देशद्रोह कानून पर सरकार का रुख बदला है. सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में कानून पर पुनर्विचार करने की बात कही गई है. इसको लेकर एनडीटीवी ने संविधान के जानकार प्रोफेसर फैजान मुस्तफा से बातचीत की और जाना कि क्या राजद्रोह कानून खत्म हो जाएगा. इस पर फैजान मुस्तफा ने कहा कि मुझे बड़ी खुशी हो रही है कि आजादी के अमृत महोत्सव में सरकार ने ये फैसला किया कि वो इस कानून पर पुनर्विचार करे. देश को राजद्रोह और देश के विरुद्ध कार्रवाई के खतरे हमेशा मौजूद रहते हैं. उन खतरों से निपटना भी बहुत जरूरी है. बहुत से ऐसे कानून हैं जो अब आतंकवाद और इस तरीके के राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से डील करने में सक्षम हैं.
उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने भी जब 1860 इंडियन पीनल कोर्ट बनाई थी, तो उसमें 124ए नहीं था. ये अजीब बात है कि देवबंद से जब अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद करने का फतवा जारी हुआ तो उसको खत्म करने के लिए इस तरीके का कानून आया. इस कानून का इस्तेमाल स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेताओं के विरुद्ध किया गया. जब देश का संविधान बना और उसमें अभिव्यक्ति का अधिकार अनुच्छेद 19 आया, तब इस तरीके के कानून की क्या अहमियत रह गई. उस पर संविधान सभा में बहस हुई. फिर 1951 के संशोधन में कुछ और शर्तें सख्त कर दी गईं और फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन पर अंकुश लगाने के प्रावधानों में कुछ बढ़ोतरी की गई. लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने केदारनाथ के केस में कहा कि जब तक किसी के बोलने से कोई हिंसा ना हो, सिर्फ किसी के कुछ बोलने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता.
फैजान मुस्तफा ने कहा कि अक्सर कानूनों का दुर्पयोग होता है. लेकिन उस कानून पर जो सुप्रीमकोर्ट की व्याख्या है, असलियत में वही सही है. चाहे यह कानून हो (राष्ट्रद्रोह) या यूएपीए हो, इनका जो कन्विक्शन रेट (सजा मिलने की दर) है, वो हमेशा बहुत ही कम रहा है. 1951 और 1962 की स्थिति अलग थी, तब देश को पाकिस्तान और चीन से खतरा था. आजकल भी कुछ ऐसा ही खतरा है, जब चीन हमारी सीमा में घुसने की कोशिश करता रहता है और एक नए तरह का आतंकवाद विश्व झेल रहा है तो ऐसे में इस कानून की कितनी जरूरत है, कितनी नहीं, उसका सही फोरम संसद है.
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