अल्पना मिश्र: मनुष्यता पर गहराते संकट को बयान करता है 'अस्थि फूल'

कहानी के प्रकाशन के बाद एक तरफ बहुत ही यश मिला तो दूसरी तरफ बस में साथ जाने वाले लोगों ने मुझे घेरकर कहना शुरू किया कि उनकी वाली बात मैंने क्यों नहीं कही? तब मुझे महसूस हुआ कि लेखक इतने सारे लोगों की आवाज़ होता है. लेखक की जिम्मेदारी बड़ी होती है.

अल्पना मिश्र: मनुष्यता पर गहराते संकट को बयान करता है 'अस्थि फूल'

अल्पना मिश्र अपने उपन्यास 'अस्थि फूल' के साथ

नई दिल्ली:

कहा जाता है कि इतिहास जिन घटनाओं को बिसरा देगा साहित्य उन्हें अपने दामन में समेट लेगा. शायद इसीलिए कहा जाता है कि बेहतर साहित्यकार वही होता है जो अपने लेखन में हाशिए पर धकेल दिए गए वर्गों, शोषितों, दलितों और स्त्री उत्पीड़न को जगह देता है. यही वो चीज़ें हैं जो किसी भी साहित्यकार को दूसरे से अलग करती हैं. हाल ही में राजकमल प्रकाशन से आया अल्पना मिश्र का उपन्यास 'अस्थि फूल' समाज के ऐसे ही लोगों की कहानी है. उन्होंने अपने इस उपन्यास में ऐसे मुद्दे को उठाया है, जिसे इतिहास तो छोड़िए मीडिया भी दिखाना पसंद नहीं कर रहा है. यह उपन्यास गाथा कहता है झारखंड के उन आदिवासी समाज की जो महज कुछ हजारों रुपए में अपनी लड़कियों को बेच देते हैं. और इन्हें खरीदने वाले भी कोई विदेशी नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी के साथ बसे हरियाणा के रसूखदार परिवार हैं. ये रसूखदार परिवार इन लड़कियों को शादी का झांसा देकर खरीद लाते हैं और फिर इन्हें बेटा पैदा करने के लिए मजबूर करते हैं. इतना ही नहीं ये लड़कियां इन परिवारों के घरों का सारा काम तो करती हैं लेकिन इन्हें कभी भी बहू का दर्जा नहीं दिया जाता. फिर इन लड़कियों की इन परिवारों में क्या हैसियत होती है? कोई नहीं जानता. 'संडे स्पेशल' की अपनी सीरीज के तहत हमने अल्पना मिश्र जी इसी उपन्यास 'अस्थि फूल' और उनके लेखन को लेकर बात की. पेश है बातचीत के अंश...

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सवालः 1996 में हंस में प्रकाशित पहली कहानी ‘ए अहिल्या' से लेकर हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘अस्थि फूल' तक आपने एक लेखक के तौर पर लंबा सफर तय किया है. इस सफर में कभी कोई ऐसा मोड़ आया जब आपको किसी प्रकार के दबाव का सामना करना पड़ा हो?

जवाबः कईं बार. लेखन में दबाव का सामना तो करना ही पड़ता है. खासतौर से तब जब आप लीक से हटकर कुछ नया रचते हैं. मुझे ऐसे दबाव का सामना शुरू में अपनी कहानी ‘मुक्ति प्रसंग' के प्रकाशन के दौरान करने पड़ा. यह कथादेश के नवलेखन अंक (जून 2001) में प्रकाशित हुई थी. इस कहानी के प्रकाशित होते ही मेरे पास तरह-तरह के पत्रों के ढ़ेर लग गए. पत्र भी अधिकतर धमकी भरे. जिनमें लोगों ने लेखन बंद करने से लेकर सोच-समझकर लिखने तक के सुझाव दिए. और ऐसा नहीं था कि इस तरह के पत्र सिर्फ मेरे पास ही आए. इसी तरह के ढेरों पत्र पत्रिका के संपादक हरिनारायण जी के पास भी आए. जब मैंने उन्हें इन पत्रों के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि आप इन पत्रों को अपने पास रखे हैं हम इन पत्रों को भी छापेंगे. ये कहानी देहरादून से ऋषिकेश तक बस से सफर करने पर आधारित है. इस बस में बहुत सी महिलाएं रोजाना अपनी नौकरी के लिए अप-डाउन करती थीं. इसलिए जब कहानी कथादेश में प्रकाशित हुई तो वहां ऋषिकेश में पत्रिका का वह अंक खूब बिका. महिला-पुरुषों ने बसों में इसे खरीद-खरीद कर पढ़ा. कहानी के प्रकाशन के बाद एक तरफ बहुत ही यश मिला तो दूसरी तरफ बस में साथ जाने वाले लोगों ने मुझे घेरकर कहना शुरू किया कि उनकी वाली बात मैंने क्यों नहीं कही? तब मुझे महसूस हुआ कि लेखक इतने सारे लोगों की आवाज़ होता है. लेखक की जिम्मेदारी बड़ी होती है.
 
सवालः ‘अस्थि फूल' में आपने झारखंड के आदिवासी समाज से लेकर हरियाणा के संपन्न और रसूखदार समाज को आधार बनाया है. इस उपन्यास की पृष्ठभूमी और प्रक्रिया के बारे में कुछ बताइए?

जवाबः इस उपन्यास को लिखने में मुझे पांच वर्ष का समय लगा. इसके लिए मैंने झारखंड के आदिवासी इलाकों की सालों तक यात्राएं की. हरियाणा के गांवों की खाक छानी. हरियाणवी सीखी. मैंने जाना कि किस तरह हरियाणा के संपन्न परिवार झारखंड के आदिवासी इलाकों से महज कुछ हजार रुपये में शादी के नाम पर लड़कियों को खरीदकर लाते हैं और उन्हें सिर्फ बेटे पैदा करने के लिए मजबूर करते हैं. शादी भी वे आदिवासी रिवाजों के अनुसार ही करते हैं, जिसका कोई प्रमाण-पत्र नहीं होता. ये लड़कियां अपने गांव से उठकर अचानक एक अजनबी माहौल में आ जाती है, जहां इनसे घर के साथ-साथ शरीर की तमाम जरूरत तो पूरी करा ली जाती है लेकिन उन्हें कभी बहुओं का दर्जा नहीं मिलता. इस उपन्यास में ‘आंदोलन' के बिकने के साथ-साथ लड़कियों के बिकने और पृथ्वी के गृभ के खरीद-फरोख्त की कहानी है. सपने दिखाकर छल किया जाता है. कभी नौकरी का सपना, कभी शादी का सपना, कभी भरपेट खाने का सपना, लेकिन ये सपने कभी हकीकत में नहीं बदलते. सपने ही रह जाते हैं. इस सच्चाई को मैं जानती थी. कुछ नोट्स भी लिए थे. पर लिखने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी, लेकिन कुछ साल पहले एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रोहतक जाना पड़ा.  वहां कार्यक्रम के बाद लड़कियों का एक ग्रुप मुझसे अकेले में मिलना चाहता था. बात करते हुए अचानक उनमें से एक लड़की रोने लगी. मेरे पूछने पर उसने मुझे बताया कि कैसे उनके वहां उन अजनबी लड़कियों का रखा जाता है. उसकी यह बात मेरे मर्म को छू गई कि वह अपने आस-पास की लड़कियों के लिए रो रही थी और तब मैंने इस उपन्यास को पूरा करने का निर्णय लिया. उन्हीं लड़कियों के साथ-साथ में हरियाणा के उन इलाकों में गई. उन आदिवासी लड़कियों से मिली और उनकी हालात को जाना. मैं उनकी कहानियां सुनकर हैरान रह गई कि आखिर ये लड़कियां इतने भयानक संकट में कैसे फंस गई. लेकिन ये संकट केवल उन लड़कियों का नहीं है. यह हमारे समाज, देश और स्त्री पर छाया हुआ संकट है. यह मनुष्यता पर गहराते हुआ संकट है. एक ऐसा संकट कि अगर वक्त रहते इसका समाधान न किया तो हममें से कोई नहीं जानता कि समाज किधर जाएगा.
 
सवालः आपने अपने लेखन में शुरू से ही वंचित वर्ग और स्त्री पीड़ा को केंद्रीय विषय रखा है. इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद आप इन समाज में किस प्रकार का बदलाव देखती हैं?

जवाबः बदलाव तो हुए हैं पर बहुत कम है. दलित, वंचित और हाशिए के लोगों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना सीखा है. स्त्रियों ने भी विरोध के झंड़े को बुलंद किया है, लेकिन यह अभी तक उस पैमाने पर नहीं हो पाया कि जिसके आधार पर हम कह सके कि हमारा समाज वाकई बदला है. इन वर्गों में खासतौर से स्त्री वर्ग में जितने बदलाव हुए हैं उससे कहीं ज्यादा चुनौतियां भी पैदा हुई हैं, जिसमें उनके संघर्ष को कई गुना बढ़ा दिया है. 

सवालः मनुष्य ने समय बीतने के साथ हर क्षेत्र में विकास और बदलाव कि नई बुलंदियों को छुआ है. लेकिन फिर स्त्री-पुरुष के संबंधों के क्षेत्र में हम न के बराबर ही बदलाव देखते हैं. ऐसा क्यों है?

जवाबः स्त्री-पुरुष के संबंध में बदलाव तो आया है, लेकिन उतना भी नहीं आ पाया. देखने में तो आज स्त्री घर से बाहर निकल रही है. नौकरी कर रही है. पैसा भी कमा रही है, लेकिन उस पैसे पर अभी भी उसका अधिकार नहीं है. अगर वह अपना पैसा खर्च करती है तो उसका हिसाब भी देना होता है. ये जो चीजें हैं ये स्त्री और पुरुष के संबंध में अधिकारों को निर्धारित करती हैं. इतना सबकुछ करने के बावजूद भी स्त्री के पास वो अधिकार नहीं है जिसके बल पर वह बेझिझक और निडर होकर अपने फैसले खुद ले सके. वह अभी भी पुरुष के निर्देशानुसार जीवन यापन करने को बाध्य है. यह तो केवल दिल्ली जैसे शहरों की बात है. अगर आप यूपी, हरियाणा और बिहार में देखेंगे तो वहां तो इससे कहीं ज्यादा बुरा हाल है.  

सवालः हिंदी साहित्य में जितने भी ‘स्कूल' कायम हुए या फिर कथा के किसी नए स्ट्रक्चर की शुरुआत हुई वह किसी पुरुष लेखक के द्वारा ही हुई. क्या पुरुष लेखक ही साहित्य में नया रच सकते हैं स्त्री लेखक नहीं?

जवाबः स्त्री लेखक भी नए कथा स्ट्रक्चर की शुरुआत कर सकती हैं. उनके पास भी पुरुष लेखकों के समान ही बुद्धि और रचनात्मकता के नए-नए आयाम है. फर्क सिर्फ यह है कि पुरुषों लेखकों की किसी भी नई प्रकार की रचनात्मकता को जल्दी चर्चा मिल जाती है, जबकि स्त्री लेखकों की रचनात्मकता पर उतनी बात नहीं होती. आप देखिए कि महादेवी वर्मा ने प्रकृति से लेकर समाज तक और स्त्री मन से लेकर अपने आस-पास के समस्याओं तक हर चीज़ पर कलम चलाई, लेकिन अभी तक सही तरह से उनकी भाषा तक पर बात नहीं हुई. यही बात कृष्णा सोबती के साथ भी है. कृष्णा जी ने विभाजन, पंजाबी समाज और स्त्री-पुरुष संबंधों पर खूब लिखा, लेकिन उनकी भी बस ले-देकर मित्रो मरजानी पर ही चर्चा होती है. हिंदी में अभी भी स्त्री लेखकों के योगदान को स्वीकार करने में एक प्रकार की हिचक है. वह उन्हें व्यापक रूप से स्वीकार करने में झिझकती है. दिक्कत यह भी है कि यदि कोई स्त्री लेखक अपनी नवीन रचनात्मक के साथ दस्तक देती है तो उसे ‘स्त्री विमर्श' के खांसे में फिट कर दिया जाता हैं.  

सवालः युवा लेखकों के बारे में कहा जाता है कि वे करियर बनाने के लिए साहित्य रचते है. आप इस बात को किस नजरिये से देखती हैं?

जवाबः करियर और साहित्य दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं. करियर बाजार का हिस्सा है जबकि साहित्य जीवन से जुड़ी चीज़ है. पाठक को बाजार से भरपूर मनोरंजन मिल सकता है पर वह अपने समय और समाज जानने के लिए साहित्य की ओर आता है. प्रेमचंद और रेणू ने जो रचा है वह बाजार में तो नहीं मिल सकता. बाजार को तो वह जेब में लेकर घूम रहा है. बल्कि सच कहूं तो पूरा समाज ही बाजारवाद की चपेट में है. इसलिए करियर जैसी बात साहित्य में नहीं आ सकती.
 
सवालः जब किसी लेखक के किताब की चर्चा होने लगती है और वह प्रसिद्ध हो जाता है तो प्रकाशक और संपादक उस पर एक किस्म दबाव बनाने लगते हैं कि वह इतने वक्त में उन्हें नई किताब लिखकर दे दे. आपने भी कभी इस किस्म के दबाव का सामना किया?

जवाबः हां, कई बार. लेकिन मैं इस तरह के दबाव को मानती. लेखक केवल उसी विषय पर लिख सकता है जिसमें उसकी पैठ है. फिर किताब कोई प्रोडक्ट तो होती नहीं कि डिमांड एंड सप्लाई के सिद्धांत पर अमल किया जाए. लेकिन प्रकाशक सोचते हैं कि बस जितने दिन में वह कहे लिखकर दे दे. ऐसा नहीं होता. प्रकाशक कहते हैं कि आप मुझे फलां विषय पर तीन महीने में किताब लिखकर दे दीजिए. अब आप बताए कि इतने कम वक्त में कोई कैसे किताब लिखकर दे सकता है. यह बाजार का तरीका है. साहित्य का नहीं. 

सवालः मेरा आखिरी सवाल आपसे यह है कि स्त्री और पुरुष के लेखन में क्या कोई फर्क होता है?

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जवाबः मैं लेखन में जेंडर-भेद नहीं मानती. लिखते वक्त लेखक सिर्फ लेखक होता है.