प्रोफेसर अमरनाथ झा पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रमुख थे. लेकिन वो ताउम्र हिंदी को उसका अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहें.वो अंग्रेजी के साथ-साथ फारसी, संस्कृत, उर्दू और बंगाली में भी महारत रखते थे.लेकिन उनका विशेष लगाव हिंदी से था. इसे देखते हुए उन्हें राजभाषा आयोग का सदस्य बनाया गया था.
कहां के रहने वाले थे अमरनाथ झा
शिक्षाविद प्रोफेसर अमरनाथ झा का जन्म बिहार के मधुबनी जिले में 25 फरवरी, 1897 को हुआ था.वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे. अमरनाथ झा अपने समय के सबसे योग्य अंग्रेजी के प्रोफेसर थे. उन्होंने शिक्षा जगत में बहुमूल्य योगदान दिया.
अंग्रेजी का विद्वान होने के साथ-साथ वे फारसी, संस्कृत, उर्दू, बंगाली और हिंदी भाषा के अच्छे जानकार थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी. एमए की परीक्षा में वे 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय'के टॉपर थे. उनकी योग्यता को देखते हुए एमए पास करने से पहले ही उन्हें प्रांतीय शिक्षा विभाग में अध्यापक नियुक्त कर लिया गया था.
प्रोफेसर अमरनाथ झा ने हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए बहुमूल्य योगदान दिया था.सरकार ने हिंदी को राजभाषा बनाने के उनके सुझाव को स्वीकार किया था. सरकार ने हिंदी को 'राजभाषा' का दर्जा दिया था.
दो विश्वविद्यालयों में कुलपति रहे
वो 1930 से 1937 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रमुख रहे. उन्हें 32 साल की आयु में नियुक्त किया गया था. यहां वे प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहने के बाद 1938 में विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने और वर्ष 1947 तक इस पद पर बने रहे. उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय ने बहुत उन्नति की और उसकी गणना देश के उच्च कोटि के शिक्षा संस्थानों मे होने लगी. उन्होंने एक साल के लिए वाराणसी के'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के कुलपति के रूप में भी काम किया. वो उत्तर प्रदेश और बिहार के 'लोक सेवा आयोग' के अध्यक्ष रहे.
अपनी विद्वता के कारण देश-विदेश में सम्मान पाने वाले अमरनाथ झा का बतौर साहित्यकार साहित्यों के प्रति जुनून था. उनकी लाइब्रेरी में बड़ी संख्या में किताबें थीं. किताबें उनके जीवन का अटूट हिस्सा थीं. इसके साथ ही उन्होंने अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया.उन्हें पटना विश्वविद्यालय ने डी.लिट् की उपाधि दी थी. शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 1954 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया. उनका निधन दो सितंबर, 1955 को हुआ था.
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