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नेपाल, बांग्लादेश से लेकर म्यांमार और श्रीलंका तक... भारत के पड़ोस में क्यों लगी है आग, कौन है पीछे

आर्थिक मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि इंसान गरीबी सह लेता है, लेकिन तुलनात्मक गरीबी लोगों में आक्रोश पैदा करती है. यही आक्रोश नेपाल में पैदा हुआ. यही आक्रोश दो हज़ार चौबीस में बांग्लादेश में भी दिखा और श्रीलंका में भी.

हिंसा के बाद नेपाल का हाल. जेन जे के क्रांति की आड़ में कुछ लोगों ने जमकर हिंसा भी फैलाई.

  • भारत के पड़ोसी देशों में लोकतंत्र अस्थिर है, जहां तख्तापलट, विद्रोह और राजनीतिक हिंसा आम हो गया है.
  • पाकिस्तान में सेना के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर हुई और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान जेल में हैं.
  • आर्थिक संकट, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के कारण पड़ोसी देशों में युवा असंतोष और राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ी है.
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भारत के पड़ोस के देशों को देखिए. चाहे नेपाल का अभी-अभी हुआ तख्तापलट हो या इससे पहले बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के खिलाफ विद्रोह. श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे की सरकार को 2022 में लोगों ने बेदखल कर दिया और राष्ट्रपति भवन पर कब्ज़ा कर लिया. पाकिस्तान में इमरान खान लगातार जेल में हैं. सिर्फ इसलिए की वहां की सेना को उनका चेहरा पसंद नहीं है. 2022 में ही म्यांमार में आंग सान सू की की हुकूमत चली गई और 2021 में अफगानिस्तान में राष्ट्रपति अशरफ गनी की हुकूमत पर तालिबान भारी पड़ गया. 

भारत क्यों सुरक्षित

नेपाल की जेन जी क्रांति ने दुनिया भर को एक बड़ा सबक सिखाया है. इस क्रांति से ना सिर्फ नेपाल में सत्ता परिवर्तन हुआ, बल्कि दुनिया भर को ये पैगाम गया कि लोकतंत्र इस वक्त सबसे खूबसूरत और बेहतरीन शासन व्यवस्था है, जिसमें सत्ता की कुंजी जनता के हाथ में होती है और इस कुंजी का इस्तेमाल सबसे बेहतरीन तरीके से हिंदुस्तान में हो रहा है. जबकि उसके आस पड़ोस में लोकतंत्र का चिराग जलता-बुझता रहता है. ये हिंदुस्तान में हमेशा ही जलता रहा है. और यूं ही नहीं इकबाल ने लिखा है.

कुछ बात है कि हस्ती मिट्टी नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा

वो हस्ती इसलिए नहीं मिटती, क्योंकि हमारी सांसों में लोकतंत्र घुला-मिला है. पास-पड़ोस में जिस तरह जमहुरियत का जनाजा अक्सर निकलता रहता है, उसके साए में हिंदुस्तान का लोकतंत्र दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र है. पड़ोस के देशों के हिंसक लपटें हिंदुस्तान की सरहदों के पार ही रहती हैं. आखिर ऐसा क्यों है कि ज़माने की दुश्वारियों के बावजूद हिंदुस्तान की हस्ती हमेशा बुलंद रही. इसका जवाब आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सुनिए...

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लोकतंत्र का हजारों वर्षों का हमारा इतिहास आज भी भारत के कोने-कोने में जीवंत है. इतनी सारी भाषाएं. इतनी सारी बोलियां. इतने अलग-अलग तरह के रहन-सहन के साथ. भारत की Democracy Vibrant है.

नेपाल में बगावत की कहानी

नेपाल में लोकतंत्र का इतिहास बस 35 साल पुराना है, लेकिन अगर संघीय गणराज्य की बात करें तो ये तो 17 साल ही हुए, लेकिन 17 वर्षों में लोकतंत्र ने 17 बार अग्निपरीक्षा दे दी. अब सुशीला कार्की के नेतृत्व में सरकार तो बन गई है, लेकिन सवाल है कि वो लोकतंत्र कब आएगा, जिसमें जनता को अपनी भागीदारी साफ-साफ नज़र आए. कहां तो तय था कि बैलेट से लोकतंत्र को निखारेंगे, कहां Bullet के आगे नौजवानों के सीने तन गए. जो लोकतंत्र के रहनुमा बनते थे, उनके तंत्र को लोकतंत्र के लोग ने तहस-नहस कर दिया. प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली Helicopter से उसी तरह भागे, जिस तरह बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को 2024 में देश छोड़ना पड़ा था. लोकतंत्र की बुनियाद नेपाल में कितनी खोखली हो गई थी, उसको इस बात से समझ सकते है कि पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और उनकी विदेश मंत्री पत्नी अर्जू देउबा को प्रदर्शनकारियों ने घर में घुसकर पीटा. वित्त मंत्री विष्णु पौडेल को तो दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. 

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ये हिंसक आग नेपाल में इसलिए लगी कि लोकतंत्र जिन चार खंभों पर टिका होता है, नेपाल के लोकतंत्र के उन चारों खंभों को दीमक लग चुकी थी. विधायिका राजनीतिक दलों और नेताओं के तिकड़म का शिकार हो गई. कार्यपालिका को भ्रष्टाचार निगलने लगा. न्यायपालिका में आम लोगों के लिए जगह नहीं बची और मीडिया सत्ता की हां में हां मिलाने वाला बन गया. जहां लोकतंत्र मजबूत होता है वहां मीडिया भी स्वतंत्र और मजबूत होता है. नेपाल की नई पीढ़ी को मीडिया पर रत्ती भर भरोसा नहीं रहा. कांतिपुर टीवी और अखबार का दफ्तर नौजवानों के गुस्से की लपटों में जलने लगा है. इन तस्वीरों से भारत के पड़ोसी देशों में लोकतंत्र की कमजोरी उजागर हो गई. नेपाल की क्रांति इसका एक विस्तार है. भारत के अलावा यहां पर कोई और देश होता तो आसपास फैली अराजकता से खुद को बचा पाना बहुत मुश्किल होता. भारत ने जन भावनाओं को सम्मान देकर उन्हें लोकतांत्रिक ताकत बना दी, लेकिन नेपाल जैसे देशों में युवा भावनाएं इस कदर आहत हो गईं कि स्कूली बच्चे तक विद्रोही भाषा बोलने लगे. लेकिन उसके बाद नेपाल में लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ प्रधानमंत्री ही बदलते रहे. लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव हुआ नहीं तो लोग सड़कों पर उतर आए. 

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जब लोकतंत्र का मतलब किसी तरह चंद नेताओं का सत्ता में बने रहना हो जाता है, तो नतीजा भ्रष्टाचार और देश की खराब माली हालत के रूप में सामने आता है. भ्रष्टाचार का आलम ये है कि 2021 में चौवन हज़ार छह सौ करोड़ का गिरि बंधु भूमि स्वैप घोटाला हुआ, 2023 में तेरह हज़ार छह सौ करोड़ का ओरिएंटल कोआपरेटिव घोटाला हुआ और 2024 में उनहत्तर हज़ार छह सौ करोड़ का एक और कोआपरेटिव वित्तीय घोटाला हुआ. ये ताजातरीन भ्रष्टाचार लंबे समय से सड़ रहे सिस्टम का अंजाम है. इसको आप इस बात से समझिए की जहां दो हज़ार में नेपाल में विदेशों में कमाने गए नेपालियों से आने वाला पैसा कुल जीडीपी का दो फीसदी था, वही दो हज़ार चौबीस में तैंतीस दशमलव एक फीसदी हो गया, यानी लोगों को अपने देश से बाहर निकल कर काम करना पड़ा. इन सब कारणों से नेपाल आज दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल है. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक नेपाल में बेरोजगारी दर पिछले कई सालों से दस फीसदी से ऊपर बनी हुई है. इसका मतलब ये हुआ कि हर सौ में कम से कम दस लोग बेरोजगार हैं. अपनी सरकारों को बेनकाब करने के लिए नौजवानों ने मीम्स बनाने शुरू कर दिए. साथ ही इस तरह के शॉट्स भी चलने लगे की कैसे महंगाई, बेरोजगारी जैसे बुनियादी मोर्चे पर सरकार फैल हो चुकी है. सोशल मीडिया पर इस तरह अपनी किरकिरी देख ओली सरकार जनतंत्र से दमन तंत्र पर उतर गई. फिर क्या था नेपाल के सवालों को लेकर करोड़ों युवाओं ने सड़क पर संग्राम का ऐलान कर दिया. 

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श्रीलंका आजाद तो उन्नीस सौ अड़तालीस में हुआ था, लेकिन गणराज्य उन्नीस सौ बहत्तर में बना. लंबे समय तक जातीय हिंसा का शिकार रहे श्रीलंका की अर्थव्यवस्था इस कदर दिवालिया हुई की दो हज़ार बाईस में लोगों के आक्रोश का सैलाब राष्ट्रपति भवन की चार दीवारी को तोड़ कर अंदर दाखिल हो गया.

बांग्लादेश की बर्बादी की कहानी

बांग्लादेश तो बना ही उन्नीस सौ इकहत्तर में, लेकिन जैसे ही वहां का लोकतंत्र घुटनों के बल चलने का प्रयास करता है, कभी वहां की सेना तो कभी वहां की साजिश वाली राजनीति उस लोकतंत्र को धराशायी कर देती है.  दो हज़ार चौबीस में जिस तरह शेख हसीना की सरकार सत्ता से बेदखल हुई, उससे साफ हो गया की बांग्लादेश एक देश के रूप में लोकतांत्रिक सभ्यता को स्वीकार नहीं कर पाया है. 

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जिस शेख हसीना को बांग्लादेश का सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री माना गया, अगर उनके खिलाफ ही पिछले साल अचानक बगावत की आग इतनी तेज भड़क गई तो सवाल है इसके पीछे कौन था? शेख हसीना के खिलाफ साजिश दो स्तरों पर दिखी. पहला तो बांग्लादेश के भीतर से बगावत और दूसरा बाहर से आग लगाने की चाल. देश के अंदर बगावत तीन स्तरों पर दिखी. पहली बगावत छात्रों की, दूसरी बगावत विपक्षी दलों की और तीसरी बगावत सेना की, लेकिन सामने से मोर्चा छात्रों ने ही संभाला. पांच अगस्त दो हज़ार चौबीस को छात्रों और नौजवानों का हुजूम शेख हसीना के प्रधानमंत्री आवास के अंदर घुस गया. प्रधानमंत्री आवास में लोग इस तरह घुसे मानो चौराहे की कोई धर्मशाला. प्रधानमंत्री आवास के रसोई घर में जाकर लोग खाना निकालकर खाने लगे. लोगों ने शेख हसीना के घर में फर्नीचर को तोड़ डाला. ग्लास पैनल तोड़ दिए गए. बाहर खड़ी कार में भी तोड़फोड़ की गई. वो तो और अंदर जाना चाहते थे लेकिन प्रधानमंत्री आवास के अंदर खड़े बांग्लादेशी फौजी उन्हें आगे जाने से तब रोक रहे थे, लेकिन वो भी मनुहार के भाव में. ये उस शेख हसीना के खिलाफ बांग्लादेश में अशांति फैल रही थी, जो कुछ महीनों पहले ही भारी भरकम बहुमत के साथ सत्ता में लौटी थीं.

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खास बात ये है कि जिस तरह नेपाल में जेन जी ने आंदोलन का नेतृत्व किया, उसी तरह बांग्लादेश में भी जनाक्रोश को अंजाम तक छात्रों ने ही पहुंचाया. तब शेख हसीना सरकार के खिलाफ तो लाखों छात्र सड़कों पर उतर आए, लेकिन उनकी अगुवाई तीन ही छात्र कर रहे थे. उनका नाम है नाहिद इस्लाम, आसिफ महमूद और अबू बकर मजूमदार. इन तीनों में से भी नाहिद इस्लाम छात्र आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरा. नाहिद का कहना था कि वो शेख हसीना को हटाने के लिए आखिरी दम तक लड़ेगा. उसने लोगों से कहा अगर लाठी काम नहीं आई तो वो हथियार उठाने को भी तैयार है. ढाका यूनिवर्सिटी के छात्र नाहिद को बीस जुलाई को ढाका पुलिस ने उठा लिया था. उसकी बेहद निर्ममता से पिटाई हुई. शेख हसीना की सत्ता छिनने के बाद नई सरकार को लेकर नाहिद के इरादे सामने आने लगे. एक साल बाद भी बांग्लादेश के हालात बदले नहीं, बल्कि बिगड़े ही हैं. सिर्फ शेख हसीना के सत्ता से हटने के सिवा कुछ नहीं हुआ है. जिस नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनूस को बांग्लादेश का शासक बनाया गया, एक साल के अंदर उन पर भी आरोप लगा की वो सत्ता से ही चिपके रहना चाहते हैं. इससे एक बात साफ है की जहां किसी भी तरह सत्ता में बने रहना ही अहम हो जाता है, वहां महत्वकांक्षा का बबूस बोकर लोकतंत्र का आम पैदा नहीं किया जा सकता.

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बांग्लादेश अब भी राजनीतिक स्थिरता से कोसों दूर है. युनूस सरकार में शेख हसीना की पार्टी के नेताओं और हिन्दुओं को निशाना ही बनाया गया. साथ ही कट्टरता काफी बढ़ गई. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश की एक रिपोर्ट के मुताबिक अंतरिम सरकार बनने के बाद देश में राजनीतिक हिंसा की चार सौ इकहत्तर घटनाओं में एक सौ इक्कीस लोग मारे गए और पांच हज़ार एक सौ नवासी घायल हुए. वहीं इस दौरान राजनीतिक हिंसा की बयानबे फीसदी घटनाओं में पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी शामिल रही, जबकि कट्टरपंथी पार्टी जमात ए इस्लामी पांच प्रतिशत और छात्र आंदोलन से उपजी नेशनल सिटीजन पार्टी महज एक प्रतिशत घटनाओं में शामिल रही. उसी तरह मीडिया का मुंह बंद करने की भी कोशिश की गई. शेख हसीना के जाने के बाद से आठ सौ अठहत्तर पत्रकारों को निशाना बनाया गया, जिनमें एक सौ इक्कीस लोग मारे भी गए और ये सब उस मोहम्मद युनूस के राज में हुआ, जो खुद को शेख हसीना सरकार का सताया हुआ मान रहे थे, जबकि ये खुद उन पर एक साल के भीतर ही ये आरोप लगने लगे.

बांग्लादेश में पाकिस्तान फैक्टर

जब सारी लड़ाई लोकतंत्र के नाम पर ही हो रही थी तो फिर लोकतंत्र के लिए बांग्लादेश में जगह बन क्यों नहीं रही है. लोकतंत्र की मजबूती एक तरफ किसी देश के अंदरूनी हालात से जुड़ती है तो दूसरी तरफ उन देशों से जो कोई हिसाब चुकाना चाहते हैं. बांग्लादेश पाकिस्तान के लिए गले की हड्डी है जो ना उगलते बनता है, ना निगलते. पाकिस्तान अब तक उन्नीस सौ इकहत्तर की हार और विभाजन को भूला नहीं है. बांग्लादेश की युवा पीढ़ी और सत्ता की चाहत रखने वालों का एक धड़ा पाकिस्तान के झांसे में आ गया है. खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक शेख हसीना की सरकार पलटने में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ था.

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उस तख्तापलट को लेकर ऐसी खबरें आ रही थी कि हसीना की विरोधी पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी के कार्यकारी अध्यक्ष तारिक रहमान की मुलाकात आईएसआई के अधिकारियों से सऊदी अरब में हुई थी. जानकारों के मुताबिक पाकिस्तान नहीं चाहता था कि बांग्लादेश में कोई लोकतांत्रिक सरकार कायम रहे. खबरों के मुताबिक इसके लिए ढाका में आईएसआई के स्लीपर सेल लगातार काम कर रहे थे.  इसके लिए उन्होंने ढाका यूनिवर्सिटी, चटगांव यूनिवर्सिटी, जहांगीर यूनिवर्सिटी, सिलहट यूनिवर्सिटी और राजशाही यूनिवर्सिटी के छात्रों को अपना टूल बनाया.  इसके लिए आईएसआई की तरफ से जमाते इस्लामी और उसके स्टूडेंट विंग छात्र शिविर को इस्तेमाल किया गया. खबर तो ये भी आई की आईएसआई ने बांग्लादेश में वही मोडस ऑपरेंडी आजमाई जिसे वो कश्मीर में अंजाम देता है. उसके स्लीपर सेल ने बांग्लादेश में अशांति फैलाई हत्या और आतंक का माहौल बनाया जिससे हसीना सरकार की मुश्किलें बढ़ती चली गई. खुद शेख हसीना के बेटे सजीब वाजिद ने भी पाकिस्तान पर सवाल उठाए और जानकार भी मानते हैं की खासकर पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर चर्चा चलने लगी थी की इकहत्तर का बदला चुका दिया. 

अफगानिस्तान का हाल

अफगानिस्तान में तालिबान का कट्टरपंथी पंजा ऐसा पड़ा कि दुनिया के नक्शे पर वो देश अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहा है. और रही बात पाकिस्तान कि तो दुनिया में एक ऐसा देश है, जिसने आज़ादी तो भारत के साथ ही हासिल की थी, लोकतंत्र का नकाब भी पहना था, लेकिन दो चार साल के अंदर ही उस नकाब को उतार कर फौजी बूटों के नीचे कुचल दिया गया. पाकिस्तान का वो अलोकतांत्रिक चरित्र आज तक कायम है.

दूसरी तरफ भारत में लोकतंत्र का दीपक हमेशा चलता रहा है. बीच में उन्नीस महीने के लिए इमरजेंसी की काली रात ज़रूर आई, लेकिन उसको चीरकर लोकतंत्र का सूरज फिर से उदित हुआ. भारत के लोगों ने उन्नीस सौ सतहत्तर में सत्ता परिवर्तन करके ये बता दिया कि लोकतंत्र भारत के खून में रचा-बसा है. पीएम मोदी का एक भाषण आज भी चर्चित है...

जब इमरजेंसी लगी तो कुछ लोगों ने मान लिया था कि अब तो इमरजेंसी हमेशा ही लगी रहेगी. अब लोकतंत्र गया, लेकिन तब भी भारत का नागरिक उठ खड़ा हुआ और Emergency को उखाड़ फेंकने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगा.

आर्थिक मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि इंसान गरीबी सह लेता है, लेकिन तुलनात्मक गरीबी लोगों में आक्रोश पैदा करती है. यही आक्रोश नेपाल में पैदा हुआ. यही आक्रोश दो हज़ार चौबीस में बांग्लादेश में भी दिखा और श्रीलंका में भी. अर्थशास्त्री डॉ. शरद कोहली बताते हैं कि इस तंत्र को ध्यान से देखा जाए तो उसमें ज्यादातर युवा दिखाई देते हैं और आर्थिक कारणों में हम जाए तो इनका युवाओं से सीधा संबंध है. पहला बड़ा कारण रोजगार में अवसरों की कमी यानि की उस देश का आर्थिक विकास ना के बराबर है या बहुत ही धीमा है. भ्रष्टाचार बहुत बड़ा कारण है. आर्थिक असमानता इन देशों में कुछ लोग बहुत लक्जरी लाइफ बहुत अमीरी का जीवन जीते हैं और ज़्यादातर लोग ज्यादातर युवा को दो वक्त की रोटी या रोजगार के अवसर भी नहीं है. इन देशों की बहुत सारी अर्थव्यवस्था रेमिटेंस पर भी डिपेंड करती है यानि की विदेश से आने वाले जो पैसे होते हैं ये घटती-बढ़ती रहती है.

पाकिस्तान को उसकी फौज ने मारा

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बांग्लादेश में कई बार पाकिस्तान की तरह ही तख्ता पलट हुआ. इस पूरे भारतीय उप महाद्वीप में पाकिस्तान से ज्यादा बेहाल और बदहाल कोई भी देश नहीं है. वहां सेना के अधिकारी या तो तानाशाह बनकर राज करते हैं या लोकतंत्र के दिखावे वाली सरकार भी होती है, तो पीछे से सेना का ही राज चलता है. अब कहने को शहबाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन सबको पता है की सिक्का तो आर्मी चीफ आसिम मुनीर का चलता है. अमेरिका से लेकर चीन तक के राष्ट्रपतियों से मुनीर ही मिलते हैं. मुनीर को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख पद से जब प्रधानमंत्री पद की हैसियत से इमरान खान ने हटा दिया था तो मुनीर ने इसे गांठ बांध लिया. मुनीर कुछ समय बाद आर्मी चीफ हुए और भ्रष्टाचार के आरोप में इमरान खान जेल पहुंचा दिए गए. उनके समर्थकों के तमाम विरोध प्रदर्शन के बावजूद सेना के कान पर जू तक नहीं देंगे. पहलगाम में छब्बीस हिंदुस्तानियों की निर्मम हत्या से कुछ दिनों पहले मुनीर ने मोहम्मद अली जिन्ना की भाषा बोलना शुरू कर दिया था. हालांकि, खुद पाकिस्तान की हालत ये है कि वो कर्ज के बल पर जी रहा है. लोग महंगाई और भूख से मर रहे हैं. मगर वो सिर्फ और सिर्फ बदले की आग में जल रहा है और दूसरों को भी जला रहा है.

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