Talaq-e-Hasan: सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम समुदाय की एक प्रथा तलाक-ए-हसन को लेकर सुनवाई हुई थी. जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जमकर नाराजगी जाहिर की और कहा कि एक सभ्य समाज इस प्रथा को कैसे मान सकता है. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस पूरी प्रथा पर गंभीर सवाल उठाए और ये संकेत दिए कि इसे खत्म किया जा सकता है. ऐसे में मुस्लिम समुदाय की इस प्रथा को लेकर काफी ज्यादा चर्चा हो रही है, आइए जानते हैं कि आखिर ये तलाक-ए-हसन होता क्या है और इसमें पत्नी से कैसे तलाक लिया जाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एनके सिंह की बेंच ने तलाक-ए-हसन पर सवाल उठाए और कहा कि एक पति में इतना अहंकार कैसे हो सकता है कि वो तलाक की बात भी पत्नी से नहीं कह पाए. सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान उन महिलाओं को लेकर भी चिंता जाहिर की, जो गरीब हैं और कोर्ट तक नहीं पहुंच सकती हैं. कोर्ट ने कहा कि इस तरह के तलाक को अगर मान्यता मिलती रही तो पूरी शादी ही संदेह के घेरे में आ सकती है.
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क्या होता है तलाक-ए-हसन?
तलाक-ए-हसन मुस्लिम समुदाय की उन तमाम प्रथाओं में शामिल है, जिन्हें तलाक लेने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसके तहत कोई भी पति अपनी पत्नी को तीन महीने में तीन बार तलाक बोलकर अपने निकाह को खत्म कर सकता है. जरूरी नहीं है कि तलाक शब्द बोलकर ही कहा जाए, इसे लिखकर भी पत्नी को दिया जा सकता है. इसमें हर महीने एक बार तलाक बोलना जरूरी होता है, ऐसे ही तीसरे महीने में बोले गए तलाक के बाद शादी टूट जाती है और तलाक हो जाता है. इसमें ये शर्त होती है कि इस अवधि में पति-पत्नी के बीच संबंध नहीं बनने चाहिए, ऐसा होने पर तलाक का प्रोसेस पूरा नहीं होता है.
- महिला की तीन माहवारियों तक पति और पत्नी का अलग रहना जरूरी है
- पहली बार तलाक बोले जाने के बाद विवाद को खत्म करने की कोशिश की जा सकती है
- तलाक-ए-हसन के तहत तलाक लेने में पत्नी की सहमति भी जरूरी है
सुप्रीम कोर्ट ने मांगी थी राय
इससे पहले इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी), राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) से राय मांगी थी. सुप्रीम कोर्ट तलाक-ए-हसन के अलावा तलाक-ए-अहसन, तलाक-ए-किनाया और तलाक-ए-बाईन जैसी प्रथाओं पर भी सुनवाई कर रहा है. तलाक-ए-हसन से तलाक दिए जाने के बाद बेनजीर हिना नाम की महिला ने इसे लेकर याचिका दायर की थी.
क्या है मुस्लिम बोर्ड का तर्क?
अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई का विरोध किया है और कहा कि इन याचिकाओं पर विचार नहीं किया जाना चाहिए. बोर्ड का तर्क है कि ये मुद्दे निजी कानून के दायरे में आते हैं.
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