जंगल से जुड़े कानूनों को लेकर एनडीए सरकार एक बार फिर से कटघरे में है। पर्यावरण मंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी किया है, जिसके मुताबिक जंगल के भीतर ऐसे कार्यों के लिए ज़मीन लेते वक्त केंद्र सरकार की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है, जहां पेड़ न काटे जा रहे हों या खनन न हो रहा हो।
केंद्र सरकार ने ये आदेश बीती सात अक्टूबर को जारी किया, जिसमें राज्य सरकारों को ये अधिकार दिया है कि वह किसी कंपनी, संस्था या फर्म को गैरवानिकी काम (जो अस्थाई हो) के लिए ज़मीन देने के लिए किसी नौकरशाह को अधिकृत करे। ये अधिकारी डीएफओ लेवल का हो सकता है।
जानकार कहते हैं कि इस आदेश से केंद्र सरकार 1980 में बनाए गए वन संरक्षण कानून का सीधा उल्लंघन कर रही है। कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता रहे सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ''इस आदेश के लागू होने का मतलब है कि खनन से पहले किसी खनिज की खोज या सर्वे के लिए कंपनियां केंद्र सरकार की अनुमति के बगैर जंगल में घुस सकती हैं। सर्वे के वक्त कोई पेड़ नहीं काटा जाता यानी डीएफओ स्तर का अधिकारी इसकी इजाज़त दे सकता है। अभी इस तरह की गतिविधि के लिए कानून के तहत केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव भेजा जाता है लेकिन ये कानून उस बाध्यता को खत्म कर देता है।'
केंद्र सरकार के अधिकारियों की दलील है कि लालफीताशाही को कम करने के लिए राज्यों को अधिकार दिए जा रहे हैं, ताकि गैरमाइनिंग इलाकों में जहां पेड़ न कट रहे हों, वहां राज्य सरकार के डीएफओ लेवल के अधिकारी अनुमति दे दें।
केंद्र सरकार में सूत्रों का कहना कि ये अनुमति केवल अस्थाई काम के लिए है जहां न तो पेड़ कटेंगे न माइनिंग होगी। लेकिन कानून के जानकार कह रहे हैं कि अगर केंद्र ऐसा बदलाव करना चाहता है तो उसे संसद के ज़रिए 1980 के वन संरक्षण कानून में संशोधन कराना चाहिए।
इस बदलाव से ये डर भी जताया जा रहा है कि निचली नौकरशाही को मिले अधिकार भ्रष्टाचार को बढ़ावा देंगे। माइनिंग कंपनियां अभी जंगल के बड़े हिस्से में केंद्र सरकार से ही इजाज़त लेती हैं।
ताज़ा नियम के लागू होने से माइनिंग क्षेत्र से जुड़े आसपास के जंगलों में (जहां माइनिंग नहीं हो रही) कंपनियां अनुमति हासिल कर लेंगी और वहां गैरकानूनी तरीके से कई गतिविधियां चलाई जा सकती है।
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