- इथियोपिया में करीब 12 हजार साल पुराना हेली गुब्बी ज्वालामुखी फटने से हड़कंप मच गया है.
- ज्वालामुखी से निकली राख के गुबार से भारत भी अछूता नहीं रहा. भारत की कई उड़ाने प्रभावित हुईं.
- भारत VAAC सिस्टम जोड़े ताकि अलर्ट पहले मिले. Ash Avoidance Corridors भी बनाए ताकि यात्राएं अबाधित चल सकें.
एशिया–प्रशांत क्षेत्र के देश इथियोपिया में हायली गुब्बी ज्वालामुखी फटने के बाद उसकी राख पिछले सप्ताह ऊपरी वायुमंडल में फैल गई. यह जिसकी दिशा बदलकर भारतीय हवाई मार्ग तक पहुंच गई. इथियोपिया से भारत के बीच हवाई मार्ग करीब 4300 किलोमीटर है. हेली गुब्बी ज्वालामुखी वहां के अफार इलाके में है जो राजधानी अदीस अबाबा से करीब 800 किलोमीटर पूर्वोत्तर में इरिट्रिया की सीमा पर है. यह ज्वालामुखी विस्फोट भारत से सैकड़ों किलोमीटर दूर हुआ पर इसकी राख के गुबार लाल सागर को पार करते हुए मध्य पूर्व और मध्य एशिया की तरफ बढ़े और फिर भारत से होकर भी गुजरे.
भारत में एविएशन नियामक डीजीसीए ने एयरलाइंस और हवाई अड्डों को एक निर्देश जारी किया. अकाशा एयर, इंडिगो और केएलएम जैसी एयरलाइंस ने राख के बादलों के कारण कुछ उड़ानों को रद्द किया. इसकी वजह बताई गई कि ये राख समुद्र तल से 8.5 किलोमीटर और 15 किलोमीटर के बीच से गुजर रहे थे जहां से अधिकतर हवाई उड़ाने गुजरती हैं.
राख के ये गुबार गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब समेत अन्य राज्यों से होते हुए सोमवार यानी 24 नवंबर की रात करीब 11 बजे राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली पहुंचे. भारतीय मौसम विभाग ने जानकारी दी की इसके मंगलवार की शाम तक भारत से बाहर निकल कर चीन की ओर बढ़ने की संभावना है. दिल्ली में इस राख की वजह से विजिबिलिटी (दृश्यता) और एयर ट्रैफिक पर तो असर पड़ा लेकिन इसने एयर क्वालिटी पर असर नहीं छोड़ा.
आखिर भारत में एयर ट्रैफिक पर क्यों पड़ा असर? एटमॉस्फेयरिक ट्रांसपोर्ट का पूरा विज्ञान क्या है? क्या आने वाले सालों में ऐसी घटनाएं और बढ़ सकती हैं? इससे निपटने के लिए भारत को क्या करना चाहिए?
पूरा मामला क्या है?
इथियोपिया में ज्वालामुखी फटने की वजह से फैली राख के भारतीय वायुमंडल में पहुंचने से लंबी दूरी की कई अंतरराष्ट्रीय उड़ानें डायवर्ट करनी पड़ीं. कुछ घरेलू उड़ान देर से चलीं. एयरलाइंस को ऑपरेटिंग कॉरिडोर बदलने पड़े. यात्रियों को काभी देरी और घाटे का सामना करना पड़ा. यानी एक ज्वालामुखी विस्फोट, जो भारत से हजारों किलोमीटर दूर हुआ, उसने भारतीय हवाई यात्रा को प्रभावित कर दिया.
यही वजह है कि यह घटना केवल एक ऑपरेशनल समस्या नहीं मानी जा रही. इसे भारत की एविएशन सुरक्षा, आपदा प्रबंधन और बदलती जलवायु की नई चुनौती के रूप में देखा जा रहा है.
ज्वालामुखीय राख एक विमान में कैसी गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं?
ज्वालामुखी की राख सिर्फ धूल नहीं होती. इसमें ग्लास पार्टिकल्स, कठोर पथरीले माइक्रो-कण, सिलिका और खनिजों का मिश्रण होता है. यह राख हवाई जहाजों के इंजनों के लिए बेहद खतरनाक होती है.
जब राख हवाई जहाज के इंजन में संपर्क में आती है तो यह पिघलकर ग्लास बन जाती है और इंजन को जाम कर देती है. इंजन स्टॉल हो सकता है. टेक ऑफ और लैंडिंग के वक्त ऐसा होने पर इंजन को दोबारा स्टार्ट करना मुमकिन नहीं होता है, ऐसे में दुर्घटना की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. साथ ही यह राख विंडशील्ड को घिस देती है, इसकी वजह से हवाई जहाज की विंडशील्ड से बाहर देखना मुमकिन नहीं होता है. राख की वजह से नेविगेशन और सेंसर सिस्टम खराब हो सकते हैं.
पिछली बार कब हुआ था ऐसा?
1982 में मलेशिया से ऑस्ट्रेलिया जा रहा एक विमान ज्वालामुखी की राख के बीच फंस गया था, तब उसके सभी इंजन बंद हो गए थे. हालांकि जब विमान 1,300 मीटर से गिरकर 3,650 मीटर तक आया तो पायलट ने इंजन दोबार स्टार्ट कर लिया और विमान को जकार्ता में सुकुशल उतार लिया गया. वहीं, 2010 में आइसलैंड में एक ज्वालामुखी फटने के बाद करीब दो हफ्ते तक यूरोप में हवाई यात्रा पूरी तरह रुक गई थी. ऐसी कुछ घटनाएं जरूर हुई हैं पर अब तक ज्वालामुखी की राख की वजह से कोई विमान दुर्घटना, किसी यात्री की मौत या गंभीर चोट के मामले नहीं दर्ज हुए हैं.
अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन (आईसीएओ) की सलाह है कि किसी भी एयरलाइंस को ज्वालामुखी के राख वाले क्षेत्र से उड़ान नहीं भरनी चाहिए.
राख भारत तक कैसे पहुंची? ‘एटमॉस्फेरिक ट्रांसपोर्ट' का पूरा विज्ञान
ज्वालामुखी विस्फोट में निकली राख 20–30 किलोमीटर तक ऊपर जा सकती है. यह ‘जेट स्ट्रीम' में फंसकर हजारों किलोमीटर तक पहुंच सकती सकती है. ‘जेट स्ट्रीम' वायुमंडल में 11 से 13 किलोमीटर की ऊंचाई पर पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली एक तेज हवा की पट्टी है.
भारत के ऊपर वायुमंडल में कई बार विंड पैटर्न ऐसे बनते हैं जहां पश्चिम से पूर्व, दक्षिण से उत्तर, उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम में हवा की दिशा अचानक बदल जाती है. बीते हफ्ते यही हुआ, जिससे इथियोपिया के ज्वालामुखी से निकली राख का एक हिस्सा भारतीय हवाई मार्ग के बगल से होता हुआ गुजरा.
यह घटना साबित करती है कि जलवायु परिवर्तन ने हवा के पैटर्न अनिश्चित बना दिए हैं. पहले ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का होती थीं, जो अब बढ़ने लगी हैं.
भारत के एविएशन सेक्टर पर इसका कैसा आर्थिक असर?
इसकी वजह से फ्लाइट डायवर्जन करना पड़ता है और उसकी वजह से प्रत्येक उड़ान में अथिक ईंधन खर्च होता है. फ्लाइट्स को लंबा मार्ग ले जाना पड़ता है.नतीजा स्पष्ट है, ईंधन की लागत बढ़ती है लिहाजा एयरलाइंस का खर्च बढ़ जाता है. बता दें कि एक आंकड़े के मुताबिक हर अंतरराष्ट्रीय फ्लाइट के डायवर्जन में कम से कम 10 से 25 लाख रुपये तक खर्च आते हैं. साथ ही यात्रियों को सफर में अधिक समय लगता है.
एयर ट्रैफिक कंट्रोल पर दबाव बढ़ा
भारत को जब अपने अंतरराष्ट्रीय विमानों के रूट बदलने पड़े तो उसे यूरोप, सिंगापुर, दुबई और ऑस्ट्रेलिया से लगातार संवाद करना पड़ा. इसे ‘कोऑर्डिनेटेड एयरस्पेस रिस्पॉन्स' कहा जाता है. भारत ने इसे बेहतर तरीके से संभाला, लेकिन यह स्थिति चेतावनी है कि हमारा एयरस्पेस जलवायु-जनित जोखिमों के प्रति संवेदनशील है.
यात्रियों का कड़वा अनुभव
साथ ही इससे हुई परेशानी की वजह से यात्रियों का अनुभव भी खराब रहा. उनकी कनेक्टिंग फ्लाइट छूट गई. तो उड़ानों में हुई देरी की वजह से एयरपोर्ट पर उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा. जो लोग पूरी प्लानिंग के साथ आगे की यात्रा करने वाले थे उनकी योजना चौपट हो गई. साथ ही रिफंड को लेकर भी विवाद हुआ.
भारत की एयरलाइन अर्थव्यवस्था पर असर
बता दें कि एविएशन इंडस्ट्री पहले ही आईटी समस्याओं, भीड़ और मौसम से जूझ रही है. भारत की सभी बड़ी एयरलाइंस, जैसे- इंडिगो, एयर इंडिया, विस्तारा, आकाश आदि लंबी दूरी की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर निर्भर हो चुकी हैं. इस घटना ने इन कंपनियों की लागत बढ़ा दी इससे इन्हें प्रतिस्पर्धात्मक नुकसान भी हुआ.
क्या ऐसी घटनाएं अब बढ़ेंगी?
जानकार दुनिया में ‘क्लाइमेट चेन रिएक्शन' की बात कर रहे हैं. इसका मतलब है कि दुनिया के एक हिस्से में मौसम की या किसी भूगर्भीय घटना का अप्रत्याशित असर किसी अन्य दूर-दराज के हिस्से पर भी पड़ सकता है. जैसा कि इथियोपिया की ज्वालामुखी विस्फोट मामले में हुआ.
वो अहम वजहें जो ऐसी घटनाओं को बढ़ा रहे हैं-
दरअसल जलवायु परिवर्तन से ज्वालामुखियों का व्यवहार बदल रहा है. हाल के शोध बताते हैं कि बड़ी मात्रा में ग्लेशियर के पिघलने से कई ज्वालामुखी अस्थिर हो रहे हैं. पृथ्वी के तल पर दबाव बदल रहा है. संभावना यह भी जताई गई है कि आने वाले दिनों में ऐसी घटनाएं बढ़ेंगी.
1960–1990 की तुलना में जेट स्ट्रीम अब ज्यादा टेढ़ी, अनिश्चित और तेज गति से बहती है. ऐसे में राख के कण दूर दराज के इलाके तक पहुंच सकते हैं.
इतना ही नहीं, अब हवाई ट्रैफिक घनत्व भी बहुत बढ़ चुका है. भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा एविएशन बाजार बनने जा रहा है घनी उड़ानों में एक बाधा पूरे सेक्टर को प्रभावित करती है.
भारत को क्या करना चाहिए?
भारत को VAAC (Volcanic Ash Advisory Centre) सिस्टम को और मजबूत रूप में जोड़ना चाहिए ताकि अलर्ट पहले मिले. साथ ही भारत को Ash Avoidance Corridors भी बनाना चाहिए ताकि ऐसी परिस्थितियों में यात्राएं अबाधित चल सकें. यूरोप ने 2010 में (आइसलैंड वाली घटना के बाद) इस सिस्टम को लागू किया था.
इतना ही नहीं भारत को अपने हवाई रूट्स के लिए वैकल्पिक मार्गों की व्यवस्था भी करनी होगी. इसके अलावा ऐसी किसी भी परिस्थिति में फ्लाइट को रीरूट करने की व्यवस्था को और सुदृढ़ बनाना होगा. इसके अलावा पायलटों को इंजन मैनेजमेंट को लेकर खास ट्रेनिंग देनी होगी.
हमारे अधिकांश एयरपोर्ट मौसम/राख/धुंध से निपटने के लिए उतने तैयार नहीं हैं. डिजिटल डिस्प्ले, यात्री सूचना प्रणाली, हवाई मार्ग मॉनिटरिंग मजबूत करने की जरूरत है. इसका फायदा कुहरे या कुहासे के वक्त भी विमान सेवाओं को मिलेगा.
कुल मिलाकर भारत को अपनी एविएशन नीति, सुरक्षा ढांचा और तकनीकी तैयारी को बड़े स्तर पर सुधारना होगा. फिलहाल यह समस्या छोटी दिख सकती है पर भविष्य में यह एयरलाइन उद्योग के लिए सबसे बड़ा जोखिम बन सकती है.
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