
Dolo 650 Trending: भारत में पैरासिटामोल हर जगह आसानी से मिल जाती है. बहुत से लोग बुखार के मामूली लक्षण होने पर भी इसे ले लेते हैं. मगर डोलो 650 हाल के सालों में भारत में सबसे लोकप्रिय हो गया है. इसकी खपत भी काफी बढ़ गई है. भारतीयों की इसी आदत को अमेरिका में रहने वाले गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट डॉ. पलानीअप्पन मनिकम ने एक ट्वीट के जरिए उजागर किया है. उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, "भारतीय डोलो 650 को कैडबरी जेम्स की तरह लेते हैं." इस एक ट्वीट पर लाखों री-ट्वीट हो चुके हैं और सोशल मीडिया पर बहस गर्म हो गई है.
Indians take Dolo 650 like it's cadbury gems
— Palaniappan Manickam (@drpal_manickam) April 14, 2025
भारत में डॉक्टर आमतौर पर बुखार, सिरदर्द, शरीर में दर्द और हल्के दर्द के लिए डोलो-650 की सलाह देते हैं, क्योंकि यह काफी राहत देता है और दूसरी दवाओं की तुलना में आम तौर पर सुरक्षित है. हालांकि, किसी भी दवा की तरह इसका भी अधिक उपयोग हानिकारक हो सकता है. खासकर लीवर के लिए, इसलिए डॉक्टर की सलाह लिए बगैर इसका इस्तेमाल हानिकारक हो सकता है. COVID-19 महामारी के दौरान इस दवा की लोकप्रियता में उछाल देखा गया, खासकर जब लोगों को साइड इफेक्ट्स को रोकने के लिए टीकाकरण के बाद पैरासिटामोल लेने की सलाह दी गई थी.
जानिए कितनी बढ़ी डोलो 650 की खपत

डोलोपार टैबलेट की उत्तराधिकारी डोलो 650 टैबलेट में पैरासिटामोल होता है, जो प्रोस्टाग्लैंडीन के बहाव को रोकता है. प्रोस्टाग्लैंडीन का बहाव दर्द, सूजन और बुखार का कारण बनता है. यह बुखार के मामलों में शरीर के तापमान को भी कम करता है. फोर्ब्स के अनुसार, माइक्रो लैब्स ने 2020 में कोविड-19 प्रकोप के बाद से डोलो 650 की 350 करोड़ से अधिक गोलियां बेची हैं और एक साल में 400 करोड़ रुपये कमाए. मार्केट रिसर्च फर्म IQVIA के अनुसार, महामारी शुरू होने से पहले माइक्रो लैब्स ने सालाना डोलो-650 की लगभग 7.5 करोड़ स्ट्रिप्स बेची थी. एक साल बाद, यह बढ़कर 9.4 करोड़ स्ट्रिप्स हो गई, जो 2021 के अंत तक 14.5 करोड़ स्ट्रिप्स तक पहुंच गई, जो 2019 के आंकड़े से लगभग दोगुनी है.
एंटीबायोटिक असर नहीं कर रहे
एंटीबायोटिक्स का भी यही हाल है. इनका भी लोग धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. एक नए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार, साल 2022 में दुनिया भर में 30 लाख से अधिक बच्चों की मौत ऐसे संक्रमणों के कारण हुई, जिन पर एंटीबायोटिक (Antibiotic) असर नहीं कर पाईं. इस स्थिति को एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) कहा जाता है. यह अध्ययन ऑस्ट्रिया के वियना शहर में ‘ईएससीएमआईडी ग्लोबल 2025' कार्यक्रम के दौरान पेश किया गया. इसमें दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका जैसे इलाकों में बच्चों के इलाज में इस गंभीर समस्या को लेकर चिंता जताई गई. जब शरीर में संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं पर प्रतिक्रिया करना बंद कर देते हैं, तब उस स्थिति को एएमआर कहा जाता है. यह बच्चों के लिए खासतौर पर खतरनाक है क्योंकि उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और उनके लिए नई दवाएं भी जल्दी उपलब्ध नहीं हो पातीं. 2022 में अकेले दक्षिण-पूर्व एशिया में 7.5 लाख और अफ्रीका में करीब 6.6 लाख बच्चों की मौत एएमआर से जुड़ी जटिलताओं के कारण हुई.
एंटीबायोटिक लेने का अंजाम
शोधकर्ताओं का कहना है कि 'वॉच एंड रिज़र्व' वाली एंटीबायोटिक दवाएं शुरुआती इलाज के लिए नहीं हैं. बहुत से मामलों में 'वॉच' और 'रिजर्व' श्रेणी की एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया गया, जो कि आमतौर पर गंभीर और विशेष मामलों के लिए रखी जाती हैं. शोधकर्ताओं के अनुसार, इन्हें शुरुआत में इलाज के लिए नहीं दिया जाना चाहिए. इनका इस्तेमाल सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए होना चाहिए, जिन्हें सच में इनकी जरूरत है, ताकि ये दवाएं असरदार बनी रहें और बैक्टीरिया में इनके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता न बढ़े. एक अध्ययन में यह पाया गया है कि लंबे समय तक एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल करने से पार्किंसंस रोग का जोखिम बढ़ सकता है. एशियाई लोगों पर इन निष्कर्षों को सही साबित करने के लिए, सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी अस्पताल, दक्षिण कोरिया के शोधकर्ताओं ने 40 साल और उससे अधिक उम्र के 298,379 लोगों की जांच की, जिन्होंने 2004-2005 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य परीक्षण करवाया था. न्यूरोलॉजी क्लिनिकल प्रैक्टिस जर्नल में प्रकाशित निष्कर्षों से यह पता चला है कि जो लोग एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल नहीं करते, उनके मुकाबले जो लोग 121 दिनों से ज्यादा समय तक एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करते हैं, उन्हें पार्किंसंस रोग का खतरा 29 प्रतिशत ज्यादा होता है.इसके अलावा, जो लोग 1 से 14 दिनों तक एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, उनकी तुलना में जो लोग 121 दिनों से ज्यादा समय तक एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करते हैं, उन्हें पार्किंसंस रोग का खतरा 37 प्रतिशत ज्यादा होता है.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक पोस्ट में इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल, हैदराबाद के डॉ. सुधीर कुमार ने एंटीबायोटिक दवाओं और पार्किंसंस रोग के बीच संबंध के पीछे आंत की भूमिका को एक संभावित कारण के रूप में बताया.कुमार ने कहा, "एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग आंत के माइक्रोबायोटा को बदल सकता है और यह बदलाव कई सालों तक जारी रह सकता है. एंटीबायोटिक्स गट-ब्रेन एक्सिस को प्रभावित कर सकते हैं." उन्होंने यह भी कहा कि एंटीबायोटिक्स ब्रेन पर न्यूरोटॉक्सिक प्रभाव डाल सकते हैं.
एंटीबायोटिक पर जानिए नई रिपोर्ट
कर्नाटक सरकार के एक गुपचुप सर्वे से तो ये पता लगा कि 80% दवा विक्रेता बिना डॉक्टर की पर्ची के एंटीबायोटिक की बिक्री कर देते हैं. इन हालात में ऐसे सुपरबग विकसित हो रहे हैं, जिन पर ये एंटीबायटिक अब कारगर ही नहीं हो रहे. वैज्ञानिक इस चुनौती से निपटने के लिए दिन रात रिसर्च कर रहे हैं. कनाडा के हैमिल्टन की मैक मास्टर यूनिवर्सिटी के एक कैमिकल बायोलोजिस्ट गैरी राइट के हवाले से बताया कि एंटीबायटिक रिज़िस्टेंस, दवाओं की पूरी व्यवस्था के लिए एक बड़े ख़तरे की तरह है. राइट और उनके वैज्ञानिक साथी ऐसे माइक्रोब्स का पता लगाने पर काम कर रहे हैं, जिनमें बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारने की नई क्षमताएं हों.नई एंटीबायटिक की खोज इसलिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि दुनिया की एक बड़ी आबादी में बैक्टीरिया ने सामान्य एंटीबायटिक के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है, जिसकी वजह से उन पर ये एंटीबायटिक काम नहीं कर पातीं.एंटीबायटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके बैक्टीरिया को सुपरबग कहा जाता है. सुपरबग की समस्या दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती बन गई है. ऐसा हुआ है एंटीबायटिक के बढ़ते दुरुपयोग के कारण. जैसा कि हम जानते हैं कई लोग बीमारियों के इलाज के लिए ख़ुद ही एंटीबायटिक यानी एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं. एंटीमाइक्रोबियल रिज़िस्टेंस तब होता है, जब संक्रामक माइक्रोब्स जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फंजाई या अन्य परजीवी ऐसी क्षमता विकसित कर लें कि वो उनसे निपटने से जुड़ी दवाओं को बेअसर कर दें.
एंटीबायोटिक के कारण हो रही लाखों मौतें

दुनिया में इसे साइलेंट एपिडेमिक माना जा रहा है जो मानवता के सामने सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर खड़ा हो गया है. पिछले साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय बैठक हुई. भारत के लिहाज़ से ये ज़्यादा अहम है, क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंट टीबी से ग्रस्त आबादी भारत में हैं. इसकी वजह है एंटीबायोटिक्स का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और ग़लत इस्तेमाल. हर साल दुनिया भर में क़रीब 77 लाख लोगों की बैक्टीरियल इन्फेक्शन से मौत होती है और इनमें से क़रीब 50 लाख मौतें एंटीबायोटिक रिज़िस्टेंस या सुपरबग से जुड़ी हैं. 2019 में भारत में एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस से जुड़ी मौतों की संख्या 3 लाख थी.
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