 
                                            - यूपी में सपा और बसपा के बीच सीट शेयरिंग का खाका तैयार
- कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखने के पीछे सामने आ रही ये वजह
- उपचुनाव वाले प्रयोग को फिर से दोहराना चाह रहीं सपा-बसपा
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के इस बयान पर गौर करिए- " बीजेपी के लिए महागठबंधन कोई बड़ी चुनौती नहीं है. 2019 में भी हमारी वापसी होगी, हां यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन से कुछ चुनौती जरूर खड़ीं हो सकतीं हैं. " अमित शाह के ये बयान हालिया में कुछ कार्यक्रमों के दौरान महागठबंधन को लेकर पूछे सवाल पर आए हैं. उनकी बातों से लगता है कि खुद बीजेपी के अंदरखाने भी यूपी में सपा-बसपा के प्रस्तावित गठबंधन को लेकर कुछ घबराहट है. यह अलग बात है कि चुनावी रणनीति के तहत पार्टी इस घबराहट को उजागर नहीं होने देना चाहती. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, सपा-बसपा के पास जिस तरह से थोक में जाति विशेष का बेस वोट बैंक है, वह अगर 2019 में एकजुट हुआ तो बीजेपी के 'हिंदू वोटर' के फार्मूले पर जातीय समीकरण भारी पड़ सकते हैं. यह ठीक उसी तरह होगा, जैसे बिहार में राजद और जदयू के कांग्रेस के साथ बनाए महागठबंधन के जातीय समीकरणों के फेर में बीजेपी उलझकर रह गई थी.
क्या इस सीट शेयरिंग फार्मूले पर लगेगी मुहर ?
उत्तर-प्रदेश के सियासी गलियारे में इस वक्त महागठबंधन की स्थिति में सीट शेयरिंग का खाका तैयार हो जाने की खबरें उड़ रहीं हैं. खबरों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में 38 पर बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी तो 37 सीटों पर समाजवादी पार्टी. जबकि तीन सीटें पश्चिम उत्तर-प्रदेश में असरदार चौधरी अजित सिंह की पार्टी रालोद के खाते में जाएंगी. वहीं दो सीटें कांग्रेस के सम्मान में छोड़ने का फैसला हुआ है. रायबरेली और अमेठी की सीट यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए छोड़ने की तैयारी है. ये तो रहा यूपी में बुआ-बबुआ के बीच गठबंधन का गणित. यह दीगर बात है कि बसपा या सपा के नेता अभी ऐसे किसी समझौते को खारिज कर रहे हैं. खुद बसपा में मायावती के बाद दूसरे नंबर के नेता सतीश मिश्रा इस बात को बेबुनियाद बता रहे हैं. हालांकि पार्टी के ही दूसरे नेता दबी-जुबान से गठबंधन के ऐसे समीकरणों को खारिज नहीं कर रहे हैं. सतीश मिश्रा के बयान को पार्टी की एक रणनीति भी कहा जा रहा है. 
सपा-बसपा कांग्रेस से गठबंधन कर भुगत चुकी
दरअसल यूपी में आज भी सवर्णों का एक तबका कांग्रेस का वफादार वोटर रहा है. अमूमन यह समझा जाता है कि दो दल साथ आ जाते हैं तो उनके वोट-बैंक परस्पर शिफ्ट हो जाते हैं. मगर यूपी की राजनीति को गहराई से समझने वाले राजनीति विश्लेषक इस बात को खारिज करते हैं. कहते हैं कि यहां राजनीति में दो में दो जोड़ने पर चार ही आए, यह जरूरी नहीं. राजनीति गणित नहीं केमेस्ट्री होती है. यहां दो चीज मिलाने पर कुछ और ही समीकरण बन जाता है. विश्लेषकों का कहना है कि कई बार दो अलग मिजाज के राजनीतिक दलों के बीच बेमेल गठबंधन से किसी तीसरे को फायदा हो जाता है. जैसा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में हुआ. कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन करने का दोनों दलों को फायदा नहीं हुआ. न कांग्रेस के सवर्ण वोटर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिए और न ही सपा के मतदाताओं ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट दिया. यही वजह है कि 2017 में सौ विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी कांग्रेस केवल सात सीटों पर जीत सकी, जबकि समाजवादी पार्टी के खाते में महज 47 सीटें आईं. वहीं 2012 के चुनाव में इसी समाजावादी पार्टी को अकेले चुनाव लड़ने पर 224 सीटें मिलीं थीं.  2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सवर्ण मतदाताओं के बीजेपी में शिफ्ट होने की बात सामने आई थी. 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बाद बसपा भी यह चीज भुगत चुकी है. उस वक्त बसपा को महसूस हुआ था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन कर कोई फायदा नहीं हुआ. वहीं 20107 में समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस फायदमेंद नहीं साबित हुई.
कांग्रेस अकेले चुनाव लडे़गी तो बीजेपी का ही वोट काटेगी
इस साल जब गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीटों के उपचुनाव हुए तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा मुखिया मायावती ने प्रयोग करने का फैसला लिया. उन्होंने कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखने की चाल चली. वह भी तब, जबकि  कांग्रेस बिना किसी शर्त के गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए लालायित रही. उल्टे अखिलेश यादव ने कांग्रेस उम्मीदवारों को दोनों सीटों पर मजबूती से लड़ने को कहा और पूरी मदद करने का भी आश्वासन दिया. दरअसल सपा और बसपा यह देखना चाहतीं थीं कि कांग्रेस के अलग लड़ने से क्या असर पड़ता है ?  सपा और बसपा के नेताओं के मुताबिक कांग्रेस अगर अकेले चुनाव मैदान में उतरती है तो वह बीजेपी का ही वोट काटेगी. ऐसे में जिन सीटों पर कम वोटों से हार-जीत का अंतर होता है, वहां पर कांग्रेस की वोटकटवा भूमिका निर्णायक सिद्ध हो सकती है. यही वजह रही कि तीनों सीटों के उपचुनाव में गठबंधन विजयी रहा.राजनीतिक जानकार बताते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस ने बीजेपी के सवर्ण वोटरों में चार से पांच हजार की सेंधमारी कर ली थी, उन सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की जीत हुई थी. 2012 में कांग्रेस अकेले लड़ी थी तो समाजवादी पार्टी को 224 सीटें मिलीं थीं वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में साथ चुनाव लड़ने की रणनीति बुरी तरह फ्लॉप रही और समाजवादी पार्टी की सीटों की संख्या 224 से घटकर 47 पर पहुंच गई. कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा भी घट गया. 2012 में कांग्रेस को जहां 28 सीटें मिलीं थीं, वहीं सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने पर 2017 में मात्र सात सीटों से संतोष करना पड़ा. 
कांग्रेस से मायावती की चिढ़न की वजह ?
यूपी के गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखने के पीछे बसपा मुखिया मायावती की कुछ निजी पसंद नापसंद भी बताई जाती है.पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा और कांग्रेस के बीच प्री पोल अलायंस की खबरें उछल रहीं थीं, मगर मायावती ने न मध्य प्रदेश में गठबंधन किया और न ही छत्तीसगढ़ में. दोनों जगह सीटों पर बात न बन पाने और कुछ 'ईगो' के कारण बसपा ने कांग्रेस से दूरी बना ली. छत्तीसगढ़ में बसपा मुखिया ने कांग्रेस की जगह उसे छोड़कर नई पार्टी बनाने वाले अजित जोगी की पार्टी से गठबंधन करना ज्यादा उचित समझा. चुनाव से पहले चार अक्टूबर को मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर कांग्रेस पर पार्टी तोड़ने की कोशिशों का भी आरोप लगा दिया. कहा कि उनकी पार्टी को खत्म करने की कुछ कांग्रेस नेता साजिश कर रहे हैं.सूत्र बताते हैं कि जिस तरह से यूपी में कांग्रेस मायावती के कभी भरोसेमंद रहे और अब बागी हुए नसीमुद्दीन को पार्टी में लेकर भाव दे रही है, उसे मायावती को ठेस पहुंची है. हालांकि इन सब के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती बीजेपी की जगह कांग्रेस के पाले में ही खड़ी नजर आएंगी.
2009 और 2014 के चुनाव में किसको कितनी सीटें
2014 में कुल 80 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे. जिसमें बीजेपी ने 71 और गठबंधन में शामिल अपना दल ने दो सीटें जीतीं. इस प्रकार बीजेपी  नेतृत्व वाले गठबंधन को रिकॉर्डतोड़ 73 सीटें मिलीं. जबकि दो सीटें कांग्रेस और पांच सीटें समाजवादी पार्टी को मिलीं थीं. जबकि बसपा का खाता भी नहीं खुला था. वहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में 23.26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ समाजवादी पार्टी को 23, कांग्रेस को 18.25 प्रतिशत वोट बैंक के साथ 21 और भाजपा को 17.50 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दस सीटें मिलीं थीं.  जबकि रालोद के खाते में पांच लोकसभा सीटें आईं थीं.
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