कविता और भाषा के शास्त्रीय अनुशासन के आधार पर पंकज चौधरी की कविताओं को सीधे-सीधे ख़ारिज कर देने की इच्छा होती है. आख़िर ऐसी सपाट सच्चाइयां कौन लिखता है? कौन चाहता है कि इन्हें कविता माना जाए. अगर ये कविताएं हैं तो शब्दों का वह सुरुचिपूर्ण संसार क्या कहलाएगा जिसे हम कविता मानते हैं?
लेकिन पंकज चौधरी की कविताएं जैसे यह सब सुनने को तैयार नहीं. वे पीठ पर चाबुक की तरह पड़ती हैं. वे हमारी सभ्यता के विराट भवन के सारे कालीन जैसे उलट-पलट देने को आमादा हैं. इनके नीचे जो खुरदुरा फ़र्श है, जातिवाद की जो बजबजाती तलछट है, उसे अपने कविता संग्रह 'किस-किस से लड़ोगे' की कविताओं के जरिए पंकज बिल्कुल ड्राइंग रूम के सोफ़े के सामने ले आते हैं- याद दिलाते हुए कि भारतीय बौद्धिकता, प्रखरता, संवेदना- सबकुछ जातिवादी आग्रहों से ही संचालित होती है.
और पंकज ने अपनी बात कहने का क्या अंदाज़ चुना है! वे लिखते हैं-
'क्रिमिनल है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
दंगाई है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
ख़ूनी है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
सर पर मूतता है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
बस्तियाँ फूँकता है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
बलात्कारी है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
गरीबों को रुलाता है तो क्या हुआ
अपनी जाति का है
अपनी जाति का है तो सात ख़ून माफ़ हुआ
औरों की जाति का है तो निरपराधी भी साफ़ हुआ.'
क्या इसे कविता मानेंगे? आप न मानिए, लेकिन इसमें विक्षोभ और हूक की तीव्रता है, वह इसका काव्य तत्व है. पंकज चौधरी के पूरे कविता संग्रह में यह काव्य तत्व सक्रिय है. वे जैसे चुन-चुन कर उदाहरण खोज लाते हैं और पढ़े-लिखे लोगों की दुनिया को वह आईना दिखाते हैं जिसे वे देखने से बचते हैं. संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जो बिल्कुल अंगारे में तपे लोहे की तरह पड़ती है. वे हिंदी साहित्य में वर्चस्व की छुपी हुई राजनीति को तार-तार कर देते हैं. वे प्रकाशन गृहों, पुरस्कारों, आलोचनाओं, संस्थाओं और समारोहों में पैठे सवर्ण वर्चस्व पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं-
'साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनका
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी उनका
कविता रोटरदम की यात्रा उनकी
विश्व कविता सम्मेलन की यात्रा भी उनकी
भारत भवन उनका
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय भी उनका
राजकमल, राधाकृष्ण और वाणी प्रकाशन से किताबें उनकी
साहित्य अकादेमी और भारतीय ज्ञानपीठ से भी किताबें उनकी
नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पांडेय
नंदकिशोर नवल और विजय कुमार जैसे आलोचक भी उनके
चर्चित कवि, बहुचर्चित कवि, वरिष्ठ कवि भी उनके
प्रसिद्ध कवि, सुप्रसिद्ध कवि, सशक्त हस्ताक्षर और महान कवि भी उनके
कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल
अशोक वाजपेयी और विष्णु खरे भी उनके
आलोकधन्वा, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल भी उनके
अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, उदय प्रकाश भी उनके.'
इस कविता का शीर्षक है- हिंदी कविता के द्विजवादी प्रदेश में आपका प्रवेश दंडनीय है'. कहने की ज़रूरत नहीं कि कविता किन लोगों को संबोधित है. इसे वे आगे बढ़ाते हुए इस सवाल तक ले आते हैं कि हिंदी कविता में कुछ ही जातियां सभी मंचों पर क्यों दिखाई पड़ती हैं- उनका ही बोलबाला क्यों है, जैसे उन्हें आरक्षण मिला हुआ हो.
'ऑल इंडिया का मंच उनका
दूरदर्शन का भी मंच उनका
कविता-पाठ के मंच भी उनके
रूसी, अँग्रेज़ी, फ़्रेंच, जर्मन, स्पैनिश
जापानी, चाइनीज और हंगारी में भी अनुवाद उनके
अपना क्या, सारा कुछ उनका
हिंदी कविता में सौ-सौ का आरक्षण उनका
भारत का लोकतंत्र भले सबका
लेकिन कविता का लोकतंत्र सिर्फ़ उनका
सारा कच्चा माल गैर-द्विजों का
लेकिन सारे के सारे कवि सिर्फ़ द्विजों के
कहने को तो भारत हज़ारों जातियों, धर्मों का देश
लेकिन हिंदी कविता पर मात्र तीन-चार जातियों का ही अवशेष.'
पंकज चौधरी जैसे एक ही कविता संग्रह में सारी कसर निकाल लेना चाहते हैं. वे जाति के नाम पर सोच की जो जकड़बंदी है, उस पर भी चोट करते हैं. एक कविता में लिखते हैं-
‘स्वीडन में उनको
नोबेल प्राइज़ के लिए शॉर्टलिस्टेड किया जा रहा था
लंदन से उनके लिए
बुकर प्राइज़ की घोषणा की जा रही थी
फिलीपिंस में उनके नाम पर
रेमन मैगसेसे पुरस्कार के लिए
विचार-विमर्श चल रहा था
ऑक्सफ़ोर्ड में उनके नाम पर
चेयर स्थापित की जा रही थी
हारवर्ड में उनकी राइटिंग्स और स्पीचिस को
सिलेबस का हिस्सा बनाया जा रहा था
और कोलंबिया यूनिवर्सिटी
उनको पिछली शताब्दी का सबसे ब्रिलियंट स्टूडेंट
क़रार दे रही थी
लेकिन उसी वक़्त
इंडिया में
गूगल पर
उनकी जाति सर्च की जा रही थी.
तो यह है जाति का वह सच जो बहुत सारे लोगों के लिए बहुत तेज़ाबी यथार्थ की तरह सामने आता है. विडंबना यह है कि हिंदी के बहुत सारे शिष्ट-शालीन लेखक इस तेज़ाबी हक़ीक़त को पहचान नहीं पाते. फिर बहुत सारे दूसरे लोग इसे पहचानते तो हैं, महसूस नहीं कर पाते. वे मानते हैं कि जातिवाद बुरा है और इसे ख़त्म या कमज़ोर करने के नाम पर वे पिछड़ों या दलितों से संवाद रखने की उदारता दिखाते हैं. लेकिन एक हद के बाद उनका तथाकथित ‘सभ्य' या ‘संभ्रांत' साहित्य उन्हें अपनी ओर पुकारने लगता है.
तो पंकज चौधरी यहीं नहीं रुकते. वे विचारधाराओं में घुसपैठ कर चुकी जाति को भी देखते हैं. उन्हें पता है कि पूरा भारतीय समाज बस जातियों में विभाजित है. जाति उसकी अपरिहार्य पहचान है. इसलिए वे लिखते हैं-
‘कोई ब्राह्मण है तो कोई भूमिहार है
कोई राजपूत है तो कोई कायस्थ है
कोई जाट है तो कोई गुर्जर है
कोई यादव है तो कोई कुर्मी है
कोई मराठा है तो कोई इझावा है
कोई पटेल है तो कोई कुनबी है
कोई वोक्कालिंगा है तो कोई लिंगायत है
कोई रेड्डी है तो कोई कम्मा है
कोई बनिया है तो कोई कोयरी है
कोई बढ़ई है तो कोई हज़्ज़ाम है
कोई कहार है तो कोई कुम्हार है
कोई महार है तो कोई माँग है
कोई मातंग है तो कोई कापू है
कोई चमार है तो कोई पासवान है
कोई वाल्मीकि है तो कोई खटिक है
कोई धोबी है तो कोई पासी है
कम्युनिस्ट कौन है? ‘
उनका काम यहीं ख़त्म नहीं होता. फिर वे जातियों के भीतर छुपी उपजातियों को और उनके भीतर की प्रतिस्पर्धा को अपनी कविता का विषय बनाते हैं और उस हास्यास्पद ग्रंथि को फिर सामने ले आते हैं जिसका नाम जातिगत श्रेष्ठता का भाव है. वे लिखते हैं-
‘एक श्रोत्रिय ब्राह्मण ने कहा
कि हम श्रोत्रिय जो होते हैं
वे ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाक़ी ब्राह्मण शूद्र
एक वत्स भूमिहार ने कहा
कि हम वत्स जो होते हैं
वे भूमिहारों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाक़ी भूमिहार अधम
एक चौहाण राजपूत ने कहा
कि हम चौहाण जो होते हैं
वे राजपूतों में सबसे बड़े होते हैं
और बाक़ी राजपूत नीच
एक अंबष्ठ कायस्थ ने कहा
कि हम अंबष्ठ जो होते हैं
वे कायस्थों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं
और बाक़ी कायस्थ निम्न.‘
यह बहुत लंबी कविता है. बिल्कुल नीचे तक जाती हुई- दलितों-आदिवासियों तक पहुंचती हुई और याद दिलाती हुई कि जाति की जकड़बंदी कितनी गहरी है- और श्रेष्ठता का खोखला दंभ हमारी रगों में किस कदर उतरा हुआ है. इन कविताओं को पढ़ते हुए ही यह खयाल आता है कि हिंदी या भारतीय समाज के अवचेतन में जाति जितनी प्रबलता और गहराई से पैठी हुई है, हमारे सामाजिक विमर्श में उसकी उपस्थिति उतनी ही कमज़ोर और उथली है. इस लिहाज से पंकज चौधरी की कविताएं एक उल्लेखनीय हस्तक्षेप की तरह आती हैं.
मगर यह कहने के बावजूद इसमें जोड़ने की इच्छा होती है कि इस संग्रह की कई कविताएं इतनी सपाट हैं कि अपना मर्म खो देती हैं. कई कविताएं बिल्कुल तात्कालिक प्रतिक्रिया की तरह आती हैं जिनको यहां रखने का औचित्य नहीं था. यह बात भी समझ में आती है कि अगर किसी सत्य की वेधकता कविता में तोड़फोड़ करके या उसके अनुशासन से बेपरवाह रहकर कहीं ज़्यादा व्यक्त होती है तो बहुत सारे दूसरे अनुभवों को ज़्यादा मार्मिकता और प्रभविष्णुता के साथ दर्ज करने के लिए काव्य-अनुशासन की शर्तें भी ज़रूरी होती हैं. कितना अच्छा होता कि इन दोनों में एक उचित संतुलन होता. तब यह संग्रह जातिवाद नाम की इस विडंबना को कहीं ज़्यादा गहरे अर्थों में पकड़ पाता.
यह बात भी कुछ हैरान करती है कि पंकज चौधरी जाति के सवाल पर जितने संवेदनशील हैं स्त्रीत्व के सवाल पर उतने नहीं. उल्टे जो दो-एक कविताएं स्त्री विमर्श को संबोधित हैं उनमें एक हल्का सा द्वेष दिखाई पड़ता है, जो संभव है उनके निजी अनुभव की देन हो लेकिन उसे प्रामाणिक और सार्वजनिक सत्य की तरह रखना उचित नहीं है.
अंतिम बात- अंततः ये कविताएं अपनी सीमाओं के बावजूद जो सवाल खड़े करती हैं और जिस तरह खड़े करती हैं उसकी वजह से हमारी चेतना में देर तक गूंजती रहती हैं. इसे कवि की सफलता कहना उस सामाजिक विक्षोभ को कुछ छोटा करना होगा जिसकी कोख से यह कविताएं निकली हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि इनका एक स्पष्ट राजनीतिक भाष्य है जो अनदेखा नहीं किया जा सकता. इसके प्रमाण स्वरूप एक कविता यहां प्रस्तुत है-
'अच्छे दिनों में
मनु लौट रहे हैं
अपने पूरे लाव लश्कर के साथ.
अच्छे दिनों में
मुसलमान लगा रहे हैं
वंदे मातरम जय श्रीराम के नारे
अच्छे दिनों में
उबाऊ लग रहे हैं
ग़ालिब, टैगोर और प्रेमचंद
अच्छे दिनों में
बेदखल हो रहे हैं
हमारी किताबों से
अकबर शाहजहां
अच्छे दिनों में
अख़लाकों की हो रही बर्बर हत्या.
और गायों की हो रही
मच्छरदानी में सुरक्षा
अच्छे दिनों में
शंकराचार्यों की बन रही पीठ
और मौलवियों, पादरियों की
उधेड़ी जा रही पीठ
अच्छे दिनों में
हो रही है
शूद्रों की धन-दौलत नीलाम
अच्छे दिनों में
मार्क्स की संतानों की
उतारी जा रही हैं केंचूली
अच्छे दिनों में
फुले-आम्बेडकर की संतानों में
मची हुई है होड़
झंडेवालान की ओर
देखने की भोर
और
अच्छे दिनों में
अम्बानी, अडानी हो रहे और मोटे
पंकज चौधरी हो रहे और दुबले!'
आप चाहें तो इन कविताओं को ख़ारिज कर दें, लेकिन उस सच्चाई को कैसे ख़ारिज करेंगे जिसकी ओर ये कविताएं इशारा कर रही हैं?
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