क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट : कानून पर मुहर लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़ ही करेंगे सुनवाई

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक अयोध्या मामले में फैसला सुनाने वाली पांच जजों के पीठ में शामिल थे, जिसने प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991 को अच्छा कानून बताते हुए उस पर मुहर लगाई थी.

क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट : कानून पर मुहर लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़ ही करेंगे सुनवाई

Places of Worship Act : सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे केस को लेकर सुनवाई

नई दिल्ली:

ज्ञानवापी मस्जिद मामले में मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक अहम सुनवाई होने जा रही है.  मस्जिद कमेटी ने याचिका में वाराणसी की अदालत के मस्जिद में सर्वे के आदेश को प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट का उल्लंघन बताया है. अब सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पी एस नरसिम्हा की बेंच मामले की सुनवाई करेगी. खास बात ये है कि जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक अयोध्या मामले में फैसला सुनाने वाली पांच जजों के पीठ में शामिल थे, जिसने प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991 को अच्छा कानून बताते हुए उस पर मुहर लगाई थी. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2021 में 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट (उपासना स्थल कानून) की वैधता का परीक्षण करने पर सहमति जताई थी. अदालत ने इस मामले में भारत सरकार को नोटिस जारी कर उसका जवाब मांगा था.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को खत्म किए जाने की मांग

बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने अपनी जनहित याचिका में कहा है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को खत्म किए जाने की मांग की गई है, ताकि इतिहास की गलतियों को सुधारा जाए और अतीत में इस्लामी शासकों द्वारा अन्य धर्मों के जिन-जिन पूजा स्थलों और तीर्थ स्थलों का विध्वंस करके उन पर इस्लामिक ढांचे बना दिए गए, उन्हें वापस उन्हें सौंपा जा सकें जो उनका असली हकदार हैं.

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अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991 के प्रावधान मनमाने और गैर संवैधानिक हैं. उक्त प्रा‌वधान संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26 एवं 29 का उल्लंघन करता है. संविधान के समानता का अधिकार, जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 दखल देता है.
केंद्र सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ये कानून बनाया है. पूजा पाठ और धार्मिक विषय राज्य का विषय है और केंद्र सरकार ने इस मामले में मनमाना कानून बनाया है.

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उन्होंने कहा कि भारत में मुस्लिम शासन 1192 में स्थापित हुआ, जब मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिया था. तब से 1947 तक भारत पर विदेशी शासन ही रहा. इसलिए अगर धार्मिक स्थलों के चरित्र को बरकरार रखने का कोई कट ऑफ डेट तय करना है तो वह 1192 होना चाहिए, जिसके बाद हजारों मंदिरों और हिंदुओं, बौद्धों एवं जैनों के तीर्थस्थलों का विध्वंस होता रहा और मुस्लिम शासकों ने उन्हें नुकसान पहुंचाया या उनका विध्वंस कर उन्हें मस्जिदों में तब्दील कर दिया.

क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट

देश की तत्कालीन नरसिंम्हा राव सरकार ने 1991 में  प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट यानी उपासना स्थल कानून बनाया था. कानून लाने का मकसद अयोध्या राम जन्मभूमि आंदोलन के बढ़ती तीव्रता और उग्रता को शांत करना था. सरकार ने कानून में यह प्रावधान कर दिया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद के सिवा देश की किसी भी अन्य जगह पर, किसी भी पूजा स्थल पर दूसरे धर्म के लोगों के दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा. इसमें कहा गया कि देश की आजादी के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को कोई धार्मिक ढांचा या पूजा स्थल जहां, जिस रूप में भी था, उन पर दूसरे धर्म के लोग दावा नहीं कर पाएंगे.

इस कानून से अयोध्या की बाबरी मस्जिद को अलग कर दिया गया या इसे अपवाद बना दिया गया. क्योंकि ये विवाद आजादी से पहले से अदालतों में विचाराधीन था. इस एक्ट में कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था वो आज, और भविष्य में, भी उसी का रहेगा. हालांकि अयोध्या विवाद को इससे बाहर रखा गया क्योंकि उस पर कानूनी विवाद पहले का चल रहा था.

एक ऐसी याचिका पुजारियों के संगठन ने वकील विष्णु शंकर जैन के जरिए दायर कर रखी है. जनहित याचिका में भी सुप्रीम कोर्ट से 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट को रद्द करने की मांग की गई है. ताकि मथुरा में कृष्ण की जन्मस्थली और वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर-मस्जिद के विवाद का निपटारा हो सके. हिंदू पुजारियों के संगठन विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने इस एक्ट के प्रावधान को चुनौती दी है.

याचिका में कहा गया है कि इस एक्ट को कभी चुनौती नहीं दी गई और ना ही किसी कोर्ट ने न्यायिक तरीके से इस पर विचार किया. अयोध्या फैसले में भी संविधान पीठ ने इस पर सिर्फ टिप्पणी की थी. हालांकि, मुस्लिम संगठन जमायत उलमा-ए-हिंद ने इस याचिका का जबर्दस्त विरोधी किया है. उसने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि यह याचिका इतिहास की गलतियों को सुधारने की छलपूर्ण कोशिश है. उसने चेतावनी दी है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने इसमें दिलचस्पी ली तो देश में मुकदमों और याचिकाओं की बाढ़ आ जाएगी.

अर्जी में याचिका का विरोध किया गया है कि अदालत इस याचिका पर नोटिस जारी ना करें. मामले में नोटिस जारी करने से खासतौर से अयोध्या विवाद के बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों के मन में अपने पूजा स्थलों के संबंध में भय पैदा होगा. ये मामला राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करेगा. अर्जी में इस मामले में उसे भी पक्षकार बनाने की मांग.

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गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या रामजन्भूमि विवाद पर 1,045 पन्ने के अपने फैसले में 1991 के इस कानून का हवाला देते हुए कहा था कि यह कानून 15 अगस्त 1947 को सार्वजनिक पूजा स्थलों के रहे धार्मिक चरित्र को बरकरार रखने और उनमें बदलाव के खिलाफ गारंटी देता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून हर एक धार्मिक समुदाय को यह आश्वासन देता है कि उनके धार्मिक स्थलों का संरक्षण होगा और उनका चरित्र नहीं बदला जाएगा. प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट विधायिका की तरफ से किया गया प्रावधान है जो पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को यथावत बरकरार रखने को हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनिवार्य पहलू बनाता है. ये एक अच्छा कानून है.