- 1990 के दशक में कांग्रेस ने कई उतार-चढ़ाव देखे, राजीव गांधी की हत्या से पार्टी में अस्थिरता बढ़ी.
- सोनिया गांधी और सीताराम केसरी के बीच खराब रिश्ते और पार्टी में अंदरूनी संघर्ष गहरे हुए.
- 1998 में कांग्रेस कार्य समिति ने केसरी को जबरन इस्तीफा दिलाया और सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया.
90 का दशक. कांग्रेस के लिए अनिश्चिताओं के दौर का दशक. इस अवधि में कांग्रेस ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे. 1989 में मिली हार के बाद कांग्रेस राजीव गांधी के लीडरशिप में वापसी के लिए संघर्ष कर रही थी, लेकिन कांग्रेस के लिए 1991 मे वह दुखद घड़ी आई जब कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की प्रचार के दौरान लिट्टे ने हत्या कर दी.
इसके बाद कांग्रेस में उथल-पुथल मच गई. राजीव गांधी के वफादारों ने सोनिया गांधी पर पार्टी में शामिल होने और नेतृत्व करने का भारी दबाव बनाया. उन्होंने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और राजनीति में आने से इनकार कर दिया. दरअसल, उस समय उनके बच्चे बहुत छोटे थे. 1991 के चुनाव में एक तरह से कांग्रेस की वापसी हुई और अल्पमत वाली कांग्रेस सरकार सत्ता में आई. बहुत समय के बाद गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति पीवी नरसिम्हा राव राव प्रधानमंत्री बने. अगले साल राव कांग्रेस अध्यक्ष बने. वह नेहरू-गांधी परिवार के बाहर प्रधानमंत्री के रूप में पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले व्यक्ति बने. 1996 के लोकसभा चुनावों में सोनिया ने कांग्रेस के लिए प्रचार नहीं किया. राव को वोट नहीं मिले और उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया. यह वह दौर था जब सीताराम केसरी का पूर्ण रूप से उदय हुआ और बाद में पार्टी के अध्यक्ष बने.
सीताराम केसरी का सफर

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समय से ही सीताराम केसरी कांग्रेस में सक्रिय थे. बिहार में कांग्रेस के युवा चेहरे में इनका खूब नाम था. आजादी की लड़ाई के दौरान केसरी कई बार जेल भी गए. 1973 में वह बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और सात साल बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष बने और इस पद पर लंबे समय तक रहे. केसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और राव के कार्यकाल में मंत्री भी रहे. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में केसरी ने मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे यूपी-बिहार के पिछड़ी जाति के नेताओं के साथ अपनी निकटता से भी परहेज नहीं किया. हालांकि इससे कई कांग्रेस नेता केसरी से नाराज भी रहते थे.
सोनिया गांधी और केसरी के रिश्ते

यह बात भी सही है कि केसरी और सोनिया गांधी के रिश्ते अच्छे नहीं थे. इन दोनों में खराब रिश्ते को और खराब करने में गांधी परिवार के समर्थकों का भी बड़ा हाथ था, जो हर दिन कुछ न कुछ उनके विरुद्ध शिकायतों का पुलिंदा लेकर सोनिया गांधी के कान भरने पहुंच जाते. सीताराम केसरी भी अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति थे और उनके मन में भी प्रधानमंत्री बनने की लालसा थी. उधर सोनिया गांधी के वफादार चाहते थे कि सोनिया पार्टी की अध्यक्ष बनें. जितेंद्र प्रसाद, के करुणाकरन, शरद पवार, अर्जुन सिंह और कांग्रेस वर्किंग समिति के लगभग सभी सदस्य केसरी से निजात पाना चाहते थे और उन्हें हटाने में इन सभी की भागीदारी रही. हालात और ख़राब हो गए, जब कुछ पूर्व सांसदों ने आग में घी डालने का काम किया. उन्होंने सोनिया के सहयोगी विंसेट जॉर्ज को ये जानकारी पहुंचानी शुरू कर दी कि केसरी, सोनिया और उनके विश्वासपात्र नेताओं के ख़िलाफ़ क्या-क्या बोल रहे हैं.ऐसा कहा जाता है कि जब भी केसरी आवास से प्रधानमंत्री के काफिले गुजरते उनके मन में भी प्रधानमंत्री बनने की हसरतें जाग जातीं.
बर्खास्तगी और फिर किया गया अपमानित
1998 लोकसभा चुनाव कांग्रेस सीताराम केसरी के अध्यक्षता में लड़ी, पर पार्टी को हार मिली. 1998 के आम चुनाव में शायद ऐसा पहली बार हुआ कि पार्टी अध्यक्ष को चुनाव प्रचार से दूर रखा गया. अध्यक्ष के बदले सोनिया गांधी ने प्रचार किया था. लोकसभा चुनाव में पार्टी के हार के बाद लिखी इबारत को भांपते हुए सीताराम केसरी ने 9 मार्च, 1998 को इस्तीफा दे दिया. हालांकि उन्होंने तुरंत यू-टर्न लिया और इसे वापस ले लिया. उन्होंने एआईसीसी के खुले सत्र में और अपनी पसंद के दिन इस पद को छोड़ने का फैसला किया. लेकिन,14 मार्च 1998 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक 24,अकबर रोड पर हुई, जिसमें केसरी भी शामिल हुए. वह इस बात से अनभिज्ञ थे कि पहले ही उनकी पीठ में छुरा घोंपा जा चुका है.

कोई कैसे भूल सकता है वह 14 मार्च 1998 की सुबह काफ़ी गुलाबी ठंडक वाली सुहावनी सुबह. न ज़्यादा गर्मी, न ज़्यादा ठंड. लेकिन दिल्ली के 24, अकबर रोड स्थित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) मुख्यालय में मौजूद लोगों में साफ़ गर्मी का एहसास हो रहा था. जब पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी कांग्रेस कार्य समिति (CWC) की बैठक में दाखिल हुए तो वहां के माहौल से उन्हें लगा कि सबकुछ सामान्य नहीं है. उस समय वे पार्टी के अध्यक्ष थे पर मुश्किल से ही कोई उनका स्वागत करने के लिए खड़ा हुआ. बैठक में सिर्फ तारिक अनवर ही उनका अभिवादन करने के लिए खड़े हुए.
जब केसरी को बंद कर दिया गया था

सोनिया गांधी के समर्थकों की टोली ने पहले प्रणब मुखर्जी के आवास पर एक बैठक की थी. उन्होंने दो प्रस्तावों को पेश करने का फैसला किया था. पहला सीताराम केसरी को हटाने का और दूसरा सोनिया गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का. अधिवेशन में प्रणब मुखर्जी ने पार्टी के लिए केसरी की सेवा के लिए उन्हें धन्यवाद दिया. मुखर्जी के धन्यवाद देते ही केसरी बैठक से बाहर चले गए. हालांकि, तारिक अनवर ने उनके कमरे तक उनका पीछा किया और बाद में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नेताओं के एक समूह ने उन्हें मनाने का प्रयास भी किया, लेकिन उन्होंने वापस आने से इनकार कर दिया. यह भी कहा जाता है कि केसरी ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था. इसके बाद उस कमरे को खुलवाकर केसरी से जबरन इस्तीफा वाले कागज पर हस्ताक्षर कराया गया था. हालांकि, कुछ लोगों का मानना है केसरी को कुछ सोनिया समर्थकों ने जबरदस्ती बंद कर के रखा ताकि कोई व्यवधान न हो. कांग्रेस के इतिहास में शायद पहली बार ऐसी परिस्थिति बनी, जहां अपने ही अध्यक्ष को एक तरह से CWC ने बर्खास्त कर दिया.
धोती खींचने की कोशिश
सोनिया गांधी कांग्रेस मुख्यालय पहुंचीं. जब सीताराम केसरी जाने के लिए अपनी कार में बैठ रहे थे, तो यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने उनकी धोती खींचने की भी कोशिश की. जब तक वे 24 अकबर रोड से बाहर निकले उनकी नेम प्लेट को फाड़कर कूड़ेदान में फेंक दिया गया था. उसकी जगह एक नया प्रिंट आउट लगा दिया गया, जिस पर लिखा था: 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी. यही कारण है कि खासकर भाजपा और अन्य विरोधी पार्टी समय-समय पर सीताराम केसरी के अपमान को दलितों-पिछड़ों का अपमान बताकर चुनाव के समय गांधी परिवार को घेरती हैं.
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