Bihar Election News: लोकसभा चुनाव 2019 में बिहार की बेगूसराय सीट पर पूरे देश की नजरें थीं. यहां से बीजेपी के फायर ब्रांड नेता और अपने बयानों के लिए मशहूर गिरिराज सिंह का मुकाबला वामपंथी राजनीति के इस समय पोस्टर ब्बॉय और सीपीआई के उम्मीदवार कन्हैया कुमार से था. लेकिन बाजी आखिरकार गिरिराज सिंह के ही हाथ लगी और कन्हैया कुमार को हार का सामना करना पड़ा. यह सीट अपने आप में कई ऐतिहासिक और राजनीतिक नामकरणों को लिए भी मशहूर है. बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद भी कहा जाता है. 2019 के चुनाव से पहले ही कन्हैया के भाषण सोशल मीडिया पर खूब देखे जा रहे थे. बिहार की राजनीति में एक युवा नेता का उभार एक समय तो तेजस्वी यादव के लिए भी बड़ा खतरा बनते देखा गया. कहा तो यह भी जाता है कि कन्हैया कुमार को हराने के लिए ही आरजेडी ने तनवीर हसन को लोकसभा चुनाव में उतार दिया था. हालांकि आरजेडी का कहना था साल 2014 में तनवीर हसन सिर्फ 60 हजार वोटों से हारे थे इसलिए कार्यकर्ताओं के मनोबल के लिए उनको चुनाव में उतारा गया है. फिलहाल इस सच्चाई से नकारा नहीं जा सकता है कि इसका फायदा गिरिराज सिंह को ही मिला था.
कंगना केस: फडणवीस के हिंदी बोलने पर जयंत पाटिल ने उठाया सवाल, पूछा - हिंदी क्यों?
अब बात करें बिहार विधानसभा चुनाव की जिसकी तारीखों का ऐलान इसी महीने हो सकता है, खबर है कि इस बार सीपीआई-सीपीएम यानी वामदलों ने आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. हालांकि सीटों के बंटवारे पर अब सहमति होना बाकी है. अगर यह महागठबंधन के साथ वामदल आते हैं तो क्या बिहार के लेनिनग्राद में वामपंथ की बयार फिर से वापस आ सकेगी, या फिर जातीय समीकरण ही यहां की हकीकत है. इस सवाल का जवाब तलाशने पहले इस बात को भी जानना जरूरी है कि लेनिनग्राद क्या है.
बिहार चुनाव में चंद्रशेखर की एंट्री, बीजेपी और नीतीश को हराने के लिए किसी से भी कर लेंगे गठबंधन
रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदलकर लेनिनग्राद कर दिया गया था. यह फैसला वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने किया था. लेनिन एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी थे. रूस में ऐतिहासिक बोल्शेविक की लड़ाई के नेता के रूप में लेनिन को पूरी दुनिया में जाना जाता है. वह 1917 से 1924 तक सोवियत रूस के, और 1922 से 1924 तक सोवियत संघ के भी "हेड ऑफ़ गवर्नमेंट' रहे. उनके कार्यकाल में रूस एक-पक्ष साम्यवादी राज्य बन गया. लेनिन की विचारधारा से मार्क्सवादी थी और उनके विचारों को लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है. हालांकि बाद में सोवियत संघ के बिखरने के बाद लेनिनग्राद का नाम बदलकर फिर से सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया.
अब बात करें पूरब के लेनिनग्राद यानी बेगूसराय की तो यहां की तेघड़ा विधानसभा सीट जिसे कभी 'छोटा मॉस्को' के नाम से भी जाना जाता था, 1962 से लेकर 2010 का वामपंथी पार्टियों का कब्जा रहा है. 2010 में बीजेपी ने यहां जीत दर्ज की थी. वहीं बछवारा सीट भी साल 2015 में आरजेडी के पास चली गई. वामपंथ के सबसे मजबूत गढ़ में सेंध 90 के दशक में ही लगनी शुरू हो गई थी. 1995 तक यहां की 7 में से 5 सीटें सीपीआई या सीपीएम के पास थीं. लेकिन बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का उदय, ऊंची जातियों के खिलाफ आंदोलन और बड़े पैमाने पर नरसंहार ने पूरे बिहार को जातिवाद की राजनीति में जकड़ लिया और बेगूसराय भी इससे अछूता नहीं रहा.
बिहार में भूमिहार कांग्रेस के साथ थे. लेकिन उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने लालू को समर्थन करने का फैसला कर लिया. इसके बाद भूमिहार ही नहीं गैर यादव ओबीसी ने नीतीश कुमार की समता पार्टी और बीजेपी की ओर रुख कर लिया. अब वामपंथी राजनीति के लिये दौर बदल गया है. कन्हैया कुमार जो कि खुद भूमिहार हैं और टेघड़ा (मिनी मॉस्को) से आते हैं, उनको अपनी ही जाति से समर्थन मिलेगा यह कुछ भी अब पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता है. क्योंकि 2019 के चुनाव में भी ऐसी ही कुछ तस्वीर बनी थी. यह भी अपने आप में एक सच्चाई है कि 'पूरब का लेनिनग्राद' होते हुए भी सीपीआई एक ही बार लोकसभा चुनाव (1967) जीत पाई है. साल 2004 से यहां से एनडीए का प्रत्याशी ही लगातार जीत रहा है. कुल मिलाकर यहां के जो समीकरण हैं उस हिसाब से अगर कांग्रेस-आरजेडी के समर्थन से सीपीआई ताकत दिखा जा सकती है. लेकिन बहुत कुछ उम्मीदवारों के चयन पर भी निर्भर करेगा. गिरिराज सिंह अब यहां से सांसद हैं और कन्हैया कुमार भी राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं और इस चुनाव में अब दोनों की साख दांव पर है.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं