"अब क्या करूं… सब खत्म हो गया, कोई आंसू नहीं, क्योंकि रोने की ताकत भी नहीं बची. घर में अनाज नहीं, खाने को कुछ नहीं…", यह उस 74 साल की महिला के शब्द हैं, जिसकी वजह से आज महिला की सुरक्षा के कानून मजबूत हुए हैं. निर्भया के बाद देश में महिला सुरक्षा पर कानून बदलने की चर्चा तेज हुई, लेकिन उससे बहुत पहले, आज से पचास साल पहले भारत को झकझोरने वाला पहला दर्द था मथुरा. एक नाम, जो भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में सुधार और शर्म दोनों का प्रतीक बन गया, जिस 14 वर्षीय आदिवासी किशोरी के साथ देसाईगंज पुलिस थाने में हुए कस्टोडियल गैंगरेप ने देश को सड़कों पर ला दिया. नए कानून बनवाए. वही, मथुरा 74 साल की उम्र में आज महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में भूख, लकवा और अकेलेपन की छाया में जी रही है.
मथुरा क्यों है चर्चा में
'तुकडोजी उर्फ तुकाराम बनाम महाराष्ट्र राज्य' के नाम के इस केस में, साल 1979 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुलिस थाने में बलात्कार करने वाले दो पुलिसकर्मियों को "स्वेच्छा से दी गई सहमति" के तर्क पर बरी कर दिया गया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश गवई ने इस फैसले को "संस्थागत शर्म का पल" बताया. उन्होंने यह भी दुख जताया कि अदालत ने "शरीर पर प्रतिरोध के निशान नहीं हैं, इसलिए सहमति है" जैसा तर्क माना था. पूर्व न्यायमूर्ति गवई ने साफ किया कि, "डर, सहमति नहीं होता. खामोशी, अनुमति नहीं होती."

1972 की वह रात, जिसने भारत को झकझोर दिया
26 मार्च 1972. घरों में काम करने वाली किशोरी मथुरा शिकायत दर्ज कराने के लिए गडचिरोली जिले के देसाईगंज पुलिस स्टेशन पहुंची थी. वह दिन उसके जीवन का अंत बन गया. उसी रात तुकाराम और गणपत नामक दो पुलिसकर्मियों ने उसके साथ बलात्कार किया. इस घटना के बाद देशभर में गुस्सा फूट पड़ा. नागपुर, मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद हर जगह सड़कें महिलाओं के न्याय आंदोलन से भर गईं. यह भारत की वह पहली लड़ाई थी, जिसने देश को कस्टोडियल रेप का भयावह चेहरा दिखाया और कानून बदलने पर मजबूर कर दिया.
देश को नए कानूनी कवच मिले
- धारा 376(A−D) जोड़ी गईं.
- कस्टोडियल रेप की परिभाषा बनी.
- इन-कैमरा ट्रायल अनिवार्य हुआ.
- पीड़िता की पहचान की सुरक्षा कानूनन जरूरी हुई.
- जिसके संघर्ष से कानून बदले, वही आज भूखी है

मथुरा का घर अंधेरा टूटा-फूटा और भूख से घिरा
आज नागपुर से लगभग 150 किलोमीटर दूर सिंदेवाही के पास के छोटे से गांव नवरगांव में मथुरा का घर अंधेरा टूटा-फूटा और भूख से घिरा है. टिन की पुरानी चादरों, तारपॉलिन और बांस की लकड़ियों पर टिका उसका अंधेरा कमरा उसकी अभी की स्थिति बताता है. लकवे की वजह से उसका बायां हाथ-पांव काम नहीं कर रहा. टूटी-फूटी याददाश्त और हमेशा साथ रहने वाली भूख ही अब उसका एकमात्र सच है.
वह कहती हैं, "अब क्या करूं… सब खत्म हो गया, कोई आंसू नहीं, क्योंकि रोने की ताकत भी नहीं बची. घर में अनाज नहीं, खाने को कुछ नहीं…"
आधार कार्ड खो गया है, उंगलियों के निशान नहीं बन पाते, और सरकारी मदद बंद है. पासबुक में आखिरी एंट्री सिर्फ 2,050 रुपये की है.
पड़ोसी कहते हैं, "वह कभी भीख नहीं मांगती. कैसे जीती हैं, वही जानती हैं. कार्यकर्ता आते हैं, फोटो लेकर चले जाते हैं. वापस कोई नहीं आता. मुआवजा? एक पैसा भी नहीं मिला. उनकी जिंदगी में बचा सिर्फ अपमान है."
जिला कलेक्टर ने दिया आश्वासन
न्याय प्रणाली के इतिहास में सुधार की आधारशिला बनी मथुरा आज एक भुला दिया गया नाम है. चंद्रपुर के जिला कलेक्टर विनय गौड़ा ने आश्वासन दिया है कि "उनके मामले की व्यक्तिगत रूप से समीक्षा की जाएगी," लेकिन क्या यह आश्वासन उस 74 साल की महिला के जीवन तक पहुंचेगा, जो अब उम्मीद नहीं रखती?
न्यायमूर्ति गवई ने इस अन्याय पर आवाज उठाई, लेकिन जिनके संघर्ष से कानून बदले, उन्हें मदद नहीं अधिकार मिलना चाहिए. सरकार कब इस अन्याय पर आवाज उठाएगी यही सवाल आज खड़ा है.
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