हिन्दी साहित्य जगत की जानी मानी लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ को लेखन के प्रति रुचि अपनी मां से विरासत में मिली. मनीषा का जन्म 26 अगस्त, 1967 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ. विज्ञान से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद इन्होंने स्नातकोत्तर और एमफिल हिन्दी साहित्य से किया. इनके लिखे कहानी संग्रह 'कठपुतलियां', 'कुछ भी तो रूमानी नहीं', 'बौनी होती परछाई', 'केयर ऑफ स्वात घाटी' लोकप्रिय हैं. कश्मीर के हालात पर लिखी गई मनीषा कुलश्रेष्ठ की उपन्यास 'शिग़ाफ' को काफी पसंद किया जाता है. इसके अलावा इन्होंने 'शालभंजिका' नाम से भी एक नोवेल लिखी है. अंग्रेज़ी साहित्य के अनुवाद के अलावा इन्होंने संस्मरण 'बहुरुपिया' और 'कारगिल विजय दिवस के उपलक्ष्य में' को भी अपने शब्दों से पिरोया है. शब्दों की इसी कलाकार से हमने की एक खास मुलाकात, पेश हैं कुछ अंश...
मनीषा जी, आपको अपने लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?
लेखन की प्रेरणा नहीं होती, प्रस्फुटन होता है. मुझे पढ़ने का बेइंतहां शौक था. इस तरह कि उस दौर मैं पढ़ाकुओं की तरह सब कुछ पढ़ती थी. बचपन में धर्मयुग के ढब्बू जी, पराग- नंदन, चंदामामा, इंद्रजाल कॉमिक्स और बड़े हुए तो धर्मयुग, और छुप कर कर्नल रंजित भी पढ़ लेती थी. पढ़ने का इतना शौक की जो मिले बस पढ़ लेती थी. जब दसवीं में आई और साहित्य पढ़ा, तो गोरा, ययाति, चरित्रहीन, गोदान पढ़ा. खुद में फर्क महसूस किया. समझ आया तो ललक बढ़ती गई. अब इतना पढ़ा कि खुद को अभिव्यक्त करना आ गया. मां मेरी कविताएं लिखती थीं. बस उनकी डायरी देख-देख मैं भी लिखने लगी. ग्यारहवीं कक्षा में प्रेम - कहानी लिखी, पड़ोस के एक भैया और मेरी सहेली की दीदी को देख जो आपस में इश्क में मुब्तिला थे. कहानी खेद सहित वापस आ गई. बस दिल को लग गई सोच लिया कामकाज जो करूं लिखूंगी जरूर और लोकप्रिय लेखक बनूंगी.
क्या आप एक लेखक को आम आदमी से अलग मानती हैं?
लेखक आम आदमी ही होता है, बस ख़ास उसमें यह है कि जब वह खुद को अभिव्यक्त करता है तो बाकि लोग कहते हैं, "बस एकदम यही हम भी सोच रहे थे, कहने का ढंग समझ न पा रहे थे. "लेखक खास के खोल में बैठ लिख नहीं सकता. ख़ास बन कर, ड्राईंगरूम लेखन करेगा तो वह 'कॉफी टेबल बुक' तो लिख लेगा, लेकिन साहित्य नहीं, जो जन-मानस तक पहुंचे.
अपना आदर्श किसे मानती हैं आप?
मैंने इतना भारतीय और विश्व साहित्य पढ़ा है कि किस एक को कहूं वह मेरा आदर्श? वह मेरा प्रिय. फिर प्रिय लेखक और आदर्श मान कर अनुसरण करूं वे लेखक भी अलग-अलग हैं. भारतीय लेखकों में प्रिय मुझे निर्मल वर्मा हैं, लेकिन आदर्श कृष्णा सोबती.
विदेशी लेखकों में प्रिय तॉलस्तॉय और दॉस्तोवस्की हैं, अनुसरण मैं गोर्की का करना चाहूंगी. वर्तमान में प्रिय मुझे मार्ख़ेज़ हैं लेकिन आदर्श ख़ालिद हुसैनी. इसलिए मैं तो एकलव्य हीं, जिसके आदर्श केवल एक द्रोणाचार्य नहीं.
लेखन के लिए अपन जिन किरदारों को बुनती हैं उन्हें कहां से चुनती हैं?
मेरे किरदार! मेरे क़िरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से दूरी बरतते हुए. मेरे किस्सों में फ्रीक जगह पाते हैं. सनकी, लीक से हटेले. वे बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे ज़हन में रहते हैं. जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये परजीवी मुझे विवश करते हैं, उतारो हमें कागज पर. कोई कठपुतली वाले की लीक से हट कर चली पत्नी, कोई बहरूपिया, कोई डायन क़रार कर दी गई आवारा औरत, बिगड़ैल टीनेजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली जमना, कोई सनकी फ़िल्ममेकर, एक तो स्किजोफ्रेनिक पेंटर ही.
लेखन के समय किस मानसिकता या अंतरद्वन्द से गुजरती हैं?
लिखना मुझे भीषण मूडी बनाता है. मेरे किरदार क्योंकि हटेले-खिसकेले होते हैं, सो बहुत उत्पात मचाते हैं. मेरी बनाई कथा लीक तक पर नहीं चलते. नींद गायब. हाल ही स्वप्नपाश की नायिका गुलनाज़ फरीबा ने लगभग मुझे बीमार कर दिया था. वह खुद भ्रम की शिकार, मैं उसके उलझे अंतस के छोर पकड़ते - पकड़ते अनिंद्रा की शिकार हो गई. लेखन अपने आप से, समाज से, कड़ी विचारधारा और जीवन के बीच लगातार विरोधाभासों का घर्षण है. सादा इकहरी कहानी मैं नहीं लिख सकती. जब मैं जीवन से लेकर कहानी लिखती हूं यकीन मानिये, उनके बरक्स जीवन कई गुना जटिलता होता है, कहानी में तो आप वह जटिलता कम करते हो. इसलिए सादी इकहरी, निश्चित अंत वाली कहानी नहीं लिख सकती मैं. कहानी स्वयं रफ़्तार और मोड़ लेती है.
क्या लेखन से आपकी विचारधारा में भी कुछ बदलाव आए हैं?
हां. मैं जजमेंटल नहीं रही. किसी के भी जीवन में कभी भी कुछ भी हो सकता है यह मानने लगी. नैतिकता के कड़े मापदंड मुलायम हुए. हां समाज के तीन प्रमुख वर्गों के इतर कितनी परतें देखीं. मध्यवर्ग के कंधों पर टिका संपूर्ण भारतीय चरित्र दिखा. कुल मिला कर लेखन एक मैग्नीफाईंग ग्लास साबित हुआ.
आपके किरदार आधुनिक होते हैं. यौन जीवन पर भी आप खुल कर लिखती हैं. क्या इसके लिए कभी आलोचना का सामना नहीं करना पड़ा?
मेरे सारे किरदार कतई आधुनिक नहीं, बल्कि जिन मुख्य किरदारों को रचने के लिए मुझे जाना जाता है वे आंचलिक हैं. सुगना, गफूरिया, कुरजां वगैरह. हां उपन्यासों में आधुनिक किरदार आए. सेक्स मेरा मुख्य विषय नहीं रहा. वह जरूरत पड़ने पर ही, मेरे कथा साहित्य में आया, और आया भी तो कलात्मकता के साथ न कि उत्तेजक ढंग से. सो इस बात को लेकर कभी आलोचना नहीं हुई. होती तो भी मैं कान न देती. क्योंकि यह विषय जीवन के केंद्र में है, भूख ही की तरह. अलग से सेक्स पर मेरी केवल एक ही कहानी है, एडोनिस का रक्त लिली के फूल. वह तीन पात्रों के एकसाथ प्रेम पर है. उस पर छटपटाती आलोचनात्मक टिप्पणियां हुईं हों तो हों. वरना कभी नहीं.
जीवन का कोई ऐसा अनुभव जो आप साझा करना चाहें?
मैं एक एयरफोर्स ऑफिसर की पत्नी हूं, यायावरी मेरा गहना है, अनुभवों से छलकता हुआ है मेरा जीवन. फिर भी हालिया अनुभव बांटूंगी. मैं दिल्ली जैसे महानगर से एक निहायत ही छोटे कस्बे में ट्रांसफर होकर पहुंची. हम दोनों सोच रहे थे कि हम किस मुसीबत में पड़ गए। यहां बाज़ार के नाम पर हाट, और मनोरंजन के नाम पर घने जंगल और तोर्सा नदी के तट हैं. कैसे समय कटेगा? लेकिन यकीन मानिए जब जीवन प्रकृतिस्थ होता है तो किसी बाज़ार की जरूरत नहीं पड़ती. हम नदी तट पर चूल्हा जलाकर पिकनिक मनाया करते. जंगलों से दोस्ती करते. तीन साल में "शॉपिंग" कितनी बेजा जरूरत है यह जान लिया, यह जाना कि बाज़ार किस अश्लील और धरती को नष्ट करते जाने के आत्मघाती मुहिम के तहत हम पर थोपा जाता है. वरना हाट में तो स्थानीय उपज के अलावा कुछ नहीं बेचा जाता. मेरा नज़रिया बहुत बदल गया.
समकालीन लेखकों के लिए कोई संदेश?
मेरे समकालीन लेखकों से मुझे शुभकामनाओं के साथ एक ही बात कहनी है - एक समय था जब लेखक विचारधारा को लेकर समूह बनाते थे, दो या तीन. मगर फिर भी एक किस्म की एकता थी. फिर ये समूह बंटे. हर पीढ़ी में ये बंटवारे होते रहे. अब हर लेखक अपने को अकेला सा पाता है. हम सबको एकत्र करने को मंच हैं, समूह हैं, फिर भी मतभेद बहुत है. एक नया गहरा केंद्र रचने की जरूरत है हमें.
अपने लेखन में ही आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है?
मुझे शिगाफ़ उपन्यास पसंद भी है और वही मेरी अड़चन भी क्योंकि उसे मापदंड बनाकर मैं हर उपन्यास नहीं लिख सकती. उसमें मेरी कच्ची ऊर्जा लगी है, पांच साल की मेहनत.
किस रचना ने लेखन के दौरान मन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
स्वप्नपाश के समय भीषण असमंजसों ने मेरे मन को बहुत प्रभावित किया. वह किरदार ही कुछ ऐसा है गुलनाज़ का, पहले वह बाल यौनशोषित बच्ची है, कलाकार माता पिता की संतान, फिर मानसिक विदलन की शिकार, पेंटर है, भावुक है और भ्रमों के बीचों बीच रहती है. मुझे भय था कि मेरे रचे भ्रम और सत्य को पाठक पकड़ सकेंगे कि नहीं किंतु मेरा यह उपन्यास आते ही हाथों - हाथ लिया गया. अभी तीन महीनों में ही इसने वह लोकप्रियता हासिल की जिसे पाने में शिगाफ को लंबा समय लगा. इसका छोटा आकार भी वजह हो सकता है.
मनीषा जी, आपको अपने लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?
लेखन की प्रेरणा नहीं होती, प्रस्फुटन होता है. मुझे पढ़ने का बेइंतहां शौक था. इस तरह कि उस दौर मैं पढ़ाकुओं की तरह सब कुछ पढ़ती थी. बचपन में धर्मयुग के ढब्बू जी, पराग- नंदन, चंदामामा, इंद्रजाल कॉमिक्स और बड़े हुए तो धर्मयुग, और छुप कर कर्नल रंजित भी पढ़ लेती थी. पढ़ने का इतना शौक की जो मिले बस पढ़ लेती थी. जब दसवीं में आई और साहित्य पढ़ा, तो गोरा, ययाति, चरित्रहीन, गोदान पढ़ा. खुद में फर्क महसूस किया. समझ आया तो ललक बढ़ती गई. अब इतना पढ़ा कि खुद को अभिव्यक्त करना आ गया. मां मेरी कविताएं लिखती थीं. बस उनकी डायरी देख-देख मैं भी लिखने लगी. ग्यारहवीं कक्षा में प्रेम - कहानी लिखी, पड़ोस के एक भैया और मेरी सहेली की दीदी को देख जो आपस में इश्क में मुब्तिला थे. कहानी खेद सहित वापस आ गई. बस दिल को लग गई सोच लिया कामकाज जो करूं लिखूंगी जरूर और लोकप्रिय लेखक बनूंगी.
क्या आप एक लेखक को आम आदमी से अलग मानती हैं?
लेखक आम आदमी ही होता है, बस ख़ास उसमें यह है कि जब वह खुद को अभिव्यक्त करता है तो बाकि लोग कहते हैं, "बस एकदम यही हम भी सोच रहे थे, कहने का ढंग समझ न पा रहे थे. "लेखक खास के खोल में बैठ लिख नहीं सकता. ख़ास बन कर, ड्राईंगरूम लेखन करेगा तो वह 'कॉफी टेबल बुक' तो लिख लेगा, लेकिन साहित्य नहीं, जो जन-मानस तक पहुंचे.
अपना आदर्श किसे मानती हैं आप?
मैंने इतना भारतीय और विश्व साहित्य पढ़ा है कि किस एक को कहूं वह मेरा आदर्श? वह मेरा प्रिय. फिर प्रिय लेखक और आदर्श मान कर अनुसरण करूं वे लेखक भी अलग-अलग हैं. भारतीय लेखकों में प्रिय मुझे निर्मल वर्मा हैं, लेकिन आदर्श कृष्णा सोबती.
विदेशी लेखकों में प्रिय तॉलस्तॉय और दॉस्तोवस्की हैं, अनुसरण मैं गोर्की का करना चाहूंगी. वर्तमान में प्रिय मुझे मार्ख़ेज़ हैं लेकिन आदर्श ख़ालिद हुसैनी. इसलिए मैं तो एकलव्य हीं, जिसके आदर्श केवल एक द्रोणाचार्य नहीं.
लेखन के लिए अपन जिन किरदारों को बुनती हैं उन्हें कहां से चुनती हैं?
मेरे किरदार! मेरे क़िरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से दूरी बरतते हुए. मेरे किस्सों में फ्रीक जगह पाते हैं. सनकी, लीक से हटेले. वे बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे ज़हन में रहते हैं. जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये परजीवी मुझे विवश करते हैं, उतारो हमें कागज पर. कोई कठपुतली वाले की लीक से हट कर चली पत्नी, कोई बहरूपिया, कोई डायन क़रार कर दी गई आवारा औरत, बिगड़ैल टीनेजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली जमना, कोई सनकी फ़िल्ममेकर, एक तो स्किजोफ्रेनिक पेंटर ही.
लेखन के समय किस मानसिकता या अंतरद्वन्द से गुजरती हैं?
लिखना मुझे भीषण मूडी बनाता है. मेरे किरदार क्योंकि हटेले-खिसकेले होते हैं, सो बहुत उत्पात मचाते हैं. मेरी बनाई कथा लीक तक पर नहीं चलते. नींद गायब. हाल ही स्वप्नपाश की नायिका गुलनाज़ फरीबा ने लगभग मुझे बीमार कर दिया था. वह खुद भ्रम की शिकार, मैं उसके उलझे अंतस के छोर पकड़ते - पकड़ते अनिंद्रा की शिकार हो गई. लेखन अपने आप से, समाज से, कड़ी विचारधारा और जीवन के बीच लगातार विरोधाभासों का घर्षण है. सादा इकहरी कहानी मैं नहीं लिख सकती. जब मैं जीवन से लेकर कहानी लिखती हूं यकीन मानिये, उनके बरक्स जीवन कई गुना जटिलता होता है, कहानी में तो आप वह जटिलता कम करते हो. इसलिए सादी इकहरी, निश्चित अंत वाली कहानी नहीं लिख सकती मैं. कहानी स्वयं रफ़्तार और मोड़ लेती है.
क्या लेखन से आपकी विचारधारा में भी कुछ बदलाव आए हैं?
हां. मैं जजमेंटल नहीं रही. किसी के भी जीवन में कभी भी कुछ भी हो सकता है यह मानने लगी. नैतिकता के कड़े मापदंड मुलायम हुए. हां समाज के तीन प्रमुख वर्गों के इतर कितनी परतें देखीं. मध्यवर्ग के कंधों पर टिका संपूर्ण भारतीय चरित्र दिखा. कुल मिला कर लेखन एक मैग्नीफाईंग ग्लास साबित हुआ.
आपके किरदार आधुनिक होते हैं. यौन जीवन पर भी आप खुल कर लिखती हैं. क्या इसके लिए कभी आलोचना का सामना नहीं करना पड़ा?
मेरे सारे किरदार कतई आधुनिक नहीं, बल्कि जिन मुख्य किरदारों को रचने के लिए मुझे जाना जाता है वे आंचलिक हैं. सुगना, गफूरिया, कुरजां वगैरह. हां उपन्यासों में आधुनिक किरदार आए. सेक्स मेरा मुख्य विषय नहीं रहा. वह जरूरत पड़ने पर ही, मेरे कथा साहित्य में आया, और आया भी तो कलात्मकता के साथ न कि उत्तेजक ढंग से. सो इस बात को लेकर कभी आलोचना नहीं हुई. होती तो भी मैं कान न देती. क्योंकि यह विषय जीवन के केंद्र में है, भूख ही की तरह. अलग से सेक्स पर मेरी केवल एक ही कहानी है, एडोनिस का रक्त लिली के फूल. वह तीन पात्रों के एकसाथ प्रेम पर है. उस पर छटपटाती आलोचनात्मक टिप्पणियां हुईं हों तो हों. वरना कभी नहीं.
जीवन का कोई ऐसा अनुभव जो आप साझा करना चाहें?
मैं एक एयरफोर्स ऑफिसर की पत्नी हूं, यायावरी मेरा गहना है, अनुभवों से छलकता हुआ है मेरा जीवन. फिर भी हालिया अनुभव बांटूंगी. मैं दिल्ली जैसे महानगर से एक निहायत ही छोटे कस्बे में ट्रांसफर होकर पहुंची. हम दोनों सोच रहे थे कि हम किस मुसीबत में पड़ गए। यहां बाज़ार के नाम पर हाट, और मनोरंजन के नाम पर घने जंगल और तोर्सा नदी के तट हैं. कैसे समय कटेगा? लेकिन यकीन मानिए जब जीवन प्रकृतिस्थ होता है तो किसी बाज़ार की जरूरत नहीं पड़ती. हम नदी तट पर चूल्हा जलाकर पिकनिक मनाया करते. जंगलों से दोस्ती करते. तीन साल में "शॉपिंग" कितनी बेजा जरूरत है यह जान लिया, यह जाना कि बाज़ार किस अश्लील और धरती को नष्ट करते जाने के आत्मघाती मुहिम के तहत हम पर थोपा जाता है. वरना हाट में तो स्थानीय उपज के अलावा कुछ नहीं बेचा जाता. मेरा नज़रिया बहुत बदल गया.
समकालीन लेखकों के लिए कोई संदेश?
मेरे समकालीन लेखकों से मुझे शुभकामनाओं के साथ एक ही बात कहनी है - एक समय था जब लेखक विचारधारा को लेकर समूह बनाते थे, दो या तीन. मगर फिर भी एक किस्म की एकता थी. फिर ये समूह बंटे. हर पीढ़ी में ये बंटवारे होते रहे. अब हर लेखक अपने को अकेला सा पाता है. हम सबको एकत्र करने को मंच हैं, समूह हैं, फिर भी मतभेद बहुत है. एक नया गहरा केंद्र रचने की जरूरत है हमें.
अपने लेखन में ही आपकी पसंदीदा रचना कौन सी है?
मुझे शिगाफ़ उपन्यास पसंद भी है और वही मेरी अड़चन भी क्योंकि उसे मापदंड बनाकर मैं हर उपन्यास नहीं लिख सकती. उसमें मेरी कच्ची ऊर्जा लगी है, पांच साल की मेहनत.
किस रचना ने लेखन के दौरान मन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
स्वप्नपाश के समय भीषण असमंजसों ने मेरे मन को बहुत प्रभावित किया. वह किरदार ही कुछ ऐसा है गुलनाज़ का, पहले वह बाल यौनशोषित बच्ची है, कलाकार माता पिता की संतान, फिर मानसिक विदलन की शिकार, पेंटर है, भावुक है और भ्रमों के बीचों बीच रहती है. मुझे भय था कि मेरे रचे भ्रम और सत्य को पाठक पकड़ सकेंगे कि नहीं किंतु मेरा यह उपन्यास आते ही हाथों - हाथ लिया गया. अभी तीन महीनों में ही इसने वह लोकप्रियता हासिल की जिसे पाने में शिगाफ को लंबा समय लगा. इसका छोटा आकार भी वजह हो सकता है.
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