नोटबंदी से लोहारों का धंधा चौपट हो गया है.
मुंबई:
नोटबंदी का असर छोटे कारीगरों और व्यापारियों पर बहुत बड़े पैमाने पर पड़ा है. लेकिन एक तबका ऐसा भी है जिसका कामकाज नोटबंदी के बाद ठप हो चुका है. मुम्बई के लोहारों का नोटबंदी के बाद से यही हाल है.
अंधेरी स्टेशन के बाहर लोहे के सामान का एक छोटा सा ठेला है मंसूर अली का. मंसूर के पूरे परिवार का गुजर-बसर इसी के सहारे होता रहा है. उनके पास सुबह 8 बजे से ही ग्राहकों की भीड़ लग जाती थी. लेकिन अब अक्सर ग्राहकों को खाली हाथ लौटाना पड़ रहा है.
मंसूर अली का कहना है कि, "नोटबंदी के बाद से हमारा काम बिलकुल बंद हो चुका है. ग्राहक या तो पुराने नोट लेकर आ रहे हैं या फिर 2000 रुपये का नोट लेकर आ रहे हैं. पुराने नोट का हम क्या करें? और 2000 रुपये के नोट का छुट्टा हम कहां से लाकर दें, हमारा तो काम ही 100-50 रुपये का होता है. हमारा काम अब पहले की तुलना एक चौथाई भी नहीं रहा है."
यह अकेले मंसूर अली की कहानी नहीं है. लोहे के सामान बेचने वाले लगभग सभी लोगों के हालात एक जैसे ही हैं. चाबी बनाने का काम करने वाले यूसुफ अली का कहना है कि, "मेरा चाबी बनाने का काम है. 10-20 या ज्यादा से ज्यादा 50 रुपये का काम होता है. 20 रुपये की चाबी बनवाने के लिए ग्राहक 2000 रुपये का नोट देते हैं. अब इतना सारा छुट्टा कहां से लाकर दें."
समाज का यह तबका न तो प्लास्टिक मनी इस्तेमाल करने जैसी आधुनिक तकनीक से जुड़ पा रहा है और न ही इसे नोटबंदी के बाद आई दिक्कतों से राहत ही मिल पा रही है.नतीजा इनका लगभग ठप हो चुका कारोबार.
अंधेरी स्टेशन के बाहर लोहे के सामान का एक छोटा सा ठेला है मंसूर अली का. मंसूर के पूरे परिवार का गुजर-बसर इसी के सहारे होता रहा है. उनके पास सुबह 8 बजे से ही ग्राहकों की भीड़ लग जाती थी. लेकिन अब अक्सर ग्राहकों को खाली हाथ लौटाना पड़ रहा है.
मंसूर अली का कहना है कि, "नोटबंदी के बाद से हमारा काम बिलकुल बंद हो चुका है. ग्राहक या तो पुराने नोट लेकर आ रहे हैं या फिर 2000 रुपये का नोट लेकर आ रहे हैं. पुराने नोट का हम क्या करें? और 2000 रुपये के नोट का छुट्टा हम कहां से लाकर दें, हमारा तो काम ही 100-50 रुपये का होता है. हमारा काम अब पहले की तुलना एक चौथाई भी नहीं रहा है."
यह अकेले मंसूर अली की कहानी नहीं है. लोहे के सामान बेचने वाले लगभग सभी लोगों के हालात एक जैसे ही हैं. चाबी बनाने का काम करने वाले यूसुफ अली का कहना है कि, "मेरा चाबी बनाने का काम है. 10-20 या ज्यादा से ज्यादा 50 रुपये का काम होता है. 20 रुपये की चाबी बनवाने के लिए ग्राहक 2000 रुपये का नोट देते हैं. अब इतना सारा छुट्टा कहां से लाकर दें."
समाज का यह तबका न तो प्लास्टिक मनी इस्तेमाल करने जैसी आधुनिक तकनीक से जुड़ पा रहा है और न ही इसे नोटबंदी के बाद आई दिक्कतों से राहत ही मिल पा रही है.नतीजा इनका लगभग ठप हो चुका कारोबार.
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