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This Article is From Jul 20, 2016

श्रद्धांजलि : मैदान पर जितने आक्रामक दिखते थे, बाहर उतने ही सरल-खुशमिजाज थे शाहिद..

श्रद्धांजलि : मैदान पर जितने आक्रामक दिखते थे, बाहर उतने ही सरल-खुशमिजाज थे शाहिद..
मोहम्‍मद शाहिद (फाइल फोटो)
  • शाहिद के पास गेंद पहुंचते ही जोश से भर जाते थे दर्शक
  • उन्‍हें रोकने के लिए खास रणनीति तैयार करती थीं विपक्षी टीमें
  • तीन ओलिंपिक, दो वर्ल्‍डकप में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्‍व किया
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हॉकी के अजीम खिलाड़ी मोहम्‍मद शाहिद नहीं रहे...। बनारस के इस खिलाड़ी के खेल कौशल के मुरीद रहे हॉकी प्रेमियों के लिए यह खबर एक बड़ी झटके से कम नहीं हैं। कई बीमारियों से जूझ रहे शाहिद गुरुग्राम (गुड़गांव) के मेदांता अस्‍पताल में भर्ती थे। उनकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी, आखिरकार बुधवार को डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया। शाहिद का निधन हो चुका है, यह एक सत्‍य की तरह स्‍थापित हो चुका है, लेकिन दिल अभी भी मानने को तैयार नहीं कि हरदिल अजीज और अपने जादुई खेल के जरिये मुल्‍क की सांसों में बस चुका यह खिलाड़ी केवल 56 वर्ष की उम्र में हमें इस तरह छोड़कर जा सकता है...।

80 के दशक के लिहाज से हॉकी की बात करें तो शाहिद का मतलब इंडियन टीम और इंडियन टीम का मतलब शाहिद हुआ करता था। शाहिद ने जब हॉकी की स्टिक संभाली, उस समय भारत का हॉकी का सुनहरा दौर खत्‍म हो चुका था। ओलिंपिक में टीम इंडिया के लगातार स्‍वर्ण पदकों को दौर बीती बात हो चुका था। लेकिन इसके बावजूद लोगों की हॉकी से रुचि खत्‍म नहीं हुई और भारतीय टीम के मैच पूरी शिद्दत से देखे गए तो इसका बहुत कुछ श्रेय जादुई ड्रिब्लिंग से विपक्षी खिलाडि़यों को चीरते हुए आगे बढ़ने की शाहिद की कला को जाता था।

मेरे जेहन में वर्ष 1982 में बंबई (अब मुंबई) में हुए वर्ल्‍डकप की याद अब भी ताजा है। इस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट में भारत का प्रदर्शन शाहिद पर ही केंद्रित रहता था। हॉकी के इस बेजोड़ खिलाड़ी के पास गेंद पहुंचते ही 'शाहिद-शाहिद' की आवाज के साथ पूरा मैदान गूंज जाता था। शाहिद को कैसे रोका जाए, यह विपक्षी टीम की रणनीति का प्रमुख विचार बिंदु होता था और कई बार तो दो से तीन विपक्षी खिलाड़ी शाहिद के 'हमलों' को नाकाम करने के लिए तैनात किये जाते थे।

वर्ष 1980 में मॉस्‍को में हुए ओलिंपिक में स्‍वर्ण पदक जीतने वाली टीम में शाहिद शामिल थे। दुर्भाग्‍यवश पाकिस्‍तान जैसी टीम के इस ओलिंपिक के बहिष्‍कार करने के कारण भारतीय टीम को इस स्‍वर्णिम सफलता को वह श्रेय नहीं मिला जिसकी यह हकदार थी। हॉकी का यह वह दौर था जब शाहिद और जफर इकबाल की फारवर्ड जोड़ी का कलात्‍मक खेल में बड़ा नाम था। शाहिद का खेल जितना साफ-सुथरा था, वह स्‍वभाव में भी उतने ही सरल थे। विपक्षी गोल पर हमला बोलते वक्‍त के जितने आक्रामक दिखाई देते थे, मैदान के बाहर वे उतने ही खुशमिजाज थे। इतना साफसुथरा खेलते थे कि मैदान पर फाउल करते हुए यदाकदा ही नजर आए।

बाबा विश्‍वनाथ की नगरी बनारस से संबंध रखने वाले शाहिद के खेल में बनारस घराने की गायकी जैसी ही नफासत थी, विपक्षी टीमों ने भी उनका लोहा माना। तीन ओलिंपिक, दो वर्ल्‍डकप और इतने ही एशियाई खेलों में टीम इंडिया का प्रतिनिधित्‍व करने वाले शाहिद का जाना देश के हॉकी जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। अपनी कलाइयों के जादू से देश को गौरव के क्षण उपलब्‍ध कराने के लिए शुक्रिया मोहम्‍मद शाहिद.....।

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