राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा संतान पैदा करने के लिए दिए गए पैरोल के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) विचार करेगा. फैसले के तहत उम्रकैद की सजा काट रहे एक कैदी को संतान पैदा करने के लिए पैरोल पर रिहा करने का आदेश दिया गया था. जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है. दायर याचिका में कहा गया है कि अगर अदालत की तरफ से ऐसे फैसले सामने आते हैं तो कई और लोग सामने आएंगे और इससे परेशानी बढ़ जाएगी. गौरतलब है कि नंदलाल राजस्थान की भीलवाड़ा अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा काट रहा है और अजमेर जेल में बंद है.
उसकी पत्नी ने अजमेर जिला कलेक्टर को अर्जी देकर गर्भधारण के लिए पति को पैरोल पर रिहा करने की अपील की थी जब कलेक्टर के पास उसकी सुनवाई नहीं हुई तो उसने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. जिस मामले पर सुनवाई करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस फरजंद अली की पीठ ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए बंदी को सशर्त पैरोल देने के आदेश दिया था. पीठ ने मामले में सुनवाई करते हुए कहा था कि पैरोल नियम 2021 में कैदी को उसकी पत्नी के संतान होने के आधार पर पैरोल पर रिहा करने का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है. लेकिन धार्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक और सामाजिक और मानवीय मूल्यों पर विचार करते हुए भारत के संविधान द्वारा मौलिक अधिकार को लेकर दी गई गारंटी और इसके साथ इसमें निहित असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह कोर्ट याचिका को स्वीकार करता है.
सुनवाई के दौरान जस्टिस फरजंद अली ने कहा कि अगर हम मामले को धार्मिक पहलू से देखें तो हिंदू दर्शन के अनुसार गर्भधान यानी गर्भ का धन प्राप्त करना सोलह संस्कारों में से एक है. विद्वानों ने वैदिक भजनों के लिए गर्भधान संस्कार का पता लगाया है. जैसे कि ऋग्वेद के अनुसार संतान और समृद्धि के लिए बार-बार प्रार्थना की जाती है. कोर्ट ने कहा था कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और कुछ अन्य धर्मों में जन्म को ईश्वरीय आदेश कहा गया है. आदम और हौवा को सांस्कृतिक जनादेश दिया गया था. इस्लामी शरिया और इस्लाम में वंश के संरक्षण का कहा गया है. जस्टिस अली ने आगे संतान के अधिकार और वंश के संरक्षण के समाजशास्त्र और संवैधानिक पहलुओं की जांच भी इस मामले में सुनवाई के दौरान की थी.
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