नई दिल्ली:
70 साल के श्यामलाल अग्रवाल ओडिशा राइस मिलर्स एसोसिएशन के प्रमुख हैं... बरगड़ जिले में उनकी तीन राइस मिल और एक सॉल्वेंट एक्सट्रैक्शन प्लांट (खाद्य तेल बनाने वाला प्लांट) है। उनके रिश्तेदारों की भी राज्य में कई राइस मिलें हैं, फिर भी वह कहते हैं कि राइस मिल चलाना घाटे का सौदा है, और इस धन्धे में टिके रहना बहुत कठिन।
श्यामलाल अग्रवाल हमें बताते हैं, "कर्मचारियों को जो वेतन हमें देना पड़ता है और बिजली का खर्च या मिल चलाने में जो खर्च आता है, उसके बाद कुछ भी नहीं बचता... सरकार ने हमें दिया जाने वाला मिलिंग चार्ज पिछले 10 साल से नहीं बढ़ाया है... हमारे लिए इस धंधे में टिके रहना आसान नहीं है..."
अग्रवाल की इस पीड़ा के बावजूद उनका कारोबार पिछले कुछ सालों में फला-फूला है और उनका इरादा इसे छोड़ने का कतई नहीं है। अग्रवाल की तरह बरगड़ के जयप्रकाश लाट ने भी चावल के कारोबार में खूब तरक्की की है। वह कहते हैं कि उन्होंने महज़ 65 रुपये से शुरुआत की थी और आज वह कई राइस मिलों के मालिक हैं। वह कहते हैं कि धन्धा कठिन है, लेकिन काम चला रहे हैं।
"घाटा या परेशानी तो किसी भी धन्धे में होती है, लेकिन कामयाब वही आदमी होता है, जो बिजनेस को सोच-समझकर करता है..."
बरगड़ ज़िले में राज्य के 25 फीसदी धान की सरकारी खरीद होती है। पिछले कुछ सालों में राइस मिलों की संख्या यहां बढ़ती ही रही। आज पूरे राज्य में जहां 1,000 से अधिक राइस मिलें हैं, वहीं बरगढ़ में पिछले एक दशक में इनकी संख्या चार से बढ़कर 104 हो गई है। लेकिन विडम्बना यह है कि इसी बरगड़ में कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान लगातार खुदकुशी करते रहे हैं।
आखिर इस विरोधाभास का सच क्या है...? दिसंबर में संसद में रखी गई सीएजी की रिपोर्ट कहती है 2009-10 से 2013-14 के बीच धान की खरीद में कई गड़बड़ियां हुईं... इस रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले कई सालों में किसानों का हक मारा गया और मिल मालिकों को नाजायज़ फायदा पहुंचा।
मिसाल के तौर पर
सीएजी अपनी रिपोर्ट में कहती है - बाई-प्रोडक्ट से होने वाली कमाई में खासी बढ़ोतरी के बावजूद सरकार ने मिल मालिकों को दिए जाने वाले मिलिंग चार्ज को साल 2005 से अभी तक नहीं बदला है। इससे मिल मालिकों को 3,743 करोड़ रुपये का अतिरिक्त फायदा हुआ। आरटीआई कार्यकर्ता गौरीशंकर जैन कहते हैं कि इस मामले में वह केंद्र और राज्य सरकार से शिकायत करते रहे हैं।
गौरीशंकर जैन ने NDTV इंडिया से कहा, "मेरी शिकायत का सरकार ने संज्ञान लिया और फिर इसे लेकर जो सीएजी जांच हुई, उसमें हज़ारों करोड़ रुपये की गड़बड़ी की बात सामने आई है। सरकार न केवल मिल मालिकों को राइस ब्रान, ब्रोकन राइस और भूसी से होने वाली कमाई को कई साल से अनदेखा कर रही है, बल्कि मिल मालिक इन बाई-प्रोडक्ट्स से होने वाली कमाई पर कोई इन्कम टैक्स भी नहीं दे रहे हैं..."
उधर मिल मालिकों का कहना है कि अगर वे बाज़ार में टिके हैं तो केवल बाई-प्रोडक्ट से हो रही आमदनी के दम पर, क्योंकि सरकार ने पिछले कई साल से धान की कुटाई के दाम नहीं बढ़ाए हैं और आज भी प्रति क्विंटल 20 रुपये ही मिलिंग चार्ज मिलता है।
उधर किसान कहते हैं कि सरकार इस ओर ध्यान ही नहीं दे रही है। बरगड़ के किसान जेके साहू और पीके गणपति कहते हैं, "मिल मालिक तो लगातार अमीर हो रहे हैं... इस धन्धे में इतनी कमाई हो रही है कि अगर आप बरगड़ के मिल मालिकों का बायोडाटा उठा लें तो पता चलेगा कि जो कुछ साल पहले तक मामूली लोग थे, वे आज न केवल मिल मालिक हैं, बल्कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में उनके पास ढेर सारी संपत्ति भी है..."
लेकिन सरकारी अधिकारी विजय कुमार रथ कहते हैं कि अगर किसानों को घाटा और मिल मालिकों को फायदा हो रहा है तो यह सिर्फ नीतिगत गड़बड़ी की वजह से है। हमारा काम मिल मालिकों को धान मिलिंग के पैसे देना और उनसे 67 प्रतिशत चावल वापस लेना है। बाई-प्रोडक्ट के बारे में पॉलिसी में कोई व्यवस्था नहीं है।
सो, भले ही इस कमी के लिए नीतिगत गड़बड़ियां ज़िम्मेदार हों, लेकिन यह भी सच है कि जहां मिल मालिकों ने बरगड़ समेत उड़ीसा और पूरे देश में एक बड़ा साम्राज्य खड़ा किया है, वहीं किसानों के लिए हाल हर जगह खराब ही होते गए हैं।
श्यामलाल अग्रवाल हमें बताते हैं, "कर्मचारियों को जो वेतन हमें देना पड़ता है और बिजली का खर्च या मिल चलाने में जो खर्च आता है, उसके बाद कुछ भी नहीं बचता... सरकार ने हमें दिया जाने वाला मिलिंग चार्ज पिछले 10 साल से नहीं बढ़ाया है... हमारे लिए इस धंधे में टिके रहना आसान नहीं है..."
अग्रवाल की इस पीड़ा के बावजूद उनका कारोबार पिछले कुछ सालों में फला-फूला है और उनका इरादा इसे छोड़ने का कतई नहीं है। अग्रवाल की तरह बरगड़ के जयप्रकाश लाट ने भी चावल के कारोबार में खूब तरक्की की है। वह कहते हैं कि उन्होंने महज़ 65 रुपये से शुरुआत की थी और आज वह कई राइस मिलों के मालिक हैं। वह कहते हैं कि धन्धा कठिन है, लेकिन काम चला रहे हैं।
"घाटा या परेशानी तो किसी भी धन्धे में होती है, लेकिन कामयाब वही आदमी होता है, जो बिजनेस को सोच-समझकर करता है..."
बरगड़ ज़िले में राज्य के 25 फीसदी धान की सरकारी खरीद होती है। पिछले कुछ सालों में राइस मिलों की संख्या यहां बढ़ती ही रही। आज पूरे राज्य में जहां 1,000 से अधिक राइस मिलें हैं, वहीं बरगढ़ में पिछले एक दशक में इनकी संख्या चार से बढ़कर 104 हो गई है। लेकिन विडम्बना यह है कि इसी बरगड़ में कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान लगातार खुदकुशी करते रहे हैं।
आखिर इस विरोधाभास का सच क्या है...? दिसंबर में संसद में रखी गई सीएजी की रिपोर्ट कहती है 2009-10 से 2013-14 के बीच धान की खरीद में कई गड़बड़ियां हुईं... इस रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले कई सालों में किसानों का हक मारा गया और मिल मालिकों को नाजायज़ फायदा पहुंचा।
मिसाल के तौर पर
- मिल मालिकों को बेवजह धान ढुलाई की कीमत देने से सरकार को 195 करोड़ का घाटा हुआ...
- अलग-अलग राज्यों में धान से निकलने वाले चावल के अनुपात के बारे में बनाए गए गलत पैमाने से भी सरकार को 952 करोड़ का नुकसान हुआ...
- सीएजी ने रिपोर्ट में कहा है कि इसका पता नहीं कि समर्थन मूल्य के नाम पर किसानों को दी गई 17,985 करोड़ रुपये की रकम असल में उन तक पहुंची या नहीं...
- राइस ब्रान, जिससे रिफाइंड ऑइल बनाया जाता है...
- ब्रोकन राइस या कणकी, जो शराब बनाने और पशु आहार के लिए इस्तेमाल होता है...
- राइस हस्क या भूसी, जो बॉयलर चलाने या बिजली बनाने के काम आती है...
सीएजी अपनी रिपोर्ट में कहती है - बाई-प्रोडक्ट से होने वाली कमाई में खासी बढ़ोतरी के बावजूद सरकार ने मिल मालिकों को दिए जाने वाले मिलिंग चार्ज को साल 2005 से अभी तक नहीं बदला है। इससे मिल मालिकों को 3,743 करोड़ रुपये का अतिरिक्त फायदा हुआ। आरटीआई कार्यकर्ता गौरीशंकर जैन कहते हैं कि इस मामले में वह केंद्र और राज्य सरकार से शिकायत करते रहे हैं।
गौरीशंकर जैन ने NDTV इंडिया से कहा, "मेरी शिकायत का सरकार ने संज्ञान लिया और फिर इसे लेकर जो सीएजी जांच हुई, उसमें हज़ारों करोड़ रुपये की गड़बड़ी की बात सामने आई है। सरकार न केवल मिल मालिकों को राइस ब्रान, ब्रोकन राइस और भूसी से होने वाली कमाई को कई साल से अनदेखा कर रही है, बल्कि मिल मालिक इन बाई-प्रोडक्ट्स से होने वाली कमाई पर कोई इन्कम टैक्स भी नहीं दे रहे हैं..."
उधर मिल मालिकों का कहना है कि अगर वे बाज़ार में टिके हैं तो केवल बाई-प्रोडक्ट से हो रही आमदनी के दम पर, क्योंकि सरकार ने पिछले कई साल से धान की कुटाई के दाम नहीं बढ़ाए हैं और आज भी प्रति क्विंटल 20 रुपये ही मिलिंग चार्ज मिलता है।
उधर किसान कहते हैं कि सरकार इस ओर ध्यान ही नहीं दे रही है। बरगड़ के किसान जेके साहू और पीके गणपति कहते हैं, "मिल मालिक तो लगातार अमीर हो रहे हैं... इस धन्धे में इतनी कमाई हो रही है कि अगर आप बरगड़ के मिल मालिकों का बायोडाटा उठा लें तो पता चलेगा कि जो कुछ साल पहले तक मामूली लोग थे, वे आज न केवल मिल मालिक हैं, बल्कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में उनके पास ढेर सारी संपत्ति भी है..."
लेकिन सरकारी अधिकारी विजय कुमार रथ कहते हैं कि अगर किसानों को घाटा और मिल मालिकों को फायदा हो रहा है तो यह सिर्फ नीतिगत गड़बड़ी की वजह से है। हमारा काम मिल मालिकों को धान मिलिंग के पैसे देना और उनसे 67 प्रतिशत चावल वापस लेना है। बाई-प्रोडक्ट के बारे में पॉलिसी में कोई व्यवस्था नहीं है।
सो, भले ही इस कमी के लिए नीतिगत गड़बड़ियां ज़िम्मेदार हों, लेकिन यह भी सच है कि जहां मिल मालिकों ने बरगड़ समेत उड़ीसा और पूरे देश में एक बड़ा साम्राज्य खड़ा किया है, वहीं किसानों के लिए हाल हर जगह खराब ही होते गए हैं।
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