विजेंदर सिंह (फाइल फोटो)
स्टार बॉक्सर विजेंदर सिंह लिवरपूल में अपनी चौथी जीत के लिए जमकर पसीना बहा रहे हैं। 13 फरवरी को होने वाला यह मुकाबला अब 12 मार्च को होगा, लेकिन विजेंदर ने इसे लेकर दुख जाहिर किया है। यानी 13 फरवरी की बाउट के लिए उनकी तैयारी अपने चरम पर थी।
तीन मैच-तीन जीत, तीनों नॉकआउट
ओलिंपिक पदक विजेता भारत के नामचीन प्रोफेशनल बॉक्सर विजेंदर का यह शानदार रिकॉर्ड बताता है कि वह प्रोफेशनल बॉक्सिंग की दुनिया के एक उभरते सितारे हैं। हर जीत के साथ विजेंदर के सपने बड़े हो रहे हैं।
लॉस वेगास में करीब 7 महीने पहले हुई दुनिया की सबसे महंगी फाइट की तस्वीरें पुरानी नहीं पड़ी हैं। लॉस वेगास में फलॉयड मेयवेदर और मैनी पैकिआओ से हुई इस फाइट ऑफ द सेंचुरी ने भारत में भी स्पोर्ट्स फैन्स को इस खेल का कायल बना दिया।
दुनियाभर के करोड़ों फैन्स ने इसे बड़े चाव से देखा, जिन्हें मुक्केबाजी की खास समझ नहीं है, उनके लिए भी यह फाइट चर्चा का विषय बनी रही। करीब ढाई हजार करोड़ रुपए की इस फाइट ने भारतीय मुक्केबाजों के मुंह में पानी ला दिया।
लॉस वेगास में हुई इस फाइट को लेकर लंदन के प्रोफेशनल बॉक्सर आमिर खान से लेकर भिवाणी के विजेंदर सिंह में एक जैसी दिलचस्पी बनी रही।
दुनिया की इस सबसे बड़ी फाइट की इनामी रकम, हॉलीवुड का ग्लैमर, इससे जुड़े बेहिसाब आंकड़े और प्रो रिंग के X फैक्टर ने बॉक्सिंग की दुनिया में तो हलचल मचाई ही, भारतीय मुक्केबाजों के सपने रंगीन कर दिए।
विजेंदर की उपलब्धि होगी गेमचेंजर
बीजिंग ओलिंपिक्स में भारतीय मुक्केबाजी के लिए पहला पदक जीतने वाले विजेंदर को यह भांपते देर नहीं लगी कि अब उनका भविष्य प्रोफेशनल मुक्केबाजी में ही है। उन्हें और उनको इसके लिए मनाने वालों को अच्छी तरह मालूम था कि अब देर की तो वाकई देर हो जाएगी।
विजेंदर की शुरुआत अब तक शानदार रही है। नॉकआउट के जरिये मिली जीत, उनमें हौसला भर रही है और उन्हें प्रोफेशनल रिंग का उभरता सितारा बता रही है। कई जानकार विजेंदर को भारत में प्रो बॉक्सिंग का गेमचेंजर मानने लगे हैं।
विजेंदर कहते हैं, "अभी तो मैंने बस शुरुआत की है। अब तक सबकुछ ठीक रहा है। मुझे देखकर वहां भारतीय मुक्केबाजों की मांग बढ़ने लगी है। मैंने वहां के लोगों को कई भारतीय मुक्केबाजों के नाम दिए हैं। मुझे लगता है कई भारतीय मुक्केबाजों में प्रोफेशनल मुक्केबाजी में चमकने का माद्दा है।
भारत के पूर्व प्रोफेशनल मुक्केबाज राजकुमार सांगवान मानते हैं कि विजेंदर में प्रोफेशनल रिंग में अच्छा करने का माद्दा है., जबकि इंडियन बॉक्सिंग काउंसिल के अध्यक्ष ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) पीकेएम राजा मानते हैं कि विजेंदर का लंदन जाकर प्रोफेशनल मुक्केबाजी करना भारतीय प्रो-बॉक्सिंग के लिए एक गेमचेंजर साबित हो सकता है।
सात साल पहले बीजिंग ओलिंपिक्स में मिली ऐतिहासिक जीत ने विजेंदर को भारतीय खेलों का सुपरस्टार बना दिया। विजेंदर का सितारा रातोंरात चमकने लगा। फिर क्या था... नाम, शोहरत, पैसा सब विजेंदर के पीछे भागते नजर आए।
पदक नहीं जीत पाने का मलाल
2008 में विजेंदर ने पदक जीतने के फौरन बाद इस संवादादाता को बीजिंग में दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो ओलिंपिक का एक और पदक जरूर जीतना चाहते हैं। 2012 में पदक से चूक जाने का मलाल विजेंदर को अब भी है।
वो कहते हैं, "2012 में मैं जिस मुक्केबाज (क्वार्टर फाइनल में उज़्बेकिस्तान के अब्बोस अतोएव) से हारा उसे मैं पहले हरा चुका था। सबकुछ जैसे तय था। कहते हैं किस्मत से ज़्यादा
कभी नहीं मिल सकता। शायद लंदन ओलिंपिक्स का पदक मेरी किस्मत में नहीं था, लेकिन उस पदक को नहीं हासिल कर पाने का मलाल हमेशा रहेगा। वो दुख कभी कम नहीं हो सकता।" विजेंदर अब भी मानते हैं कि भारत में मुक्केबाजों के लिए बड़ी कामयाबी का रास्ता ओलिंपिक्स के जरिये ही बनता है।
खुद विजेंदरर का प्रोफेशनल रिंग में पहुंचना एक आसान सफर नहीं रहा, लेकिन विजू हर मुश्किलों को नॉकआउट करते रहे। उन्हें यह भी लगता है कि रियो ओलिंपिक्स के बाद भारत में प्रोफेशनल बॉक्सर की संख्या बढ़ने वाली है। वो बताते हैं कि उनकी फाइट को देखकर वहां इस खेल में दिलचस्पी रखने वाले लोग प्रभावित हैं। उन्होंने विजेंदर से भारतीय मुक्केबाजों के नाम पूछे हैं जिनमें प्रोफेशनल मुक्केबाजी में अच्छा करने का माद्दा नजर आता है। विजेंदर ने कहा कि उन्होंने कई मुक्केबाजों के नाम बताये हैं। उन्हें यह भी लगता है कि रियो ओलिंपिक्स के बाद प्रोफेशनल रिंग में भारतीय मुक्केबाजों की संख्या बढ़ने वाली है।
पहले भी कमाया है नाम
इसमें कोई शक नहीं कि विजेंदर भारत के सबसे नामचीन प्रोफेशनल मुक्केबाज बनकर उभर रहे हैं, लेकिन इसकी पहल करीब 20 साल पहले ओलिंपियन बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव, देवराजन और राजकुमार सांगवान जैसे मुक्केबाजों ने की थी और उसके बाद करीब दर्जनभर भारतीय मुक्केबाज अलग-अलग देशों की प्रोफेशनल रिंग में उतरकर नाम और पैसा कमाते रहे हैं।
इन दिनों सड़कों पर स्टंट करते हुए, कड़ी ट्रेनिंग करना नौसिखुआ बॉक्सरों को रिंग के लिए तैयार करना बॉक्सर से कोच बने धर्मेंदर सिंह यादव का जुनून बन गया है।
दिल्ली एनसीआर की सड़कों पर इससे पहले की तेज़ रफ्तार से भागती गाड़ियां चिल्लपों मचाएं, कोच टीएस यादव की अगुवाई में कुछ दसेक बॉक्सर्स अपना हक चुरा ले रहे हैं।
अभ्यास के लिए इनके पास ना कोई ढंग की रिंग है, ना दौड़ने को मैदान। जिम और डाइट तो बड़ी बात है इसके पास बॉक्सिंग के पंचिंग बैग तक नहीं। मजबूरी है। कोई दूसरा चारा भी नहीं इसलिए ग़ाज़ियाबाद की एक सोसोयटी के आम पार्क में ये मुक्केबाज रोज सुबह तैयारी करते देखे जा सकते हैं।
सुविधाओं का अभाव
ये मुक्केबाज़ अपनी पहचान और देश के लिए नाम कमाना चाहते हैं। मगर पेड़ों को पंचिंग बैग बनाकर अभ्यास करना इन खेलों के प्रति हमारे रवैये पर टिप्पणी है। पेड़ पर पंचिंग कर रहे इस मुक्केबाज से यह भी कहा जाता है ..."ज़रा संभालकर कहीं ग्लव्स ना फ़ट जाएं...." बॉक्सिंग रिंग, पंचिंग बैग, जिम जैसी ज़रूरतें इनकी पहुंच से अभी बाहर हैं।
करीब ढाई दशक पहले नेताजी मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तो वर्ल्ड कप में मेडल हासिल कर चुके बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव उर्फ़ गोगी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ज़मीन देने का वादा कर दिया।
करीब 24-25 साल बाद एक बार फिर वही वादा उनके बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश ने किया, लेकिन वादे अब भी कागजों में ही सिसक रहे हैं। भारतीयों खेलों के साथ ऐसा अक्सर होता रहा है। डीएस यादव हंसते हुए बड़े दुख के साथ कहते हैं, "भारत में खेलों का सिस्टम ऐसा ही है। हर चीज़ धीमी रफ़्तार से होती है।"
धर्मेन्दर सिंह यादव बताते हैं कि 1994 में उन्होंने वर्ल्डटेल जैसी कंपनी के साथ क़रीब 75 लाख रुपये तक का करार कर लिया था जो बाद में कारगर नहीं हो पाया। कॉर्पोरेट जगत उनमें तब ऑस्कर डे ला होया की छवि देखता था। विदेशों में उन्हें आज के विजेंदरर जैसा रुतबा ही हासिल था। यह और बात है कि तब और अब की सुविधाओं में जमीन-आसमान का फसला हो गया है।
डीएस यादव पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "वहां तब भी सुविधाएं इस स्तर की थीं कि आपको सिर्फ़ मेहनत करनी होती थी. बॉक्सर्स का फ़ोकस सिर्फ़ प्रैक्टिस और मैच पर होता था। रिंग के बाहर की ज़िम्मेदारी अधिकारियों की होती थी. वैसी सुविधाएं आज भी भारतीय मुक्केबाजों को मिले तो वो कमाल कर सकते हैं।"
एमेच्योर में नाम कमा चुके ओलिंपियन मुक्केबाज़ के पास आज कोई नौकरी नहीं है, ना ही बच्चों को सिखा सकने की ठीक सुविधाएं। बॉक्सिंग तंत्र और निजी पारिवारिक उलझनें धर्मेन्दर के रास्ते का रोड़ा बनी हुई हैं। फिर भी धर्मेन्दर भारतीय मुक्केबाजों को रियो ओलिंपिक्स की तैयारी करवा रहे हैं।
भारत में हाशिये पर खेल और सिस्टम के बीच अजूबा तालमेल भी खेल से खिलवाड़ का एक पहलू है। धर्मेन्दर फिर भी अपना घरबार चला ही लेते हैं, लेकिन मुक्केबाजी की दुनिया में सबकी क़िस्मत उनके जैसी भी नहीं है।
धर्मेन्दर के ही शागिर्द जसपाल सिंह ऑटोमोबिल शॉप में लेथ मशीन पर काम करते हैं और एक प्रतिभाशाली बॉक्सर भी है.। बॉक्सर और मैकेनिक जसपाल के सपने बड़े हैं। 22 साल के जसपाल प्रोफ़ेशनल रिंग में मिल रही विजेन् सिंह की कामयाबी से बहुत प्राभावित हैं, इसलिए उनकी मुश्किलें उनका हौसला नहीं तोड़ पातीं।
बॉक्सिंग रिंग हो या ऑटोमोबिल मशीन जसपाल को यहां भरपूर मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन जसपाल के लिए बॉक्सिंग में रिंग में टिकने से ज़्यादा उसके लिए डाइट जुटाने की चुनौती है।
सुविधाएं जुटाना आसान नहीं
जसपाल सिंह कहते हैं, "बहुत मेहनत करनी पड़ती है, सर 4 घंटे यहां कम से कम 4 घंटे बॉक्सिंग में वक्त देना पड़ता है। और फिर इस खेल के लायक डाइट (पौष्टिक खाना) जुटा पाना आसान नहीं है।" कमाल की बात ये है कि बीजिंग की कामयाबी के बावजूद मुक्केबाजी संघ ना तो इसका फायदा खुद उठा पाया न ही आम भारतीय बॉक्सरों को इस खेल का फायदा मिल पाया।
डीएस यादव की अगुआई में ट्रेनिंग ले रहे जसपाल और डीएस यादव के बेटी (5 साल की पूर्णिमा) नन्ही लैला अली में एक अलग जज़्बा ज़रूर है। इनमें एक अलग जोश है शायद इसलिए इनके सपने तो हैं लेकिन शिकायतें नहीं.. और फिर शायद कमियों या बॉक्सिंग की ज़रूरतों का सही अंदाज़ा भी नहीं।
10 साल की पूर्णिमा कहती हैं कि वो बड़े होकर अपने पिता डीएस यादव की तरह ही बॉक्सर बनना चाहती हैं। उन्हें मैरीकॉम की बॉक्सिंग का तरीका भी बेहद अच्छा लगता है, जबकि जसपाल का सपना प्रोफेशनल बॉक्सिंग रिंग में धूम मचाने का है।
आपकी मुलाकात एक ऐसे अनूठे मुक्केबाज़ से करवाते हैं जिन्होंने पेशेवर और गैर पेशेवर मुक्केबाजी में ख़ूब नाम कमाया। अपने पेट्रोल पंप का नाम बॉक्सर पेट्रोल पंप रखा और अपने जज़्बे के सहारे युवा मुक्केबाजों को अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी के लिए तैयार कर रहे हैं।
बॉक्सर पेट्रोल पंप के छोटे से ट्रेनिंग कैंप में ये जांबाज अपने पंचों के ख़्वाब बुन रहे हैं... इस मामूली सी लगने वाली रिंग के कोच राजकुमार सांगवान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोफेशनल और एमेच्योर दोनों ही तरह की बॉक्सिंग में कामयाबी का स्वाद चखा है, इसलिए ये युवा मुक्केबाज बड़ी उम्मीदों के साथ यहां कड़ी मेहनत करते हैं।
भारत में नेशनल कैंप के बाहर आज भी बॉक्सिंग की सुविधाएं आज भी बेहद मामूली हैं। यहां की जद्दोजहद से राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर तक का सफ़र इनके लिए आसान तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता।
राजकुमार सांगवान की अकादमी में कुछ मुक्केबाज़ स्टेट स्कूल टूर्नामेंट में जाने को तैयार हो रहे हैं। यहां पर रखे ग्लव्स, मामूली कमरे, जिम के नाम पर बेतरतीब वेट्स बॉक्सिंग की मुफ़लिसी का अहसास करवाते हैं. ये आलम देश में एक बेहतर बॉक्सिंग कैंप का है।
सबकी एक ही ख्वाहिश है पहले नौकरी मिल जाए तो फिर आगे करियर बनाएं और देश के लिए खेलें। इस अकादमी में ट्रेनिंग करते अभिषेक कहते हैं, "नौकरी नहीं मिली तो बॉक्सिंग का कोई मतलब नहीं है।" एक अन्य मुक्केबाज़ अर्जुन सिंह बताते हैं कि उनके परिवार को भी उनसे काफ़ी उम्मीदें हैं। मुक्केबाज़ सलमान ख़ान बताते हैं कि उनकी नज़र मुक्केबाज़ी के नेशनल्स टूर्नामेंट पर है जहां मेडल जीतकर वो अपने लिए नौकरी का दरवाज़ा खोल सकते हैं।
वैसे इसमें हैरानी की बात नहीं है, क्योंकि चैंपियन विजेंदरर भी पूरी इमानदारी से इसे मानने से इंकार नहीं करते कि उन्होंने भी बॉक्सिंग नौकरी के लिए ही शुरू की थी। विजेंदर कहते हैं, "कोई रईसज़ादा तो बॉक्सिंग करता नहीं। मैंने भी नौकरी के लिए ही बॉक्सिंग शुरू की थी और मुझे मिली भी।"
लेकिन भारत में बॉक्सिंग तंत्र ढीला पड़ गया है. ऐसे में विजेंदरर का प्रोफ़ेशनल रिंग में उतरना सवालों के साथ एक उम्मीद लेकर आया है। पूर्व प्रोफ़ेशनल बॉक्सर राजकुमार सांगवान कहते हैं, विजेंदर की कामयाबी से भारतीय मुक्केबाजों को ज़रूर फ़ायदा पहुंचेगा।" कुछ ऐसी ही भारत के पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव भी दिलाते हैं।
सिस्टम से तंग आकर छोड़ा करियर
कमाल की बात है कि कभी पैसों के लिए ही सही सिस्टम से तंग आकर धर्मेन्, देवराजन और राजकुमार सांगवान ने ओलिंपिक्स और एशियाड का करियर छोड़ दिया। वो अब मामूली पैसे लेकर या बिना पैसे लिए खिलाड़ियों को इस खेल का हुनर सिखाने को तैयार हैं।
राजकुमार सांगवान बताते हैं कि कैसे सिस्टम से तंग आकर उन्होंने और उनके दो साथी धर्मेन्द और देवराजन ने क़रीब-क़रीब एक साथ क़रीब दो दशक पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग का रुख कर लिया था।
धर्मेन्दर सिंह यादव, देवराजन, राजकुमार सांगवान, गुरुचरण सिंह, लक्खा सिंह, नीरज गोयत, हरि कृष्णा, दिलबाग सिहाग, देवेन् थापा जैसे क़रीब एक दर्जन बॉक्सर हैं जो विजेन्दर से पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग रिंग में उतरने का रास्ता बनाते रहे हैं।
इन सबकी कहानी क़रीब-क़रीब एक जैसी ही है। सभी कभी ना कभी सिस्टम से हार कर प्रोफ़ेशनल रिंग में जीत का रास्ता बनाते रहे हैं। अब सबकी उम्मीद बने विजेंदरर फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं।
युवा मुक्केबाजों के रोल मॉडल विजेंदरर को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास है. वो जानते हैं कि उनकी हर जीत भारतीय बॉक्सिंग का रुतबा बढ़ाती है। विजेंदरर की कामयाबी के बावजूद भारत में प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग को कामयाबी के लिए कई चुनौतियों का सामना करना है।
भारत के लिए वर्ल्ड कप में बॉक्सिंग का पहला मेडल जीतने वाले वेंकटेश देवराजन इन दिनों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में बच्चों की मुक्केबाज़ी की तकनीक में धार ला रहे हैं. उन्हें दुख होता है जब मीडिया ये नहीं बताती की वो 20 साल पहले प्रोफ़ेशनल रिंग में उतरने वाले भारत के सबसे पहले मुक्केबाजों में थे।
लेकिन उन्हें लगता है विजेंदरर की जीत और भारत में इस खेल को चमकाने की कोशिशें रंग ला सकती हैं। ब्रिगेडियर राजा उन अधिकारियों में से हैं जिन्होंने 2008 में भारतीय मुक्केबाजों को स्ट्रेट पंच का मंत्र देकर इसे एक गेमचेंजर बना दिया. एक बार फिर बॉक्सिंग के जानकार एक ऐसे ही गेमचेंजर नुस्ख़े का आकलन कर रहे हैं।
राजकुमार सांगवान जैसे दिग्गज मानते हैं कि भारत में इस गेम को चमकने में अब भी 20-30 साल लग सकते हैं, जबकि ब्रिगेडियर पीकेएम राजा मानते हैं कि विजेंदर की कामयाबी ने एक तरह से अलख़ जगा दी है और अब जल्दी ही ये खेल भारत में कामयाबी की रेस में रफ़्तार पकड़ लेगा।
वैसे बॉक्सिंग सर्किट में ज़्यादातर लोगों को लगता है कि जबतक भारतीय बॉक्सिंग संघ और उसके अधिकारी ठोस तरीके से काम शुरू नहीं करते इसकी हालत में सुधार नहीं आने वाला.. चुनौतियां ये भी हैं कि लंदन ओलिंपिक्स के बाद से ही भारतीय मुक्केबाज़ी संघ विवादों में उलझा रहा है.. क़रीब तीन-चार साल से इसके बैन होने और फिर एडहॉक समिति के ज़रिये जैसे-तैसे खेल चलाने का सीधा असर इन मुक्केबाजों पर पड़ा है।
टैलेंट ही सबकुछ नहीं
लड़ने के लिए ग्लव्स, जूते, डाइट की कमी नेशनल्स और दूसरे टूर्नामेंट का इंतज़ार ताकि मुक्केबाज़ खुद को आज़मा सकें, जानकारी और नौकरी जैसी अहम और बुनियादी ज़रूरतों की लिस्ट बेहद लंबी है। ऐसे में विजेंदर के ज़रिये एक रास्ता खुलता नज़र आ रहा है...प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग का खेल इसे हाशिये से उठाकर मुख्यधारा में ला पाएगा या नहीं...ये कह पाना मुश्किल है लेकिन ये हज़ारों भारतीय मुक्केबाजों की ज़रूरतें पूरी कर सकता है। जानकारों और मुक्केबाजों को टैलेंट को लेकर कोई शक नहीं, लेकिन सिर्फ़ टैलेंट कामयाबी का रास्ता नहीं बना सकती।
भारतीय मुक्केबाजों को एक राह नज़र आई है. बड़ी मंज़िलों का रास्ता फ़िलहाल यकीनन विजेंदरर की जीत से खुलता नज़र आता है। चुनौतियां कम नहीं हैं पर प्रो-बॉक्सिंग हज़ारों भारतीय मुक्केबाजों की तक़दीर और तस्वीर बदल सकती है।
तीन मैच-तीन जीत, तीनों नॉकआउट
ओलिंपिक पदक विजेता भारत के नामचीन प्रोफेशनल बॉक्सर विजेंदर का यह शानदार रिकॉर्ड बताता है कि वह प्रोफेशनल बॉक्सिंग की दुनिया के एक उभरते सितारे हैं। हर जीत के साथ विजेंदर के सपने बड़े हो रहे हैं।
लॉस वेगास में करीब 7 महीने पहले हुई दुनिया की सबसे महंगी फाइट की तस्वीरें पुरानी नहीं पड़ी हैं। लॉस वेगास में फलॉयड मेयवेदर और मैनी पैकिआओ से हुई इस फाइट ऑफ द सेंचुरी ने भारत में भी स्पोर्ट्स फैन्स को इस खेल का कायल बना दिया।
दुनियाभर के करोड़ों फैन्स ने इसे बड़े चाव से देखा, जिन्हें मुक्केबाजी की खास समझ नहीं है, उनके लिए भी यह फाइट चर्चा का विषय बनी रही। करीब ढाई हजार करोड़ रुपए की इस फाइट ने भारतीय मुक्केबाजों के मुंह में पानी ला दिया।
लॉस वेगास में हुई इस फाइट को लेकर लंदन के प्रोफेशनल बॉक्सर आमिर खान से लेकर भिवाणी के विजेंदर सिंह में एक जैसी दिलचस्पी बनी रही।
दुनिया की इस सबसे बड़ी फाइट की इनामी रकम, हॉलीवुड का ग्लैमर, इससे जुड़े बेहिसाब आंकड़े और प्रो रिंग के X फैक्टर ने बॉक्सिंग की दुनिया में तो हलचल मचाई ही, भारतीय मुक्केबाजों के सपने रंगीन कर दिए।
विजेंदर की उपलब्धि होगी गेमचेंजर
बीजिंग ओलिंपिक्स में भारतीय मुक्केबाजी के लिए पहला पदक जीतने वाले विजेंदर को यह भांपते देर नहीं लगी कि अब उनका भविष्य प्रोफेशनल मुक्केबाजी में ही है। उन्हें और उनको इसके लिए मनाने वालों को अच्छी तरह मालूम था कि अब देर की तो वाकई देर हो जाएगी।
विजेंदर की शुरुआत अब तक शानदार रही है। नॉकआउट के जरिये मिली जीत, उनमें हौसला भर रही है और उन्हें प्रोफेशनल रिंग का उभरता सितारा बता रही है। कई जानकार विजेंदर को भारत में प्रो बॉक्सिंग का गेमचेंजर मानने लगे हैं।
विजेंदर कहते हैं, "अभी तो मैंने बस शुरुआत की है। अब तक सबकुछ ठीक रहा है। मुझे देखकर वहां भारतीय मुक्केबाजों की मांग बढ़ने लगी है। मैंने वहां के लोगों को कई भारतीय मुक्केबाजों के नाम दिए हैं। मुझे लगता है कई भारतीय मुक्केबाजों में प्रोफेशनल मुक्केबाजी में चमकने का माद्दा है।
भारत के पूर्व प्रोफेशनल मुक्केबाज राजकुमार सांगवान मानते हैं कि विजेंदर में प्रोफेशनल रिंग में अच्छा करने का माद्दा है., जबकि इंडियन बॉक्सिंग काउंसिल के अध्यक्ष ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) पीकेएम राजा मानते हैं कि विजेंदर का लंदन जाकर प्रोफेशनल मुक्केबाजी करना भारतीय प्रो-बॉक्सिंग के लिए एक गेमचेंजर साबित हो सकता है।
सात साल पहले बीजिंग ओलिंपिक्स में मिली ऐतिहासिक जीत ने विजेंदर को भारतीय खेलों का सुपरस्टार बना दिया। विजेंदर का सितारा रातोंरात चमकने लगा। फिर क्या था... नाम, शोहरत, पैसा सब विजेंदर के पीछे भागते नजर आए।
पदक नहीं जीत पाने का मलाल
2008 में विजेंदर ने पदक जीतने के फौरन बाद इस संवादादाता को बीजिंग में दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो ओलिंपिक का एक और पदक जरूर जीतना चाहते हैं। 2012 में पदक से चूक जाने का मलाल विजेंदर को अब भी है।
वो कहते हैं, "2012 में मैं जिस मुक्केबाज (क्वार्टर फाइनल में उज़्बेकिस्तान के अब्बोस अतोएव) से हारा उसे मैं पहले हरा चुका था। सबकुछ जैसे तय था। कहते हैं किस्मत से ज़्यादा
कभी नहीं मिल सकता। शायद लंदन ओलिंपिक्स का पदक मेरी किस्मत में नहीं था, लेकिन उस पदक को नहीं हासिल कर पाने का मलाल हमेशा रहेगा। वो दुख कभी कम नहीं हो सकता।" विजेंदर अब भी मानते हैं कि भारत में मुक्केबाजों के लिए बड़ी कामयाबी का रास्ता ओलिंपिक्स के जरिये ही बनता है।
खुद विजेंदरर का प्रोफेशनल रिंग में पहुंचना एक आसान सफर नहीं रहा, लेकिन विजू हर मुश्किलों को नॉकआउट करते रहे। उन्हें यह भी लगता है कि रियो ओलिंपिक्स के बाद भारत में प्रोफेशनल बॉक्सर की संख्या बढ़ने वाली है। वो बताते हैं कि उनकी फाइट को देखकर वहां इस खेल में दिलचस्पी रखने वाले लोग प्रभावित हैं। उन्होंने विजेंदर से भारतीय मुक्केबाजों के नाम पूछे हैं जिनमें प्रोफेशनल मुक्केबाजी में अच्छा करने का माद्दा नजर आता है। विजेंदर ने कहा कि उन्होंने कई मुक्केबाजों के नाम बताये हैं। उन्हें यह भी लगता है कि रियो ओलिंपिक्स के बाद प्रोफेशनल रिंग में भारतीय मुक्केबाजों की संख्या बढ़ने वाली है।
पहले भी कमाया है नाम
इसमें कोई शक नहीं कि विजेंदर भारत के सबसे नामचीन प्रोफेशनल मुक्केबाज बनकर उभर रहे हैं, लेकिन इसकी पहल करीब 20 साल पहले ओलिंपियन बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव, देवराजन और राजकुमार सांगवान जैसे मुक्केबाजों ने की थी और उसके बाद करीब दर्जनभर भारतीय मुक्केबाज अलग-अलग देशों की प्रोफेशनल रिंग में उतरकर नाम और पैसा कमाते रहे हैं।
इन दिनों सड़कों पर स्टंट करते हुए, कड़ी ट्रेनिंग करना नौसिखुआ बॉक्सरों को रिंग के लिए तैयार करना बॉक्सर से कोच बने धर्मेंदर सिंह यादव का जुनून बन गया है।
दिल्ली एनसीआर की सड़कों पर इससे पहले की तेज़ रफ्तार से भागती गाड़ियां चिल्लपों मचाएं, कोच टीएस यादव की अगुवाई में कुछ दसेक बॉक्सर्स अपना हक चुरा ले रहे हैं।
अभ्यास के लिए इनके पास ना कोई ढंग की रिंग है, ना दौड़ने को मैदान। जिम और डाइट तो बड़ी बात है इसके पास बॉक्सिंग के पंचिंग बैग तक नहीं। मजबूरी है। कोई दूसरा चारा भी नहीं इसलिए ग़ाज़ियाबाद की एक सोसोयटी के आम पार्क में ये मुक्केबाज रोज सुबह तैयारी करते देखे जा सकते हैं।
सुविधाओं का अभाव
ये मुक्केबाज़ अपनी पहचान और देश के लिए नाम कमाना चाहते हैं। मगर पेड़ों को पंचिंग बैग बनाकर अभ्यास करना इन खेलों के प्रति हमारे रवैये पर टिप्पणी है। पेड़ पर पंचिंग कर रहे इस मुक्केबाज से यह भी कहा जाता है ..."ज़रा संभालकर कहीं ग्लव्स ना फ़ट जाएं...." बॉक्सिंग रिंग, पंचिंग बैग, जिम जैसी ज़रूरतें इनकी पहुंच से अभी बाहर हैं।
करीब ढाई दशक पहले नेताजी मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तो वर्ल्ड कप में मेडल हासिल कर चुके बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव उर्फ़ गोगी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ज़मीन देने का वादा कर दिया।
करीब 24-25 साल बाद एक बार फिर वही वादा उनके बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश ने किया, लेकिन वादे अब भी कागजों में ही सिसक रहे हैं। भारतीयों खेलों के साथ ऐसा अक्सर होता रहा है। डीएस यादव हंसते हुए बड़े दुख के साथ कहते हैं, "भारत में खेलों का सिस्टम ऐसा ही है। हर चीज़ धीमी रफ़्तार से होती है।"
धर्मेन्दर सिंह यादव बताते हैं कि 1994 में उन्होंने वर्ल्डटेल जैसी कंपनी के साथ क़रीब 75 लाख रुपये तक का करार कर लिया था जो बाद में कारगर नहीं हो पाया। कॉर्पोरेट जगत उनमें तब ऑस्कर डे ला होया की छवि देखता था। विदेशों में उन्हें आज के विजेंदरर जैसा रुतबा ही हासिल था। यह और बात है कि तब और अब की सुविधाओं में जमीन-आसमान का फसला हो गया है।
डीएस यादव पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "वहां तब भी सुविधाएं इस स्तर की थीं कि आपको सिर्फ़ मेहनत करनी होती थी. बॉक्सर्स का फ़ोकस सिर्फ़ प्रैक्टिस और मैच पर होता था। रिंग के बाहर की ज़िम्मेदारी अधिकारियों की होती थी. वैसी सुविधाएं आज भी भारतीय मुक्केबाजों को मिले तो वो कमाल कर सकते हैं।"
एमेच्योर में नाम कमा चुके ओलिंपियन मुक्केबाज़ के पास आज कोई नौकरी नहीं है, ना ही बच्चों को सिखा सकने की ठीक सुविधाएं। बॉक्सिंग तंत्र और निजी पारिवारिक उलझनें धर्मेन्दर के रास्ते का रोड़ा बनी हुई हैं। फिर भी धर्मेन्दर भारतीय मुक्केबाजों को रियो ओलिंपिक्स की तैयारी करवा रहे हैं।
भारत में हाशिये पर खेल और सिस्टम के बीच अजूबा तालमेल भी खेल से खिलवाड़ का एक पहलू है। धर्मेन्दर फिर भी अपना घरबार चला ही लेते हैं, लेकिन मुक्केबाजी की दुनिया में सबकी क़िस्मत उनके जैसी भी नहीं है।
धर्मेन्दर के ही शागिर्द जसपाल सिंह ऑटोमोबिल शॉप में लेथ मशीन पर काम करते हैं और एक प्रतिभाशाली बॉक्सर भी है.। बॉक्सर और मैकेनिक जसपाल के सपने बड़े हैं। 22 साल के जसपाल प्रोफ़ेशनल रिंग में मिल रही विजेन् सिंह की कामयाबी से बहुत प्राभावित हैं, इसलिए उनकी मुश्किलें उनका हौसला नहीं तोड़ पातीं।
बॉक्सिंग रिंग हो या ऑटोमोबिल मशीन जसपाल को यहां भरपूर मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन जसपाल के लिए बॉक्सिंग में रिंग में टिकने से ज़्यादा उसके लिए डाइट जुटाने की चुनौती है।
सुविधाएं जुटाना आसान नहीं
जसपाल सिंह कहते हैं, "बहुत मेहनत करनी पड़ती है, सर 4 घंटे यहां कम से कम 4 घंटे बॉक्सिंग में वक्त देना पड़ता है। और फिर इस खेल के लायक डाइट (पौष्टिक खाना) जुटा पाना आसान नहीं है।" कमाल की बात ये है कि बीजिंग की कामयाबी के बावजूद मुक्केबाजी संघ ना तो इसका फायदा खुद उठा पाया न ही आम भारतीय बॉक्सरों को इस खेल का फायदा मिल पाया।
डीएस यादव की अगुआई में ट्रेनिंग ले रहे जसपाल और डीएस यादव के बेटी (5 साल की पूर्णिमा) नन्ही लैला अली में एक अलग जज़्बा ज़रूर है। इनमें एक अलग जोश है शायद इसलिए इनके सपने तो हैं लेकिन शिकायतें नहीं.. और फिर शायद कमियों या बॉक्सिंग की ज़रूरतों का सही अंदाज़ा भी नहीं।
10 साल की पूर्णिमा कहती हैं कि वो बड़े होकर अपने पिता डीएस यादव की तरह ही बॉक्सर बनना चाहती हैं। उन्हें मैरीकॉम की बॉक्सिंग का तरीका भी बेहद अच्छा लगता है, जबकि जसपाल का सपना प्रोफेशनल बॉक्सिंग रिंग में धूम मचाने का है।
आपकी मुलाकात एक ऐसे अनूठे मुक्केबाज़ से करवाते हैं जिन्होंने पेशेवर और गैर पेशेवर मुक्केबाजी में ख़ूब नाम कमाया। अपने पेट्रोल पंप का नाम बॉक्सर पेट्रोल पंप रखा और अपने जज़्बे के सहारे युवा मुक्केबाजों को अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी के लिए तैयार कर रहे हैं।
बॉक्सर पेट्रोल पंप के छोटे से ट्रेनिंग कैंप में ये जांबाज अपने पंचों के ख़्वाब बुन रहे हैं... इस मामूली सी लगने वाली रिंग के कोच राजकुमार सांगवान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोफेशनल और एमेच्योर दोनों ही तरह की बॉक्सिंग में कामयाबी का स्वाद चखा है, इसलिए ये युवा मुक्केबाज बड़ी उम्मीदों के साथ यहां कड़ी मेहनत करते हैं।
भारत में नेशनल कैंप के बाहर आज भी बॉक्सिंग की सुविधाएं आज भी बेहद मामूली हैं। यहां की जद्दोजहद से राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर तक का सफ़र इनके लिए आसान तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता।
राजकुमार सांगवान की अकादमी में कुछ मुक्केबाज़ स्टेट स्कूल टूर्नामेंट में जाने को तैयार हो रहे हैं। यहां पर रखे ग्लव्स, मामूली कमरे, जिम के नाम पर बेतरतीब वेट्स बॉक्सिंग की मुफ़लिसी का अहसास करवाते हैं. ये आलम देश में एक बेहतर बॉक्सिंग कैंप का है।
सबकी एक ही ख्वाहिश है पहले नौकरी मिल जाए तो फिर आगे करियर बनाएं और देश के लिए खेलें। इस अकादमी में ट्रेनिंग करते अभिषेक कहते हैं, "नौकरी नहीं मिली तो बॉक्सिंग का कोई मतलब नहीं है।" एक अन्य मुक्केबाज़ अर्जुन सिंह बताते हैं कि उनके परिवार को भी उनसे काफ़ी उम्मीदें हैं। मुक्केबाज़ सलमान ख़ान बताते हैं कि उनकी नज़र मुक्केबाज़ी के नेशनल्स टूर्नामेंट पर है जहां मेडल जीतकर वो अपने लिए नौकरी का दरवाज़ा खोल सकते हैं।
वैसे इसमें हैरानी की बात नहीं है, क्योंकि चैंपियन विजेंदरर भी पूरी इमानदारी से इसे मानने से इंकार नहीं करते कि उन्होंने भी बॉक्सिंग नौकरी के लिए ही शुरू की थी। विजेंदर कहते हैं, "कोई रईसज़ादा तो बॉक्सिंग करता नहीं। मैंने भी नौकरी के लिए ही बॉक्सिंग शुरू की थी और मुझे मिली भी।"
लेकिन भारत में बॉक्सिंग तंत्र ढीला पड़ गया है. ऐसे में विजेंदरर का प्रोफ़ेशनल रिंग में उतरना सवालों के साथ एक उम्मीद लेकर आया है। पूर्व प्रोफ़ेशनल बॉक्सर राजकुमार सांगवान कहते हैं, विजेंदर की कामयाबी से भारतीय मुक्केबाजों को ज़रूर फ़ायदा पहुंचेगा।" कुछ ऐसी ही भारत के पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सर धर्मेन्दर सिंह यादव भी दिलाते हैं।
सिस्टम से तंग आकर छोड़ा करियर
कमाल की बात है कि कभी पैसों के लिए ही सही सिस्टम से तंग आकर धर्मेन्, देवराजन और राजकुमार सांगवान ने ओलिंपिक्स और एशियाड का करियर छोड़ दिया। वो अब मामूली पैसे लेकर या बिना पैसे लिए खिलाड़ियों को इस खेल का हुनर सिखाने को तैयार हैं।
राजकुमार सांगवान बताते हैं कि कैसे सिस्टम से तंग आकर उन्होंने और उनके दो साथी धर्मेन्द और देवराजन ने क़रीब-क़रीब एक साथ क़रीब दो दशक पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग का रुख कर लिया था।
धर्मेन्दर सिंह यादव, देवराजन, राजकुमार सांगवान, गुरुचरण सिंह, लक्खा सिंह, नीरज गोयत, हरि कृष्णा, दिलबाग सिहाग, देवेन् थापा जैसे क़रीब एक दर्जन बॉक्सर हैं जो विजेन्दर से पहले प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग रिंग में उतरने का रास्ता बनाते रहे हैं।
इन सबकी कहानी क़रीब-क़रीब एक जैसी ही है। सभी कभी ना कभी सिस्टम से हार कर प्रोफ़ेशनल रिंग में जीत का रास्ता बनाते रहे हैं। अब सबकी उम्मीद बने विजेंदरर फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं।
युवा मुक्केबाजों के रोल मॉडल विजेंदरर को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास है. वो जानते हैं कि उनकी हर जीत भारतीय बॉक्सिंग का रुतबा बढ़ाती है। विजेंदरर की कामयाबी के बावजूद भारत में प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग को कामयाबी के लिए कई चुनौतियों का सामना करना है।
भारत के लिए वर्ल्ड कप में बॉक्सिंग का पहला मेडल जीतने वाले वेंकटेश देवराजन इन दिनों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में बच्चों की मुक्केबाज़ी की तकनीक में धार ला रहे हैं. उन्हें दुख होता है जब मीडिया ये नहीं बताती की वो 20 साल पहले प्रोफ़ेशनल रिंग में उतरने वाले भारत के सबसे पहले मुक्केबाजों में थे।
लेकिन उन्हें लगता है विजेंदरर की जीत और भारत में इस खेल को चमकाने की कोशिशें रंग ला सकती हैं। ब्रिगेडियर राजा उन अधिकारियों में से हैं जिन्होंने 2008 में भारतीय मुक्केबाजों को स्ट्रेट पंच का मंत्र देकर इसे एक गेमचेंजर बना दिया. एक बार फिर बॉक्सिंग के जानकार एक ऐसे ही गेमचेंजर नुस्ख़े का आकलन कर रहे हैं।
राजकुमार सांगवान जैसे दिग्गज मानते हैं कि भारत में इस गेम को चमकने में अब भी 20-30 साल लग सकते हैं, जबकि ब्रिगेडियर पीकेएम राजा मानते हैं कि विजेंदर की कामयाबी ने एक तरह से अलख़ जगा दी है और अब जल्दी ही ये खेल भारत में कामयाबी की रेस में रफ़्तार पकड़ लेगा।
वैसे बॉक्सिंग सर्किट में ज़्यादातर लोगों को लगता है कि जबतक भारतीय बॉक्सिंग संघ और उसके अधिकारी ठोस तरीके से काम शुरू नहीं करते इसकी हालत में सुधार नहीं आने वाला.. चुनौतियां ये भी हैं कि लंदन ओलिंपिक्स के बाद से ही भारतीय मुक्केबाज़ी संघ विवादों में उलझा रहा है.. क़रीब तीन-चार साल से इसके बैन होने और फिर एडहॉक समिति के ज़रिये जैसे-तैसे खेल चलाने का सीधा असर इन मुक्केबाजों पर पड़ा है।
टैलेंट ही सबकुछ नहीं
लड़ने के लिए ग्लव्स, जूते, डाइट की कमी नेशनल्स और दूसरे टूर्नामेंट का इंतज़ार ताकि मुक्केबाज़ खुद को आज़मा सकें, जानकारी और नौकरी जैसी अहम और बुनियादी ज़रूरतों की लिस्ट बेहद लंबी है। ऐसे में विजेंदर के ज़रिये एक रास्ता खुलता नज़र आ रहा है...प्रोफ़ेशनल बॉक्सिंग का खेल इसे हाशिये से उठाकर मुख्यधारा में ला पाएगा या नहीं...ये कह पाना मुश्किल है लेकिन ये हज़ारों भारतीय मुक्केबाजों की ज़रूरतें पूरी कर सकता है। जानकारों और मुक्केबाजों को टैलेंट को लेकर कोई शक नहीं, लेकिन सिर्फ़ टैलेंट कामयाबी का रास्ता नहीं बना सकती।
भारतीय मुक्केबाजों को एक राह नज़र आई है. बड़ी मंज़िलों का रास्ता फ़िलहाल यकीनन विजेंदरर की जीत से खुलता नज़र आता है। चुनौतियां कम नहीं हैं पर प्रो-बॉक्सिंग हज़ारों भारतीय मुक्केबाजों की तक़दीर और तस्वीर बदल सकती है।
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
प्रोफेशनल बॉक्सिंग, विजेंदर सिंह, धर्मेंदर सिंह, लिवरपूल, Professional Boxing, Vijender Singh, Dharmender Singh, Liverpool