विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड की राजनीति में अटकलों का बाजार गर्म है. झारखंड मुक्ति मोर्चा(Jharkhand Mukti Morcha) के वरिष्ठ नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन (Champai Soren) के बीजेपी में शामिल होने की संभावना जताई जा रही है. चंपई सोरेन ने रविवार को सोशल साइट एक्स पर लिखा था कि मेरे लिए सभी विकल्प खुले हुए हैं. साथ ही उन्होंने जेएमएम नेतृत्व पर अपमानित करने का आरोप लगाया था. चंपई सोरेन कोल्हान क्षेत्र से आते हैं. संथाल परगना के बाद कोल्हान का क्षेत्र जेएमएम का गढ़ माना जाता है.
कोल्हान में निर्मल महतो के दौर से ही जेएमएम की अच्छी पकड़ रही है. महतो वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा हमेशा से जेएमएम के साथ रहा है. शिबू सोरेन की आदिवासी वोट बैंक पर अपील रही है. साथ ही ईसाई मिशनरी के प्रभाव वाले क्षेत्रों में कांग्रेस की भी अच्छी पकड़ रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में जेएमएम गठबंधन की जीत में इन फैक्टर की अहम भूमिका रही थी.
चंपई के लिए आसान नहीं है बीजेपी की डगर
भारतीय जनता पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए सुरक्षित 28 सीटों में से महज 2 सीटों पर जीत मिली थी. जेएमएम को 19 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस को 6 सीटों पर बीजेपी को महज 2 सीटों पर जीत मिली थी. पिछले लोकसभा चुनाव में भी राज्य की सभी 5 एसटी आरक्षित सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था. आदिवासी वोटर्स तेजी से बीजेपी से दूर गए हैं. ऐसे में चंपई सोरेन के सामने सबसे बड़ी चुनौती आदिवासी वोट बैंक को जेएमएम के खाते से खींचकर बीजेपी की तरफ लाना होगा. यह काम बेहद कठिन माना जा रहा है.
दूसरी तरफ बीजेपी के पास राज्य में कई कद्दावर नेता हैं. प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पहले से ही राज्य में पार्टी के फेस के तौर पर कार्य कर रहे हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद अर्जुन मुंडा भी राज्य में अपने लिए जगह तलाश रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री और ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और उनके गुट के नेता झारखंड की राजनीति में बेहद सक्रिय रहे हैं. मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा भी लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी में शामिल हुई थी. सीता सोरेन ने भी लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी का दामन थामा था. ऐसे में इतने मजबूत नेताओं और पावर सेंटर के बीच अपने लिए बीजेपी में स्पेस बनाना चंपई सोरेन के लिए आसान नहीं होगा.
चंपई के पार्टी छोड़ने से जेएमएम को कितना नुकसान?
चंपई सोरेन की अब तक की राजनीति जेएमएम और सोरेन परिवार के आसपास ही रही है. जेएमएम में कई बार हुए टूट के दौरान भी वो पार्टी के साथ डटे रहे थे. ऐसे में जेएमएम की जीत में उनका कितना योगदान रहा और वो वोट बैंक जेएमएम से अलग हटने के बाद भी उनके साथ रहता है या नहीं यह एक बड़ा सवाल है. अब तक चंपई सोरेन अपने विधानसभा क्षेत्र में ही सक्रिय रहे थे. राज्य स्तर पर भी उनकी कोई अपील नहीं रही है. चंपई सोरेन भी संथाल आदिवासी हैं, हेमंत सोरेन भी संथाल आदिवासी हैं. ऐसे में नरेटिव के स्तर पर जेएमएम को भले ही नुकसान होता दिखे लेकिन वोट बैंक पर बहुत अधिक असर की संभावना नहीं है.
चंपई के पास क्या-क्या हैं राजनीतिक विकल्प?
चंपई सोरेन के जेएमएम से विद्रोह के बाद उनके सामने बहुत कम विकल्प हैं. सबसे पहला विकल्प उनके सामने बीजेपी में शामिल होना है. हालांकि इसमें उनके सामने कई पेंच हैं. दूसरा विकल्प नई राजनीतिक दल का वो गठन कर सकते हैं और बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुनाव में उतर सकते हैं. हालांकि विधानसभा चुनाव में अब काफी कम समय बचे हैं ऐसे में किसी राजनीतिक संगठन को खड़ा करना और उसे चुनाव आयोग में पंजीकृत करवाना चंपई के लिए आसान नहीं होगा. तीसरा विकल्प चंपई सोरेन राज्य में स्थानीय नीति को लेकर आंदोलन कर रहे युवा जयराम महतो के साथ मिलकर राजनीति करने की है. हालांकि जयराम महतो का खुद का संगठन ही हाल के दिनों में बिखरता हुआ दिख रहा है. ऐसे में चंपई सोरेन के लिए उस ओर भी बढ़ना आसान नहीं होगा. चंपई अगर जेएमएम में ही रहने का फैसला करते हैं तो शायद उन्हें अब आलाकमान की तरफ से शक की नजर से देखा जाएगा.
जेएमएम छोड़ने वाले नेताओं को जनता का नहीं मिला है अधिक साथ
झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना एक दवाब समूह के तौर पर ए.के. रॉय, बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने की थी. बाद के दिनों में जेएमएम ने संसदीय राजनीति में हिस्सा लिया. पार्टी में समय-समय पर टूट होती रही है. साल 1993 में पार्टी के 2 सांसद और 9 विधायक बिनोद बिहारी महतो के बेटे राजकिशोर महतो और कृष्णा मार्डी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था. बाद के दिनों में जेएमएम मार्डी गुट का अस्तित्व खत्म हो गया और कृष्णा मार्डी और राजकिशोर महतो लंबे समय तक राजनीतिक के नैपथ्य में रहे.
शैलेंद्र महतो, साइमन मरांडी, हेमलाल मूर्मू, स्टीफन मरांडी जैसे नेता भी नहीं कर पाए खेल
कोल्हान के क्षेत्र में एक दौर में शैलेंद्र महतो बेहद कद्दावार नेता माने जाते थे. शैलेंद्र महतो बेहद पढ़े लिखे नेता रहे हैं. हालांकि सांसद रिश्वत कांड के बाद उन्होंने देश की संसद में जेएमएम पर गंभीर आरोप लगाते हुए जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में उनकी पत्नी आभा महतो जमशेदपुर से कई बार सांसद बनी हालांकि अब वो और उनका परिवार सक्रिय राजनीति से लगभग दूर है. इसी तरह संथाल के क्षेत्र में भी राजमहल से कई बार सांसद बनने वाले साइमन मरांडी और हेमलाल मूर्मू ने भी विद्रोह किया. लेकिन दोनों ही नेताओं को बाद में वापस जेएमएम में आना पड़ा. स्टीफन मरांडी को पार्टी ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था. हालांकि बाद में दुमका विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने को लेकर हुए टकराव के बाद उन्होंने जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में फिर उनकी जेएमएम में वापसी हो गयी.
अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो रहे हैं अपवाद
जेएमएम से विद्रोह करने वाले अधिकतर नेताओं की या तो राजनीति खत्म हो गयी है या बाद में वो फिर जेएमएम में वापस आ गए हैं. लेकिन इन सबके बीच अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो अपवाद की तरह हैं. अर्जुन मुंडा पहली बार जेएमएम की टिकट पर चुनाव जीते थे बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. अर्जुन मुंडा कई बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने और केंद्र में भी उन्हें मंत्री बनाया गया. इसी तरह विद्युत वरण महतो भी जेएमएम से बीजेपी में शामिल हुए और लगातार तीसरी बार वो जमशेदपुर से चुनाव जीतने में सफल रहे हैं. ये दोनों नेता अपवाद की तरह हैं जिन्होंने जेएमएम छोड़ने के बाद भी अपनी राजनीति को बचाया है.
झारखंड का क्या है राजनीतिक समीकरण?
झारखंड की राजनीतिक में आदिवासी और महतो वोटर्स का सबसे अधिक प्रभाव रहा है. अल्पसंख्यक वोटर्स की संख्या भी अच्छी खासी रही है. पिछले चुनाव में आदिवासी और मुस्लिम मतों की गोलबंदी और महतो वोट बैंक में भी सेंध लगाकर जेएमएम ने सफलता हासिल की थी. इस चुनाव से पहले महतो वोट बैंक में जयराम महतो ने बड़ी सेंध लगायी है. ऐसे में बीजेपी की नजर आदिवासी वोट बैंक को साधने की है. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में भी आदिवासी वोट बैंक का बड़ा हिसा जेएमएम के साथ रहा. अब देखना रोचक होगा कि चंपई के विद्रोह के बाद जेएमएम को इसका कितना नुकसान होता है.
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