मंहगी ब्रांडेड दवाओं की जगह सस्ती जेनरिक दवाओं का चलन बढ़ाने के लिए महाराष्ट्र फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन यानी एफडीए ने प्रिस्क्रिप्शन का एक मॉडल फॉर्मेट बनाया है। जिसमें डॉक्टरों को दवाओं के ब्रांडेड नाम की बजाए कंटेंट यानी दवाई का नाम लिखने की सलाह दी गई है।
एफडीए के इस मॉडल फॉर्मेट के मुताबिक जहां तक संभव हो जेनरिक दवाई ही लिखने की सलाह के साथ दवाई का नाम कैपिटल लेटर में और साफ-साफ लिखने की हिदायत दी गई है ताकि मरीज और फार्मासिस्ट उसे आसानी से पढ़ सकें। इसके अलावा ये भी कहा गया है कि मरीज अगर अपनी पसंद की कोई सस्ती जेनरिक दवाई चाहता है तो वो भी लिखें।
एफडीए के सह आयुक्त ओपी साधवानी के मुताबिक कई बार देखा गया है कि गरीब मरीज ब्रांडेड दवाएं नहीं खरीद पाता है क्योंकि वो महंगी होती हैं। जबकि जेनरिक में वही दवा आधे से भी कम कीमत में उपलब्ध होती हैं। चूंकि डॉक्टर जेनरिक दवाई लिखते नहीं हैं इसलिये मरीज चाहकर भी उसे खरीद नहीं पाता।
ड्रग एंड कॉस्मेटिक रूल के मुताबिक केमिस्ट खुद किसी दवाई का सब्स्टिट्यूट नहीं बेच सकता। एफडीए की मजबूरी है कि वो सीधे डॉक्टरों को आदेश नहीं दे सकता इसलिये मेडिकल एसोसियेशन और मेडिकल काउंसिल जैसी डॉक्टरों की संस्थाओं का सहारा ले रहा है। लेकिन ज्यादातर डॉक्टरों का कहना है कि किस मरीज को क्या दवा दी जाए ये तय करने का आधिकार सिर्फ डॉक्टर का होता है।
फीजियशन डॉ. आशिष तिवारी बताते हैं कि जेनरिक दवाईओं की गुणवत्ता एक बड़ी समस्या है। अगर सरकार इस बात की जिम्मेदारी ले कि जेनरिक दवाएं भी उतनी ही असरदार और कारगर हैं जितनी ब्रांडेड तभी बात बनेगी। हालांकि शहर में अब जेनरिक मेडिकल स्टोर खुलने शुरू हो गए हैं जो लोगों को जागरूक करने में लगे हैं। और उनका दावा है कि ब्रांडेड और जेनरिक में सिर्फ नाम का ही फर्क है कंटेंट और दवाई के असर में कोई अंतर नहीं है।
एक जेनरिक मेडिकल स्टोर के मैनेजर विनोद सिनकर के मुताबिक ब्रांडेड दवा और जेनरिक दवा की कीमत में जमीन-आसमान का फर्क है। मसलन एसीडीटी की ब्रांडेड दवा का एक पत्ता बाजार में तकरीबन 100 रुपये में बिकता है जबकि उसी कंटेंट की जेनरिक दवाई का एक पत्ता 20 से 25 रुपये में उपलब्ध है।
लेकिन ये भी हकीकत है जिस देश में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है और जहां सस्ता माने नकली माना जाता है। उस देश में बिना डॉक्टरों की सलाह पर जेनरिक दवाओं का प्रचलन बढ़ाना कठीन काम है।
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