
- उत्तरकाशी जिले के धराली में पांच अगस्त को आए सैलाब में सात लोग मरे और पैंसठ लोग अभी भी लापता हैं.
- वैज्ञानिक नवीन जुयाल और हेमंत ध्यानी ने पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचना लागू करने की मांग की है.
- उन्होंने हिमालय की जैव विविधता संरक्षण के लिए लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक क्षेत्र विस्तार की सलाह दी है.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली में पांच अगस्त को आया सैलाब सबकुछ बहा ले गया था. इस हादसे में सात लोगों की मौत हो गई थी. इस हादसे के बाद से 65 लोग अभी भी लापता हैं. जिनकी तलाश में सेना और अर्धसैनिक बल के जवान लगे हुए हैं. इस हादसे के बाद दो वैज्ञानिकों ने हादसे के कारणों की पड़ताल की.इन वैज्ञानिकों ने भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (बीईएसजेड) अधिसूचना को लागू करने की मांग की है. उनका कहना है कि हिमालय की अमूल्य जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र का विस्तार लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक पूरे ऊपरी हिमालयी घाटियों तक किया जाना चाहिए.
किन लोगों ने किया है अध्ययन
इस अध्ययन को किया नवीन जुयाल और हेमंत ध्यानी ने. ये दोनों वैज्ञानिक 2013 में उत्तराखंड में ही हुए केदारनाथ हादसे के बाद सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमेटी के सदस्य थे. इसके अलावा वो 2019 में चारधाम की सड़क को चौड़ा करने की परियोजना पर बनाई गई उच्चाधिकार प्राप्त समिति के भी सदस्य थे.
उन्होंने धाराली हादसे के संदर्भ में कहा है कि हाल के सालों में ऊपरी गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में पर्यटकों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. इन पर्यटकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी नियमों को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर नए निर्माण कार्य हुए हैं.इन वैज्ञानिकों ने चारधाम यात्रा पूरे साल कराए जाने की योजना की भी आलोचना की है.

धराली के पास बहने वाले खीर गंगा में पांच अगस्त को अचानक आए पानी ने वहां बड़े पैमाने पर तबाही मचाई थी.
कितनी दूर तक बहती है खीर गंगा
उनका कहना है कि धाराली में बहने वाली खीर गंगा एक ग्लेशियर से निकलती है और करीब सात किमी चलने के बाद कल्प केदार मंदिर के पास भगीरथी नदी में मिलती है. जून 2013 की केदारनाथ आपदा के दौरान भी खीर गंगा द्वारा जुटाए गए तलछट के कारण धाराली को काफी नुकसान हुआ था. उनका कहना है कि केदारनाथ आपदा के बाद भी लोगों को नदी के आसपास के इलाकों को खाली करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया गया, बल्कि बाढ़ के मलबे को बस्ती में घुसने से रोकने के लिए कंक्रीट की एक दीवार बना दी गई. इसने लोगों को धारा के पास रिसॉर्ट्स और होटल बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. उनका कहना है कि नदी के बिल्कुल पास होने के बाद भी धराली को अभी तक बाढ़ क्षेत्र नहीं घोषित किया गया. इस वजह से लोग खुलेआम नदियों और उनकी सहायक नदियों के बाढ़ क्षेत्रों पर निर्माण कर रहे हैं.
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि पांच अगस्त को नदी के आसपास की अधिकांश बस्ती 15 से 20 मीटर मोटी भूस्खलन और हिमनदीय मलबे के नीचे दब गई. यह केवल सात किमी लंबी खीर गंगा नदी थी. उनका कहना है कि विशेषज्ञों ने कई बार इसे खतरे के रूप में चिह्नित किया था, लेकिन किसी ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया.

पांच अगस्त को आए सैलाब से वहां मची तबाही के बाद अब कुछ ऐसा नजर आ रहा है धराली.
कैसे रोकी जा सकती हैं धराली जैसी आपदाएं
साल 2013 के केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि उच्च हिमालयी घाटियां भूस्खलन और मलबा प्रवाह प्रभुत्व वाली अचानक बाढ़ों की चपेट में आ सकती हैं. इस समिति ने सिफारिश की थी कि उच्च हिमालयी घाटियों में भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (बीईएसजेड) जैसे पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों का चिह्नांकन किया जाना चाहिए. इससे उच्च हिमालयी घाटियों में मानवजनित हस्तक्षेप को न्यूनतम किया जा सकेगा.समिति ने सुझाव दिया था कि नदियों को मानवजनित अतिक्रमण और जलबिजली बैराज से मुक्त रखा जाना चाहिए ताकि बाढ़ के दौरान नदी बिना किसी रुकावट के बह सके.उनका कहना है कि इन सिफारिशों को गंभीरता से नहीं लिया गया. इसके बजाय निर्माण सामग्री, लकड़ी या जमीन का अत्यधिक दोहन किया गया.इससे हिमालयी पर्यावरण पर अत्यधिक बोझ डालना निर्बाध रूप से जारी रहा.
इन दोनों वैज्ञानिकों ने कहा है कि भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (बीईएसजेड) अधिसूचना को लागू किया जाए. उनका कहना है कि हिमालय की अमूल्य जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र का विस्तार लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक पूरे ऊपरी हिमालयी घाटियों तक किया जाना चाहिए. इससे जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय पर मंडराने वाले आपदा जोखिम को कम करने में मदद मिलेगी.
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