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This Article is From Sep 14, 2022

रवीश कुमार का प्राइम टाइम : असली मुद्दों से भटके, अब कपड़ों पर अटके...

Ravish Kumar
  • देश,
  • Updated:
    अक्टूबर 06, 2022 13:28 pm IST
    • Published On सितंबर 14, 2022 04:00 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 06, 2022 13:28 pm IST

भारत टी-शर्ट के बाद निक्कर चर्चा में प्रवेश कर चुका है, थोड़ा इंतज़ार कर लीजिए, अंडर वेयर की भी बारी आएगी? यह समय कपड़ा उद्योग के लिए बहुत अच्छा है, वे अपने गंजी बनियान लेकर राजनीतिक दलों की प्रेस कॉन्फ्रेंस के पीछे खड़े हो जाएं ताकि साथ-साथ विज्ञापन भी होता रहे. टी शर्ट विदेशी ब्रांड का था इसलिए वेबसाइट से उसकी कीमत की तस्वीर निकल गई, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे देश के बड़े नेता, मंत्री कुर्ते के ऊपर जो रंगीन जैकेट पहनते हैं, दिन में तीन बार पहनते हैं, उसका कपड़ा कितना महंगा होता है, उसकी कीमत क्या होती होगी? 

मैं इस तरह के जैकेट की बात कर रहा हूं जिसे आप सदरी कहते हैं, बंडी कहते हैं, जवाहर जैकेट कहते हैं. कई लोगों से बात करने पर पता चला कि नेताओं की जैकेट का कपड़ा आम तौर पर 15 से 20 हज़ार मीटर का होता है. डेढ़ मीटर कपड़े में एक जैकेट बन जाता है. इसकी सिलाई का खर्चा भी जोड़ लीजिए तो हैसियत और शौक के हिसाब से कई सारे नेताओं के जैकेट पचास-पचास हज़ार रुपये की होती है. जब 14000 रुपये की एक टी शर्ट की चर्चा हो रही है तब 30 हज़ार और 50 हज़ार रुपये के जैकेट की चर्चा भी हो सकती थी ताकि लोगों का भरम टूट जाता और समझ जाते कि आम चलन में दिखने वाला यह जैकेट कोई हज़ार दो हज़ार का नहीं है. हम इसे व्यक्तिगत मामला नहीं बनाना चाहते मगर नेता लोग जानते हैं कि पचास से लेकर एक लाख रुपये का जैकेट कौन पहनता है. यही नहीं उनका कुर्ता भी 10 से 15 हज़ार रुपये मीटर होता है. चर्चा इस पर होनी चाहिए, तो चर्चा हो रही टी शर्ट और चड्ढी पर. अगली बार मंत्री जी एयरपोर्ट पर मिलें तो उनके जैकट का दाम पूछ लीजिएगा. केवल वही सूट महंगा नहीं होता है जिसके धागे पर नमो नमो लिखा होता है. यहां लोगों की जेब जल रही है और हंगामा है कि चड्डी जल रही है. 

उत्तर भारत का राजनीतिक वर्ग जो कपड़े पहनता है, जो जैकेट पहनता है, उसका अपना एक अर्थशास्त्र है. वह काफी बड़ा बाज़ार है. बाकी आप अच्छा करते हैं कि इन सब चीज़ों को नहीं देखते. 15 लाख नौजवान 12 वीं की परीक्षा पास कर ढाई महीने से प्रथम वर्ष की पढ़ाई शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं. इस बार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक राष्ट्रीय परीक्षा से प्रवेश की प्रक्रिया शुरू हुई है. उस इम्तिहान की ऐसी क्या तैयारी थी, कि अभी तक उसकी प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है. साधारण सी बात थी कि जब तैयारी नहीं थी तो अगले साल से हो जाती, लेकिन इस साल गाजे बाजे के साथ शुरू कर दिया गया कि एक देश एक परीक्षा लागू हो रही है. 

दिल्ली विश्वविद्याल ने सोमवार को एक पोर्टल लांच किया है. जो लोग सीयूईटी (CUET) की परीक्षा में पास करेंगे, अब उन्हें इस पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराना होगा. CUET के लिए 600 रुपये की फीस दे चुके हैं, अगर डीयू के इस पोर्टल के लिए 250 रुपयो की फीस देनी होगी. जिस परीक्षा के रिज़ल्ट का पता नहीं, उसके नाम पर 800 से 1000 रुपये निकालने का इंतज़ाम हो चुका है. क्या सभी यूनिवर्सिटी इस तरह के पोर्टल लांच करने जा रही हैं, पता नहीं. अब पता करने का काम आप भी किया करें. इम्तिहान देने के बाद अब यहां रजिस्ट्रेशन कराएंगे. ये तब करेंगे जब रिज़ल्ट आ जाएगा. अभी रिजल्ट आया नहीं है. यहां पर आप अपने कालेज और विषय की वरीयता भरेंगे. मान लीजिए कि कहीं कोई सीट खाली है और वो आपने नहीं भरी है तब आप उस सीट के लिए 1000 रुपये देकर भर सकते हैं. यह सिस्टम नोटबंदी की याद दिला रहा है. अगर जनता को लाइन में खड़ा कर दो तो उसे लगता है कि बहुत ज़रूरी काम के लिए लाइन में खड़ा कर दिया गया है, उसी तरह अगर एडमिशन न हो, उसके पहले ये फार्म, वो फार्म भरने में लगा दो तो छात्रों को लगेगा कि एक का इंतज़ार खत्म हुआ, दूसरे का शुरू हुआ है. क्या ये योजना अगले साल लागू नहीं हो सकती थी, जब तैयारी नहीं थी. छात्र इस वेबसाइट को ध्यान से भरें, गलती होने पर नुकसान हो सकता है.

भारत एक निम्न मध्यमवर्गीय देश है, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की रिपोर्ट में इसे लोअर मिडिल क्लास देश कहा गया है. इस देश के युवाओं से परीक्षा के नाम पर पैसे लेने के तीन-तीन चरण हैं. इस पर कोई बहस नहीं होगी क्योंकि देश चड्डी और टी शर्ट में उलझा है. आपने एक परीक्षा की फीस दी है, पास कर ली है और कोई सीट खाली है, उस पर दावा करने के लिए फिर से फीस, वो भी परीक्षा की फीस से ज्यादा देनी पड़े, उस पर क्यों नहीं बहस है? 

जिस देश में नेता आम तौर पर पंद्रह से पचास हज़ार और कभी-कभी एक लाख की जैकेट पहनते हैं, बीस-बीस हज़ार का कुर्ता पहनते हैं, उस पर चर्चा न होकर टी शर्ट के दाम पर चर्चा होती है. इससे 15 लाख युवाओं और उनका परिवार इस बात से अपना ध्यान हटा पाता है कि चार महीने खाली चले गए, एक रत्ती पढ़ाई नहीं हुई. लेकिन आप कहते रहिए कि विश्व गुरू बन गए हैं. इसका कोई टेस्ट तो होता नहीं कि पकड़े जाएंगे. अभी हम सबको मिलकर टीवी डिबेट को मोज़े तक ले आना है, रुमाल तक लाना है. किसी में साहस नहीं है कि मेक इन इंडिया में कही गई बातों का हिसाब पूछे. सब असली सवाल पूछने से बचने के लिए नकली सवाल पैदा कर रहे हैं. गोदी मीडिया के सिस्टम के जरिए देश के सामने मुद्दों का पहाड़ खड़ा कर दिया गया है, जबकि सरकार अपनी तरफ से बोल रही है कि ये एक लोअर मिडिल क्लास देश है. लेकिन इसके सरकारी कार्यक्रमों का खर्चा देखिए तो हर कार्यक्रम पिछले से ज्यादा महंगा, आलीशान, भव्य नजर आता है. 

विवेक देबरॉय, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के चेयरमैन हैं. इनका बयान 9  सितंबर के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में छपा है कि उन्हें निजी तौर पर हैरानी होगी कि अगर अगले पांच साल में भारत की अर्थव्यवस्था 6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ती है. अनुमानों में कमी तो RBI ने भी की है. इस वित्त वर्ष के लिए RBI ने कहा था कि विकास दर 7.8 प्रतिशत रहेगी, बाद में उसे घटाकर 7.2 प्रतिशत कर दिया. विवेक देबराय तो 6.5 प्रतिशत की बात अगले पांच साल के लिए कह रहे हैं. फाइनेंशिलय एक्सप्रेस में विवेक देबराय राज्यों को कसूरवार बता रहे हैं, बहुत चालाकी से इस बात को रख रहे हैं कि अगर आप राज्यों की हालत देखें तो नहीं लगता कि 6.5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत की दिशा में विकास दर होगी. इनके अनुमानों की गाड़ी 6.5 प्रतिशत के प्लेटफार्म पर रुक जाती है. लगता है राज्यों की रेवड़ी की तरफ इसीलिए फोकस किया गया है ताकि पदयात्रा पर निकली अर्थव्यवस्था के लिए कोई केंद्र की तरफ न देखें. यही विवेक देबराय हैं जिन्होंने 30 अगस्त 2022 को कहा कि अगर 25 साल तक भारत की अर्थव्यवस्था 7 से 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ती है तो 2047 तक अर्थव्यवस्था का आकार 20 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा. 9 दिन बाद बोल रहे हैं कि अगले पांच साल में 6.5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो जाए तो बड़ी बात होगी. 

क्या भारत की अर्थव्यवस्था पदयात्रा पर निकल चुकी है? इसे लेकर जितने भी हवाई सपने दिखाए गए वो कहां हैं? 2014 में 'शेर' इतना छाया हुआ था कि मेक इन इंडिया के लिए शेर को ही प्रतीक चिन्ह बनाया गया. उसके बाद 2016 में मुंबई में इसका एक और भव्य आयोजन हुआ था. इन आयोजनों की भव्यता और उस पर खर्च होने वाले पैसे की परवाह न तब थी न अब है.  2014 में लोगों की आंखें फटी रह गईं होंगी कि अब कुछ हो रहा है, इतना बड़ा आयोजन है तो ज़रूर कुछ होगा. आठ साल बाद रिज़ल्ट तो पूछ ही सकते हैं कि उसका क्या हुआ. ये जो शेर बनाया गया था, कल-पुर्ज़ों वाला, इसमें कभी जान आई भी या नहीं. मैन्यूफैक्चरिंग में भारत शेर बनना था, क्या बना? क्या आप जानते हैं कि भारत सरकार ने तय किया था कि 2022 तक जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत तक हो जाएगी. 2022 आ गया है, यह कितने प्रतिशत पर पहुंची है? उस समय इस आलीशान कार्यक्रम में दावा किया गया था कि 10 करोड़ नई नौकरियां पैदा की जाएंगी, हो गईं? किसे मिली हैं? पिछले साल अगस्त की तुलना में इस अगस्त में निर्यात में डेढ़ प्रतिशत की कमी आ गई है. जबकि इसी दौरान आयात में 36.8 प्रतिशथ की वृद्धि हो गई है. अप्रैल से लेकर अगस्त के बीच भारत ने 192.6 बिलियन डॉलर का निर्यात किया है जबकि 317.8 बिलियन डालर का आयात किया है. एक साल में व्यापार घाटा ढाई गुना बढ़ गया है जो अच्छा नहीं माना जाता है. मेक इन इंडिया के परिणामों की समीक्षा तो हुई नहीं, 2020 में आत्म निर्भर अभियान ले आया गया. इसके दो साल बीत गए हैं, दो साल और बीत जाएंगे तो कहीं आत्म त्याग अभियान न लांच हो जाए कि बनाने बेचने की ज़रूरत क्या है, त्याग करें. हम मेक इन इंडिया से आत्म निर्भर तक आ गए, पर्दे बदलते रहे मगर घर की हालत ठीक नहीं हुई. 

प्रधानमंत्री का यह भाषण सितंबर 2014 का है - ''भारत की 65% आबादी 35 से कम उम्र की है. यह युवा ऊर्जा हमारी सबसे बड़ी मित्र है. हमने अपने युवाओं के लिए रोजगार और स्वरोजगार पैदा करने के लिए मेक इन इंडिया अभियान शुरू किया. मेक इन इंडिया को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के लिए हम आक्रामक तरीके से काम कर रहे हैं. हम चाहते हैं कि हमारी जीडीपी में विनिर्माण का हिस्सा निकट भविष्य में 25% तक हो.''

आज तक मेक इन इंडिया मैन्यूफैक्चरिंग को जीडीपी के 25 प्रतिशत तक नहीं पहुंचा सका. टारगेट बड़ा करो ताकि हेडलाइन बड़ी छपे और हिन्दी अखबार उससे भी बड़ी साइज़ में छाप दें ताकि गांव में पढ़कर आदमी सपनों में खो जाए. दस करोड़ रोज़गार देने का ऐलान हुआ था, उम्मीद है सबको मिल गया होगा. मीडिया में जो डेटा से लगता है कि मेक इन इंडिया का शेर जवान 25 प्रतिशत के टारगेट तक पहुंच नहीं पा रहा है, उससे बहुत दूर हांफने लगा है. शेर को छोड़ चीता का रोमांच गोदी मीडिया पर छाने वाला है. जल्दी ही आप चीता क्या खाता है,चीता कब सोता है, किस बाइक से तेज़ दौड़ता है, इस पर घंटों कार्यक्रम देखने वाले हैं. यह चीता 2010 में भी आने वाला था, तब जयराम रमेश ने कहा था कि तीन साल में चीता आने वाला है, मगर 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी, फिर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने चीता को भारत लाने की इजाज़त दे दी. उम्मीद है चीता के आने से पहले उसका वीडियो आ जाएगा वर्ना चैनलों पर ज़ेबरा दौड़ा कर चीता की कहानी बताने में मज़ा नहीं आएगा. इस देश में अब हालात नहीं बदलते हैं, हेडलाइन बदल दी जाती है.

उमर ख़ालिद, इस प्रतिभाशाली छात्र का जीवन जेल के अंधेरे कमरों में बंद कर दिया गया है, दो साल से ज़मानत का इंतज़ार कर रहे उमर ने रोहित कुमार को पत्र लिखा है कि जेल में शाम होती है तब कुछ कैदियों के लिए उजाला होता है, जब रिहाई पर्चे से उनका नाम पुकारा जाता है. दो साल से उमर हर रात उस अनाउंसमेंट को सुन रहे हैं और उसमें अपना नाम खोजते रहते हैं. लाउडस्पीकर पर जैसे ही आवाज़ आती है, नाम नोट करें, इन बंदी भाइयों की रिहाई है, उमर को लगता है कि एक दिन उसका नाम भी पुकारा जाएगा. उमर ने लिखा है कि कितने ही कानून हैं जो ब्रिटिश राज की याद दिलाते हैं, लेकिन बातें हो रही हैं कि हम ब्रिटिश काल की निशानियों से मुक्त हो रहे हैं. क्या लोग नहीं देख पाते कि रॉलेट एक्ट और यूएपीए एक्ट में कोई अंतर नहीं है? हमारे जैसे कई लोग बिना ट्रायल के ही महीनों से जेल में बंद हैं. पता नहीं ट्रायल कब शुरू होगी. UAPA लगाकर हमें कई साल तक जेल में रखा जा सकता है, दोष साबित करने की ज़रूरत भी नहीं है. जेल में भी अधिकारी पूछते हैं कि उमर तुम्हें बेल क्यों नहीं मिल रही है. उमर ने लिखा है कि जेल में समाचार पत्र मिलते हैं. अंग्रेज़ी समाचार पत्रों में कुछ तो पत्रकारिता होती है लेकिन हिन्दी अखबारों में जब उसके बारे में कवर किया जाता है तो पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को धूल में उड़ा दिया जाता है. मेरी ज़मानत की सुनवाई की खास तरह से रिपोर्टिंग की जाती है. मेरे वकील के तर्कों को ठीक से नहीं रखा जाता है. जब सरकार के वकील कुछ कहते हैं तो वो पहले पन्ने की हेडलाइन होती है, जब मेरे वकील कहते हैं तो भीतर के पन्नों पर खबर छपती है. इस पत्र में उमर ने विस्तार से लिखा है कि कैसे हिन्दी के अखबारों ने उसके केस के बारे में गलत रिपोर्टिंग की है. 

उमर का यह पत्र 'द वायर' में छपा है. इसमें एक सवाल है कि झूठ की इस विशालकाय मशीन से हम कैसे लड़ें? इस सवाल का जवाब हाउसिंग सोसायटी वालों के व्हाट्सऐप ग्रुप में पूछना चाहिए. झूठ ही इस समय का सच है. गोदी मीडिया को अगर झूठ बोलने से रोका जाएगा जो उसके एंकर खुद ही रेत खाने लग जाएंगे. इसलिए उनके मानवाधिकार के लिए ज़रूरी है कि उन्हें झूठ बोलने दिया जाए. भारत में जल्दी ही एक केंद्रीय झूठ अधिकार आयोग बन जाएगा जो सच बोलने पर लोगों को सज़ा देगा. उसके बनने तक दूसरी संस्थाएं ऐसा काम करती रहेंगे. गोदी मीडिया के झूठ से लड़ना हर दिन मुश्किल होता जा रहा है. उमर की निराशा समझ आती है. आज प्रेस क्लब में उमर खालिद और अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई को लेकर एक प्रेस क्रांफ्रेंस हुई. इसमें पूर्व जस्टिस अंजना प्रकाश, बुकर पुरस्कार विजेता गीतांजली श्री, पत्रकार चिंकी सिन्हा शामिल हुई. FIR नंबर 59 में उमर खालिद, खालिद सैफी, गुलफिशां फातिमा, शिफा-उर-रहमान, शादाब अहमद, अतरह ख़ान,मीरन हैदर, शादाब ख़ान, शरजील इमाम की रिहाई की मांग को लेकर आज एक प्रेस कांफ्रेंस हुई. 

प्रेस कांफ्रेंस में कहा गया कि, ये बात बहुत स्पष्ट है कि उमर खालिद और अन्य  राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जाए. उन्हें स्वाभिमान से अपने देश में गुजर बसर करने दी जाए. आवाज उठाने की सजा सजा इतनी लम्बी कि जमानत तक नहीं मिली. दो साल से जिंदगी सलाखों के पीछे गुजर रही है, लेकिन बाहर उमर के साथ खड़े होने वालों की कमी नहीं है. उनकी मां की आंखों में आंसू नहीं रोष है. उन्होंने कहा कि, ''आज के नौजवानों से मैं यही कहना चाहती हूं कि वे अपने दिल से जालिमों का खौफ अगर निकाल देंगे तो उनके अंदर वो हिम्मत और ताकत आएगी जिससे वे इनसे लड़ने के लिए तैयार होंगे. उपन्यासकार गीतांजली श्री भी मंच पर थीं. चंद पंक्तियों के जरिए उन्होंने देश की दशा और उमर को लेकर अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया. ''उमर कानून के नाम पर दो साल से जेल में बंद है. अदालत कहती है कि वह इतने खतरनाक अपराधी हैं कि जमानत पर भी उन्हें रिहा नहीं किया जा सकता. पर अदालतों को उमर खालिद के मामले की सुनवाई करना और न्याय करना जरा भी जरूरी नहीं लगता. हमारा अफसोस और हमारी चिंता यह भी है कि उमर खालिद अकेले नहीं हैं. कानून के नाम पर हो रहे इस अन्याय का शिकार होने वालो ये देश हमारा है, ये समाज हमारा है, संविधान और कानून व्यवस्था हमारी है. ये बच्चे, ये बुजुर्ग हमारे हैं, प्रेम हमारा है, अधिकार हमारे हैं, जिम्मेदारी हमारी है. यहां नहीं बोलेंगे तो और कहां बोलेंगे? यहां नहीं पूछेंगे तो और कहां पूछेंगे?'' 

उमर के अलावा कई और लोगों के नाम हैं, जो जेल में बंद हैं. इनमें खालिद सैफी, गुलफिशा फातिमा, सिर्फ उर्रहमान, सादाब अहमद, अतहर खान, मिरान हैदर, शादाब खान, शरजील इमाम, तस्लीम सलीम, ताहिर हुसैन, शोएब आलम शामिल हैं. उमर के पिता कहते हैं कि जिस तरह उमर जरूरतमंदों और जरूरी मुद्दों को लेकर आवाज उठा रहे थे तो उन्हें एहसास था कि वह गिरफ्तार हो सकता है. लेकिन ये अंदाजा नहीं था कि यूएपीए जैसा गंभीर आरोप उस पर लगा दिया जाएगा जिसमें जमानत आसानी से नहीं मिलेगी. पिता का सवाल न्यायालय और न्याय प्रक्रिया पर भी है और उन तमाम लोगों के लिए जो इससे जुड़े मामलों को लेकर सलाखों के पीछे हैं. उमर को लेकर उच्च न्यायालय ने आदेश सुरक्षित कर रखा है. इस बीच इस प्रेस कांफ्रेंस में हर कोई यही कहता मिला कि सही मुद्दों के लिए आवाज उठाने वालों को क्या लोकतंत्र में ऐसे गलत तरीकों से दबाया जा सकता है? 

दिल्ली दंगों के केस की जनरल रिपोर्टिंग देखिए. अदालत ने कई मामलों में दिल्ली पुलिस की जांच पर ही कई बार गंभीर सवाल उठाए हैं. इन्हीं मामलों में से एक में नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ इक़बाल को ज़मानत मिल गई है. उन सभी पर UAPA की धाराएं लगाई गई थीं. जून 2021 में इन तीनों को ज़मानत मिली थी लेकिन उसके बाद भी कितना लंबा वक्त गुज़र गया. दिल्ली दंगों के मामले में कई लोगों पर UAPA की धाराएं लगी हैं, केवल इन्हीं तीनों को मेरिट के आधार पर ज़मानत दी गई है. मेरिट का मतलब यह हुआ कि ज़मानत देते वक्त हाई कोर्ट ने कहा कि भड़काऊ भाषण देना, चक्का जाम करना आतंकी कार्रवाई नहीं है. कोर्ट ने कहा था, हमें यह कहना पड़ रहा है कि ऐसा लगता है कि असहमति को कुचलने की बेचैनी में राज्य की सोच में प्रदर्शन करने के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच अंतर की रेखा धुंधली हो गई है. अगर इस तरह की सोच को और बढ़ावा मिला तो वह हमारे लोकतंत्र के लिए एक उदास दिन होगा. जस्टिस मृदुल और जस्टिस भंभानी के फैसले से उम्मीद जगी कि बाकियों को भी ज़मानत मिल सकती है मगर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस फैसले की समीक्षा की जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने नताशा, देवांगना और आसिफ की ज़मानत को रद्द तो नहीं किया मगर कहा कि ज़मानत के आदेश की समीक्षा होगी क्योंकि इसमें UAPA के प्रावधानों की समीक्षा की गई है. इस आदेश के बाद सुनवाई पूरी होने और फैसले का इंतज़ार है. तब सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कह दिया कि हाई कोर्ट के इस फैसले का इस्तेमाल नज़ीर के तौर पर नहीं किया जाएगा. 

ये मसला लोगों की स्वतंत्रता का है जो संविधान में उनको दी है और वह स्वतंत्रता जो खुद अभी मुख्य न्यायाधीश ने कही, कि जिसे भी अन्याय समझते हैं उसके खिलाफ अगर आवाज नहीं उठाएंगे तो सही कानून कैसे बनेंगे या कानून कैसे बदले जाएंगे? ठीक है, कम उम्र के लोग कर रहे थे, बाकी तमाम लोग कोई राज्य को उखाड़ फेंकने का युद्ध नहीं कर रहे थे. ये बात बहुत स्पष्ट है. ये कानून बनाया है. वह कानून गलत लगता है. हम उसका विरोध कर रहे हैं. इस काम को संवैधानिक अधिकार है या कोई आतंकवादी षड्यंत्र नहीं कर रहे थे तो मुख्य प्रश्न यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं जो एक जंजीर अपने पैर में बांधी है, या अदालतों के पैर में बांधी कि यूएपीए जिन पर भी लगा है, उनको आप जमानत नहीं दे सकते हैं. यह जंजीर भी सर्वोच्च न्यायालय को खुद खोलनी है, इस बात को वो अच्छी तरह से जानता है. अगर सिद्दीक कप्पन पर यूएपीए लग गया होता तो उनको जमानत मिलना मुश्किल होता. 

लंपी नाम की बीमारी से कितनी गायों की मौत हुई है, इसकी सरकारी संख्या कुछ है, मीडिया रिपोर्ट में कुछ और है. हिमांशु शेखर बता रहे हैं कि 13 राज्यों में यह बीमारी फैल गई है. किसानों की लाखों रुपये की गाएं मर गई हैं. सरकारी आंकड़ा है कि 75 हज़ार मवेशियों की मौते हुई हैं. 10 लाख से ज़्यादा मवेशी इसकी चपेट में हैं. 

लंपी के कहर की भयानक तस्वीर है. कई जगह तो लंपी पीड़ित गायों को खुले में फेंक दिया गया है. गड्ढा खोदा है लेकिन गायों को पूरी तरह से दफनाने का समय ही नहीं मिला है. बड़ी संख्या में गायों की मौत हो रही है. सीकर में फतेहपुर की पिंजरापोल गौशाला में सेवक लगातार गायों का इलाज कर रहे हैं. लेकिन जब से लंपी का कहर शुरू हुआ है सैकड़ों गाय इसकी चपेट में आ रही हैं. ये ऐसी बीमारी है जिससे पहले तो शरीर पर फुंसी होती है और फिर उसमें पानी पड़ने लगता है और फिर एक घाव बन जाता है. बेजुबान जानवरों की पीड़ा देखना मुश्किल हो जाता है. फतेहपुर की गौशाला में 700 गायों में से 190 लंपी पीड़ित हैं. यह बीमारी मच्छर, मक्खी और किलनी से फैलती है. मोहम्मद नदीम फतेहपुर नगरपालिका में वाहन चालक हैं. गायों को दफनाने का जिम्मा उन पर है. उनका कहना है कि जब से लंपी वाइरस है तब से हमें 10 से 14 घंटे काम करना पड़ रहा है. रोज 10 से 12 गायें मर जाती हैं. 

राजस्थान में 11 लाख से ज्यादा मवेशी लंपी पीड़ित हैं जिनमें से 51 हजार की मौत हो चुकी है. बीकानेर में हालत बहुत नाजुक है जहां दो हजार से ज्यादा गायों की मौत हो चुकी है. पशुपालन विभाग की टीमें लगातार इस रोग का मुकाबला कर रही हैं. कुछ लोग खुद भी अपने मवेशियों का इलाज कर रहे हैं. राजस्थान में हालत सबसे ज्यादा खराब है हालांकि दूसरे राज्यों में यह बीमारी अब कम हो रही है. सरकार ने इस बीमारी को और फैलने से रोकने की पहल शुरू की है. 13 प्रदेशों में इस समय बीमारी है. अब सरकार की कवायद मवेशियों को टीका लगाने की प्रक्रिया और तेज करने की है. 

सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार आम बात है. असम में विक्टर दास नाम के युवा का एक ट्वीट वायरल हो गया. विक्टर ने आरोप लगा दिया कि एक पूर्व विधायक कथित रूप से पैसे लेकर सरकारी भर्ती करा रहे हैं. विक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया. रतनदीप चौधरी की रिपोर्ट है. 

बीते हफ्ते के अंत में एक युवक विक्टर दास का एक ट्वीट वायरल हुआ. विक्टर दास ने आरोप लगाया कि एक पूर्व विधायक समेत एक पूरी लॉबी असम सरकार की भर्ती परीक्षाओं में पैसे लेकर भर्ती कराने के धंधे से जुड़ी हुई है. ग्रेड थ्री और ग्रेड फोर की इन भर्ती परीक्षाओं में लाखों छात्र बैठे थे. सरकार का दावा है कि इन इम्तिहानों के लिए अभूतपूर्व सुरक्षा इंतजाम किए गए. यहां तक कि परीक्षा केन्द्रों के बाहर धारा 144 लगाई गई और इम्तिहान के दौरान मोबाइल इंटरनेट पर भी पाबंदी लगा दी गई ताकि पेपर लीक ना हो सके. परीक्षा में लाखों छात्र बैठे, लिहाजा विक्टर दास का ट्वीट वायरल हो गया और युवाओं ने इसे गंभीरता से लिया. विक्टर एक प्राईवेट कोचिंग सेंटर चलाते हैं और एक सरकारी स्कूल में शिक्षक भी हैं. इस ट्वीट के बाद गुवाहाटी पुलिस ने उनसे गहन पूछताछ की और फिर गिरफ्तार कर लिया. इस बीच कानून के जानकारों का कहना है कि पुलिस विक्टर को गिरफ्तार कर एक गलत नजीर पेश कर रही है. कार्रवाई सीआरपीसी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं हुई. अगर किसी ने आरोप लगाए और पुलिस ने उन्हें गलत पाया तो इसका ये मतलब नहीं कि उसको वो गिरफ्तार कर लेंगे. ये एक बहुत ही गलत नजीर है. उधर विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार पर हमलावर है. उसका आरोप है कि हेमंत सरकार जानकारी देने वाले को ही सजा दे रही है. पुलिस इस घोटाले की जांच करे. उन्होंने संभावित भ्रष्टाचार की शिकायत की लेकिन उन्हें सामुदायिक भावनाएं भड़काने जैसे आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इससे पता चलता है कि सरकार सभी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को नष्ट कर रही है. विक्टर दास की गिरफ्तारी के खिलाफ विपक्ष लामबंद हो रहा है. कांग्रेस ने मंगलवार को इस मुद्दे पर राजभवन तक विरोध मार्च निकाला और तृणमूल कांग्रेस ने भी सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किए.

महंगाई सात प्रतिशत पर पहुंच गई है. सब्ज़ियों के दाम में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. मध्य प्रदेश में किसानों को लहसुन के दाम नहीं मिल रहे हैं. कभी लहसुन खेतों में फेंका जा रहा है तो कभी शहर में. कांग्रेस ने विधानसभा के बाहर लहसुन लेकर प्रदर्शन किया. 

मध्यप्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र के पहले ही दिन कांग्रेस के नेताओं ने लहसुन की गिरती कीमतों को लेकर जोरदार प्रदर्शन किया. पिछले दिनों लहसुन उत्पादक किसानों ने अपनी उपज को सड़कों पर फेंका. उनको उपज नालियों में फेंकने के लिए मजबूर होना पड़ा. सरकार ने भावांतर योजना भी बंद कर दी है. देवास में कुछ दिनों पहले नाराज किसानों ने विरोध स्वरूप लहसुन की शवयात्रा निकाली. मंदसौर में कम दाम मिलने से गांव के नाराज किसान मदन धाकड ने अपनी फसल तालाब में फेंक दी थी. किसान करे तो क्या करे. धार जिले के बदनावर में किसानों ने चक्का जाम कर दिया था. लहसुन की फसल सड़क पर बिखेर दी थी. 

मध्यप्रदेश में साल दर साल लहसुन का रकबा बढ़ता जा रहा है लेकिन कीमतें कम मिल रही हैं. साल 2011-12 में राज्य में 94935 हेक्टेयर पर लहसुन की खेती होती थी. 2020-21 में यह बढ़कर 193066 हो गई. यानी दोगुना उत्पादन, साढ़े ग्यारह लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 19 लाख 83 हजार मीट्रिक टन हो गया. लहसुन उगाने में साल में चार-पांच बार दवा, हाथ से निंदाई गुड़ाई से लेकर ग्रेडिंग करवाने तक का काम होता है. लगभग दस से बारह हजार रुपये के आसपास एक एकडट़ में लागत लग जाती है, लेकिन बाजार में मिल रहा है तीन हजार रुपये प्रति क्विंटल. कई जगहों पर उससे भी कम, जिससे निंदाई गुडाई तक का खर्च नहीं निकल रहा है. मध्यप्रदेश में मालवा के मंदसौर, नीमच, शाजापुर, उज्जैन, नीमच जैसे जिलों में लहसुन का उत्पादन होता है. राज्य में एक जिला एक उत्पाद योजना चलाई जा रही है. अक्सर मंत्री जी भाषणों में कहते हैं कि प्रोसेसिंग यूनिट लगाओ.

हमारे कृषि मंत्री जानते हैं कि चीन और इराक का लहसुन भारतीय बाजार में आ जाने से देसी लहसुन की मांग नहीं है क्योंकि वह आकार में बड़ा है. लहसुन का पेस्ट पच्चीस हजार रुपये प्रति क्विंटल है लेकिन लहसुन तीन हजार से भी कम. फिर भी वे किसानों को कीमत दिलवाने के लिए कुछ खास नहीं कर रहे. प्रसंस्करण यूनिट सपनों और भाषणों में है हकीकत में नहीं. सरकार कम से कम इतना ही कर दे कि लहसुन के निर्यात को खोल दे ताकि किसानों को थोड़ी राहत मिले.

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