ज्ञानवापी केस: प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट मामले की सुनवाई टली, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब दाखिल करने को कहा

सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सरकार इस मुद्दे पर चर्चा कर रही है और बातचीत चल रही है. ऐसे में उन्हें जवाब दाखिल करने के लिए उचित समय चाहिए.

ज्ञानवापी केस: प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट मामले की सुनवाई टली, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब दाखिल करने को कहा

अब जनवरी के पहले सप्ताह मे इस मामले की सुनवाई होगी.

नई दिल्ली:

ज्ञानवापी से जुड़े प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट मामले की सुनवाई आज टल गई है. सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसंबर तक केंन्द्र को जवाब दाखिल करने को कहा. अब जनवरी के पहले सप्ताह मे इस मामले की सुनवाई होगी. सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सरकार इस मुद्दे पर चर्चा कर रही है और बातचीत चल रही है. ऐसे में उन्हें जवाब दाखिल करने के लिए उचित समय चाहिए. 9 सितंबर को प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को तीन जजों की बेंच के पास भेजा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने सभी याचिकाओं  पर केंद्र को नोटिस जारी किया था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को 31 अक्तूबर तक जवाब दाखिल करने को कहा था. याचिकाओं में कहा गया है यह कानून संविधान द्वारा दिए गए न्यायिक समीक्षा के अधिकार पर रोक लगाता है.

कानून के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत दिए गए अदालत जाने के मौलिक अधिकार के चलते निष्प्रभावी  हो जाते हैं. ये ऐक्ट  समानता, जीने के अधिकार और पूजा के अधिकार का हनन करता है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने मार्च  2021 में 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट(  पूजा स्थल कानून)  की वैधता का परीक्षण करने पर सहमति जताई थी . अदालत ने इस मामले में भारत सरकार को नोटिस जारी कर  उसका जवाब मांगा था. बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने अपनी जनहित याचिका में कहा है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट को खत्म किए जाने की मांग की है ताकि इतिहास की गलतियों को सुधारा जाए और अतीत में इस्लामी शासकों द्वारा अन्य धर्मों के जिन-जिन पूजा स्थलों और तीर्थ स्थलों का विध्वंस करके उन पर इस्लामिक ढांचे बना दिए गए, उन्हें वापस उन्हें सौंपा जा सकें जो उनका असली हकदार हैं.

अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991 के प्रावधान मनमाने  और गैर संवैधानिक हैं, उक्त प्रा‌वधान संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26 एवं 29 का उल्लंघन करता है. संविधान के समानता का अधिकार, जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 दखल देता है, केंद्र सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर ये कानून बनाया है. पूजा पाठ और धार्मिक विषय राज्य का विषय है और केंद्र सरकार ने इस मामले में मनमाना कानून बनाया है. भारत में मुस्लिम शासन 1192 में स्थापित हुआ जब मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर दिया था, तब से 1947 तक भारत पर विदेशी शासन ही रहा. इसलिए अगर धार्मिक स्थलों के चरित्र को बरकरार रखने का कोई कट ऑफ डेट तय करना है तो वह 1192 होना चाहिए.

जिसके बाद हजारों मंदिरों और हिंदुओं, बौद्धों एवं जैनों के तीर्थस्थलों का विध्वंस होता रहा और मुस्लिम शासकों ने उन्हें नुकसान पहुंचाया या उनका विध्वंस कर उन्हें मस्जिदों में तब्दील कर दिया. दरअसल  देश की तत्कालीन नरसिंम्हा राव सरकार ने 1991 में  उसने प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट यानी उपासना स्थल कानून बनाया था. कानून लाने का मकसद अयोध्या रामजन्मभूमि आंदोलन को बढ़ती तीव्रता और उग्रता को शांत करना था. सरकार ने कानून में यह प्रावधान कर दिया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद के सिवाय देश की किसी भी अन्य जगह पर किसी भी पूजा स्थल पर दूसरे धर्म के लोगों के दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा. इसमें कहा गया कि देश की आजादी के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को कोई धार्मिक ढांचा या पूजा स्थल जहां, जिस रूप में भी था, उन पर दूसरे धर्म के लोग दावा नहीं कर पाएंगे.

इस कानून से अयोध्या की बाबरी मस्जिद को अलग कर दिया गया या इसे अपवाद बना दिया गया, क्योंकि ये विवाद आजादी से पहले से अदालतों में विचाराधीन था. इस ऐक्ट में कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था वो आज, और भविष्य में, भी उसी का रहेगा. हालांकि अयोध्या विवाद को इससे बाहर रखा गया क्योंकि उस पर कानूनी विवाद पहले का चल रहा था. प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट ( पूजा स्थल कानून) के समर्थन में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर इस कानून का समर्थन किया.

 प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट के खिलाद दाखिल याचिकाओं में पक्षकार बनने की मांग करते हुए कहा बाबरी विध्वंस के बाद समाज में जिस तरह तनाव हुआ था वो दुबारा न हो इस लिए कानून बनाया गया था. इस लिए इस कानून को रद्द नही किया जाना चाहिए. दरअसल सबसे पहले विष्णु जैन और हरिशंकर जैन ने  विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ की ओर से याचिका जुलाई 2020 में दाखिल की थी. तब वर्चुअल सुनवाई को वजह से याचिकाकर्ताओं के आग्रह  पर तीन जजों की पीठ  10 सुनवाई 2020 को सुनवाई चार हफ्ते के लिए टाल दी थी. इसके करीब आठ महीने बाद अश्विनी उपाध्याय ने इसी आशय की अपनी याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने मार्च 2021 को मेंशन की और कोर्ट ने केंद्र सरकार के नाम नोटिस जारी कर रुख स्पष्ट करने को कहा.

अयोध्या फैसले के बाद सबसे पहले 12 जून 2020 को हिंदू पुजारियों के संगठन विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने इसे चुनौती दी थी. याचिका में काशी व मथुरा विवाद को लेकर कानूनी कार्रवाई को फिर से शुरू करने की मांग  की गई है. याचिका में कहा गया है कि इस एक्ट को कभी चुनौती नहीं दी गई और ना ही किसी कोर्ट ने न्यायिक तरीके से इस पर विचार किया. अयोध्या फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने इस कानून का हवाला देते हुए बारे में टिप्पणी भी की थी. इसके बाद से ही इस कानून पर सवाल उठाने वाली याचिकाएं दाखिल करने का सिलसिला ही चल निकला. 

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