महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. राजनीतिक दल अपनी गोटियां बिठाने में लगे हुए हैं.महाराष्ट्र का दलित आंदोलन देश के दूसरे राज्यों से ज्यादा सशक्त रहा है. महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति की आबादी करीब 12 फीसदी है. वहां की विधानसभा में 29 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में से सबसे अधिक सीटें बीजेपी ने जीती थीं. लेकिन यह 2014 की चुनाव की तुलना में बीजेपी का खराब प्रदर्शन था. आइए देखते हैं कि महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर किस पार्टी का कैसा प्रदर्शन रहा है.
साल 2011 की जनसंख्या के मुताबिक महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति की आबादी एक करोड़ 32 लाख से अधिक थी. राज्य में लोकसभा की 48 में से पांच सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. वहीं विधानसभा की 288 में से 29 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. पुणे, नागपुर और थाणे जिले में अनुसूचित जाति की सबसे अधिक आबादी है. ऐसे में 29 आरक्षित सीटों के अलावा करीब 65 विधानसभा सीटें ऐसी हैं,जहां अनुसूचित जाति की आबादी 15 फीसदी से अधिक है.
एसीसी के लिए आरक्षित सीटों पर बीजेपी का दबदबा
साल 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 29 में से 15 सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं शिवसेना के हिस्से में नौ,एनसीपी के हिस्से में तीन और कांग्रेस के हिस्से में दो सीटें आई थीं. बीजेपी अनुसूचित जाति के आरक्षित सीटों में से सबसे अधिक सीटें जीती थीं. वहीं अगर वोट शेयर की बात करें तो बीजेपी को 28.67 फीसदी, शिव सेना को 20.38 फीसदी, कांग्रेस को 16.79 फीसदी और एनसीपी को 14.73 फीसदी वोट मिले थे.
वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसकी सहयोगी शिवसेना ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पांच सीटों में से दो-दो सीटें जीती थीं. एक बची हुई सीट नवनीत राना ने जीती थी. राना अपने हिंदुत्ववादी विचारों के लिए जानी जाती हैं. वो इस साल बीजेपी में शामिल हो गई हैं. इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने सभी पांच सीटें जीत ली थीं.
ढीली पड़ती बीजेपी की पकड़
साल 2019 का विधानसभा चुनाव आते-आते बीजेपी की अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर पकड़ कमजोर पड़ने लगी थी. इस चुनाव में बीजेपी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में से केवल नौ ही जीत पाई. वहीं उसकी सहयोगी शिवसेना की सीटें भी घटकर पांच रह गईं. वहीं कांग्रेस और एनसीपी ने अपने सीटों की संख्या बढ़ा ली. कांग्रेस सात और एनसीपी छह सीटें जीतने में कामयाब रही थीं.निर्दलीयों ने दो सीटों पर कब्जा जमाया था.
साल 2014 और 2019 के बीच एक बड़ा बदलाव यह आया कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में से 17 पर मतदाताओं ने पुराने पार्टी पर भी भरोसा जताया.वहीं 12 सीटों पर मतदाताओं ने किसी दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को जिताया. साल 2019 में कांग्रेस ने पांच और एनसीपी ने चार सीटें बीजेपी और शिवसेना से छीन ली थीं. इन सीटों पर बीजेपी और शिवसेना ने 2014 में जीत दर्ज की थी.वहीं बीजेपी ने एनसीपी की जीती हुई एक सीट उससे छीन ली थी. वहीं बीजेपी की जीती हुई दो सीटों पर निर्दलियों ने जीत दर्ज की थी. अगर वोट शेयर की बात करें तो बीजेपी को 25.12, एनसीपी को 17.37 और कांग्रेस को 17.21 फीसदी वोट मिले थे.वहीं शिवसेना को 15.53 फीसदी वोट मिले थे. शिवसेना और बीजेपी के वोट शेयर में 2014 की तुलना में गिरावट आई थी.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को लगा झटका
साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले शिवसेना और एनसीपी में बगावत हो चुकी थी. इसके बाद से शिवसेना (एकनाथ शिंदे) और शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी (अजित पवार) और एनसीपी (एससी) का जन्म हुआ. शिवसेना (एकनाथ शिंदे)और एनसीपी (अजित पवार) ने बीजेपी के नेतृत्व वाली महायुति में शामिल हैं. वहीं शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी (एससी) कांग्रेस के साथ महाविकास अघाड़ी (एमवीए) में शामिल हैं. इस बंटवारे का असर लोकसभा चुनाव के नतीजों पर भी नजर आया.महाविकास अघाड़ी ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी पांच सीटों पर जीत दर्ज की. इनमें से चार सीटें कांग्रेस और एक सीट शिवसेना (यूबीटी) ने जीती थीं.अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित तीन सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर रही. वहीं शिंद के नेतृत्व वाली शिवसेना दो सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी.
अगर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में आने वाली विधानसभा सीटों में जीत के आधार पर देखें तो कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी. शिंदे की शिवसेना ने छह, शिवसेना (यूबीटी) ने पांच, बीजेपी ने चार, एनसीपी (एसपी) और निर्दलीय ने एक-एक सीट पर बढ़त हासिल की थी.
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