवन आसान नहीं है, खासकर बच्चों के लिए और भी मुश्किल है।
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