मुंबई:
25 साल की एक अमेरिकी महिला एरिन ज़ैकिस ने सुंदरा नाम के एक एनजीओ की नींव भारत में डाली। बड़े-बड़े होटलों में जो साबुन बच जाता है यह एनजीओ उसे इकट्ठा करके रीसाइकिल करता है और उसे जरूरतमंद बच्चों में बांटता है। इसे शुरू करने के पीछे एक किस्सा है।
एरिन ने एक बार थाईलैंड के एक गांव में कुछ बच्चों से साबुन मांगा तो बच्चों ने कहा कि साबुन क्या होता है उन्हें पता ही नहीं है। इस वाकये के बाद एरिन ने इस एनजीओ के जरिये जरूरतमंद बच्चों तक साबुन पहुंचाना शुरू किया।
5 साल का रहीम कलवा में रहता है। आज से कुछ महीने पहले हाथ धोने की अहमियत नहीं जानता था। हफ़्तों तक इसके घर में साबुन नहीं होता था। रहीम अक्सर बीमार भी रहता था। रहीम जैसे और भी कई बच्चे हैं कलवा में हैं। इनमें से कई बच्चों के लिए साबुन बहुत बड़ी चीज़ है। साबुन पर खर्च करने के लिए इनके घरवालों के पास पैसे नहीं हैं।
दूसरी तरफ ऐसे लोग जिन्हें शायद एहसास नहीं कि साबुन भी किसी के लिए इतना कीमती हो सकता है। ज़रा से इस्तेमाल के बाद बचे हुए साबुन को बेकार समझ के फेंक दिया जाता है।
इन दोनों विपरीत परिस्थितियों को 26 साल की एरिन ने एक साथ जोड़ के देखा। 25 साल की सामाजिक कार्यकर्ता एरिन ज़ैकिस ने इन बच्चों की जरूरत को समझा। एरिन ने कुछ बड़े होटलों से संपर्क किया। होटल में इस्तेमाल के बाद बचे हुए साबुन को डोनेट करने के लिए राजी किया। और इस साबुन को रीसाइकिल करना शुरू किया। गुजरात और महाराष्ट्र के कई इलाकों में जरूरतमंद बच्चों तक यह रीसाइकिल किया हुआ साबुन पहुंचाया जाता है।
एरिन अपने इस मिशन की कामयाबी का श्रेय सुंदरा से जुड़े लोगों को देती हैं। एरिन ज़ैकिस, अमेरिकी सामजिक कार्यकर्ता, संस्थापक, सुन्दरा ने कहा, 'मैंने भारत से काम इसलिए शुरू किया क्योंकि यह मेरे दिल के बहुत करीब है। यहां बिताये वक़्त के बाद जब मैं वापस लौटी तो मैंने तय किया कि अपना मिशन मैं यहां से शुरू करूंगी। इस कहानी की असली हीरो वो महिलाएं हैं जो इस साबुन को रीसाइकिल करती हैं, बच्चों को सफाई की अहमियत बताती हैं और उन्हें यह साबुन देती हैं।'
कलवा में पिछले 5 महीनों से इसी तरह बच्चों को यह साबुन बांटा जा रहा है। सुंदरा फाउंडेशन के प्लानिंग डायरेक्टर केनेथ डीसूजा ने बताया, 'हम फ्री में बच्चों को यह साबुन बांटते हैं, करीब 25 स्कूलों में कलवा में बांट रहे हैं।'
इस तरह इस सारी प्रक्रिया के बाद यह साबुन इन बच्चों तक पहुंचता है। इस कहनी के दो पहलु हैं। पहला कि हमारे देश में अब भी ऐसे बच्चे हैं जिनके पास साबुन जैसे बेसिक जरूरत का सामान भी नहीं। और दूसरा पहलु है इन बच्चों को यह साबुन दिलवाने की कोशिश। लोगों द्वारा होटलों में छोड़े हुए साबुन को रीसाइकिल करके इन बच्चों तक पहुंचाने की कोशिश वाकई काबिले तारीफ़ है।
एरिन ने एक बार थाईलैंड के एक गांव में कुछ बच्चों से साबुन मांगा तो बच्चों ने कहा कि साबुन क्या होता है उन्हें पता ही नहीं है। इस वाकये के बाद एरिन ने इस एनजीओ के जरिये जरूरतमंद बच्चों तक साबुन पहुंचाना शुरू किया।
5 साल का रहीम कलवा में रहता है। आज से कुछ महीने पहले हाथ धोने की अहमियत नहीं जानता था। हफ़्तों तक इसके घर में साबुन नहीं होता था। रहीम अक्सर बीमार भी रहता था। रहीम जैसे और भी कई बच्चे हैं कलवा में हैं। इनमें से कई बच्चों के लिए साबुन बहुत बड़ी चीज़ है। साबुन पर खर्च करने के लिए इनके घरवालों के पास पैसे नहीं हैं।
दूसरी तरफ ऐसे लोग जिन्हें शायद एहसास नहीं कि साबुन भी किसी के लिए इतना कीमती हो सकता है। ज़रा से इस्तेमाल के बाद बचे हुए साबुन को बेकार समझ के फेंक दिया जाता है।
इन दोनों विपरीत परिस्थितियों को 26 साल की एरिन ने एक साथ जोड़ के देखा। 25 साल की सामाजिक कार्यकर्ता एरिन ज़ैकिस ने इन बच्चों की जरूरत को समझा। एरिन ने कुछ बड़े होटलों से संपर्क किया। होटल में इस्तेमाल के बाद बचे हुए साबुन को डोनेट करने के लिए राजी किया। और इस साबुन को रीसाइकिल करना शुरू किया। गुजरात और महाराष्ट्र के कई इलाकों में जरूरतमंद बच्चों तक यह रीसाइकिल किया हुआ साबुन पहुंचाया जाता है।
एरिन अपने इस मिशन की कामयाबी का श्रेय सुंदरा से जुड़े लोगों को देती हैं। एरिन ज़ैकिस, अमेरिकी सामजिक कार्यकर्ता, संस्थापक, सुन्दरा ने कहा, 'मैंने भारत से काम इसलिए शुरू किया क्योंकि यह मेरे दिल के बहुत करीब है। यहां बिताये वक़्त के बाद जब मैं वापस लौटी तो मैंने तय किया कि अपना मिशन मैं यहां से शुरू करूंगी। इस कहानी की असली हीरो वो महिलाएं हैं जो इस साबुन को रीसाइकिल करती हैं, बच्चों को सफाई की अहमियत बताती हैं और उन्हें यह साबुन देती हैं।'
कलवा में पिछले 5 महीनों से इसी तरह बच्चों को यह साबुन बांटा जा रहा है। सुंदरा फाउंडेशन के प्लानिंग डायरेक्टर केनेथ डीसूजा ने बताया, 'हम फ्री में बच्चों को यह साबुन बांटते हैं, करीब 25 स्कूलों में कलवा में बांट रहे हैं।'
इस तरह इस सारी प्रक्रिया के बाद यह साबुन इन बच्चों तक पहुंचता है। इस कहनी के दो पहलु हैं। पहला कि हमारे देश में अब भी ऐसे बच्चे हैं जिनके पास साबुन जैसे बेसिक जरूरत का सामान भी नहीं। और दूसरा पहलु है इन बच्चों को यह साबुन दिलवाने की कोशिश। लोगों द्वारा होटलों में छोड़े हुए साबुन को रीसाइकिल करके इन बच्चों तक पहुंचाने की कोशिश वाकई काबिले तारीफ़ है।
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