एनडीटीवी को मिली जानकारी के मुताबिक अयोध्या मसले पर मध्यस्थता में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड मंदिर के लिए विवादित ज़मीन पर दावा छोड़ने के लिए तैयार था. उसका यह भी कहना था कि वह इसके बदले मस्जिद बनाने के लिए कोई जमीन नहीं लेगा. लेकिन वक्त की कमी से एक और पक्षकार को मनाया नहीं जा सका.अब मुस्लिम उलेमा का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि मुक़दमे की सुनवाई के साथ-साथ मध्यस्थता फिर शुरू की जाए ताकि मसले का हल कोर्ट के बाहर निकल आए.
अयोध्या विवाद में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में पिटीशनर है क्योंकि बाबरी मस्जिद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में वक़्फ़ की मस्जिद के तौर पर दर्ज थी. समझौते के कई दौर चले.पहले दौर में सभी मुस्लिम पक्षकारों ने पेशकश की की वे हाई कोर्ट के उस फ़ैसले को मान लेंगे जिसमें विवादित जमीन टीन हिस्सों में बांटकर एक तिहाई मुसलमानों को दी गई थी. वह पूरी जमीन पर दावा छोड़ देंगे. एक तिहाई जमीन पर मस्जिद बना लेंगे और दो तिहाई मंदिर के लिए छोड़ देंगे. लेकिन दूसरा पक्ष इस पर राज़ी नहीं था. समझौते के आख़िरी दौर में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने विवादित जमीन से दावा छोड़ने की पेशकश की थी. उसकी सुप्रीम कोर्ट से यह मांगें थीं-
1.प्लेसस ऑफ वर्सिप (स्पेशल प्रावीजंस ) एक्ट 1991 को सख्ती से लागू कराया जाए, जिसके मुताबिक अयोध्या के अलावा सभी धर्म स्थानों की 1997 की स्थिति कायम रहेगी.
2. जो मस्जिदें ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) के पास हैं उनमें मुमकिन हो तो नमाज़ की इजाज़त दी जाए.
3. अयोध्या की दूसरी मस्जिदों में मरम्मत की इजाज़त दी जाए
4. अयोध्या में 1992 में मारे गए मुस्लिम लोगों के परिवारों को मदद दी जाए.
सूत्रों के मुताबिक सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड मंदिर के लिए जमीन देने के बदले मस्जिद बनाने के लिए सरकार से कोई जमीन नहीं चाहता था. उसका कहना था कि मंदिर के लिए जमीन देकर बदले में मस्जिद के लिए जमीन लेना सौदेबाजी होगी. मुसलमान चाहेंगे तो वे अपने पैसे से कहीं मस्जिद बना लेंगे.
अयोध्या ज़मीनी विवाद में आठ मुस्लिम पक्षकार हैं जिनमें चार निजी याची इकबाल अंसारी, हाजी महबूब, मोहम्मद उमर, मिजबाहुद्दीन और मौलाना महफूजुर्रहमान हैं. जबकि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद का रिप्रेजेंटेटिव सूट है. इनमें से ज़्यादातर याची पहले से ही विवादित जमीन छोड़ने को लेकर लचीला रुख़ रखते हैं. इनमें इकबाल अंसार और हाजी महबूब भी शामिल हैं.
सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता कमेटी के अलावा भी कई लोग निजी तौर पर मध्यस्थता में शामिल लोगों को सुलह के लिए समझाने का काम कर रहे थे. इनमें सेंटर फॉर ऑब्जेक्टिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट के डायरेक्टर अतर हुसैन भी थे. उनका कहना है कि “सुलह के लिए रिप्रजेंटेरेटिव सूट वाले दोनों पक्षकारों का इसमें राज़ी होना ज़रूरी था. लेकिन वक़्त कम होने की वजह से जमीयत उलेमा-ए-हिंद को इसके लिए मनाया नहीं जा सका. थोड़ा वक्त और मिल जाता तो सुलह हो जाती. वक्त कम होने से हमारी पूरी मेहनत ज़ाया हो गई.”
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उद्योग घराने अल्लाना संस के डायरेक्टर फ़ौज़ान अल्वी ने एनडीटीवी से कहा कि “मीडिएशन ही इसका सबसे बेहतर हाल है. कोर्ट का फ़ैसला जिस समुदाय के खिलाफ आएगा उसके अंदर हारने की हीन भावना पैदा होगी. फिर कोर्ट के फ़ैसले से हिंसा का अंदेशा है. अगर फ़ैसला मस्जिद के पक्ष में आया तो वहां अब मस्जिद नहीं बन सकती, इससे हिंसा होगी. अगर मंदिर के पक्ष में आया तो पूरे देश में गली-गली विजय जुलूस,आतिशबाज़ी और भड़काऊ नारे लगेंगे. उससे भी हिंसा होगी. देश पहले ही रिसेशन में जा रहा है. कोई भी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा एकॉनोमी को और पीछे ले जाएगी.”
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मेंबर मौलाना खालिद रशीद फिरंगीमहली ने एनडीटीवी से कहा कि “घरेलू झगड़ों के समझौतों में महीनों लगते हैं. कॉर्पोरेट घरानों की मध्यस्थता में 9-10 महीने लग जाते हैं. देश के इतने बड़े मसले पर सुलह के लिए सिर्फ साढ़े तीन महीने मिले, जबकि बीच में आम चुनाव, एक महीना रमजान और अदालत में गर्मियों की छुट्टी भी हो गई. अगर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के साथ-साथ मीडिएशन कमेटी को अपना काम पूरा करने की इजाजत मिल जाए तो इंशा अल्लाह समझौता हो सकता है.”
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