
बिहार के चुनाव में सियासी समीकरण स्पष्ट तौर पर तब तक नहीं जाहिर होता जब तक कि चुनाव के बाद सरकार का गठन न हो जाए. हालांकि, 06 अक्टूबर को चुनावी रणभेड़ी के बजने के साथ ही अटकलों और संभावनाओं पर माथापच्ची की जा रही है. एक ओर एनडीए है तो दूसरी तरफ महागठबंधन, पर दोनों में से किसी ने सीटों के बंटवारे पर अभी मुहर नहीं लगाई है. किसकी झोली में क्या गिरेगा, गठबंधन में रहते हुए कितनी सीटें आएंगी? ऐसा होने पर छोटे-छोटे दलों का आगे का रुख तय होगा. ऐसे में यह भी सवाल है कि जाति, पार्टी और मुद्दों से इतर कुछ ऐसे राजनेता भी हैं जिनके पलट जाने से बिहार में राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है. तो आखिर कौन हैं वो पांच राजनेता जो बिहार चुनाव में खेला कर सकते हैं?

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चिराग पासवान
क्या चिराग पासवान को एनडीए उनके मांगे हुए 40 सीट देने को तैयार हो जाएगा? या क्या बीजेपी उन्हें 25 सीटों पर ही मना लेगी? और क्या चिराग पासवान 40 सीटों की मांग पर अड़े रहेंगे और बीजेपी के नहीं मानने की सूरत में एनडीए से बाहर होंगे? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसके जवाब अगले कुछ दिनों में सामने आ जाएंगे, जब एनडीए और महागठबंधन सीट शेयरिंग की घोषणा करेंगे.
पर क्या बीजेपी चिराग की पार्टी को आसानी से गठबंधन से निकलने देगी? यह सवाल इसलिए क्योंकि बिहार की राजनीति में चिराग पासवान की बहुत अहमियत है, यह हम नहीं चुनावी आंकड़े कह रहे हैं. यही कारण है कि ऐसी खबरें आने के बावजूद कि वो दूसरे गठबंधन के साथ या अकेले चुनाव लड़ना चाहते हैं, एनडीए के समर्थक चिराग के गठबंधन में बने रहने की मनोकामना रखते हैं. अगर चिराग की पार्टी एनडीए से अलग हो कर चुनाव लड़ें तो इससे एनडीए के कुल वोट प्रतिशत में कमी आ सकती है और निश्चित रूप से कुल सीटों में भी फर्क आ सकता है.
चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में केवल एक सीट जीती थी पर वोट शेयर के मामले में यह आरजेडी, बीजेपी, जेडीयू और कांग्रेस के बाद पांचवें नंबर पर रही. राज्य के पिछले चुनाव में एलजेपी का वोट शेयर 5.7% था. सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि एनडीए के सभी बड़े घटक दलों का पिछले चुनाव में वोट शेयर गिरा था लेकिन चिराग की पार्टी ने इसमें करीब एक फीसद का इजाफा किया था.
इसी साल जुलाई के महीने में छपरा में 'नव संकल्प महासभा' के नाम से आयोजित रैली में चिराग ने बिहार की नीतीश सरकार की आलोचना करते हुए राज्य की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया था. तब उन्होंने कहा था कि वो बिहार को ऐसा राज्य बनाना चाहते हैं जहां लोग बगैर कोई डर बाहर निकल सकें. चिराग ने बिना किसी का नाम लिए कहा कि उन्हें बिहार आने से रोकने की साजिश की जा रही है. साथ ही उन्होंने स्पष्ट लहजे में कहा कि वो किसी से डरने वाले नहीं हैं.
उसी दौरान चिराग ने प्रशांत किशोर की बहुत तारीफ भी की. तब चिराग ने कहा था, "प्रशांत जी अपनी एक ईमानदारी भूमिका निभा रहे हैं, जिसकी मैं सराहना करता हूं. मैं बिहार की राजनीति में हर उस शख्स का स्वागत करता हूं जो जात-पात, धर्म, मजहब से उठ कर बिहार और बिहारियों की सोच के लिए वो राजनीति में आने का लक्ष्य रखता है जिसमें प्रशांत जी सोच है जिसको मैं ईमानदारी से स्वीकार करता हूं. ऐसे में आपके पास बहुत से विकल्प हों तो चुनिए न, उनमें से आपको 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' अच्छा लगता हो तो उसके पास जाइए."
ऐसे में एक ओर यह भी कहा जा रहा है कि चिराग एनडीए से नाराज चल रहे हैं और बिहार चुनाव से पहले कुछ बड़ा फैसला ले सकते हैं. एनडीए की ओर से राज्य में वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं लेकिन उनकी तबीयत खराब रहने की खबरें लगातार आती रही हैं. इसी बीच चिराग के अगले मुख्यमंत्री बनने की अटकलें भी लगने लगीं. हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि "मुख्यमंत्री का पद किसी एक पार्टी के कहने से तय नहीं होता, इसके लिए समूचे गठबंधन की सहमति जरूरी है." साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सभी सहयोगी दल नीतीश कुमार के नाम पर सहमत हैं.
बावजूद इसके यह राजनीति है और कब कौन किस ओर रुख पलट लेगा यह कहना मुश्किल है. मगर एक बात तो यह है कि अगर चिराग किसी नाराजगी की वजह से एनडीए से हटे तो उसके वोट प्रतिशत में गिरावट तो आएगी ही और इसका नकारात्मक असर सीटों की संख्या पर भी पड़ेगा और जानकारों की मानें तो सीटों के मामले में सबसे अधिक खामियाजा जेडीयू को भुगतना पड़ सकता है.

मुकेश सहनी
बिहार में चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी ने सोमवार को दावा किया कि प्रदेश में इंडिया गठबंधन सरकार बनाएगी और वो उपमुख्यमंत्री बनेंगे. मुकेश सहनी की वीआईपी 40 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है और साथ ही अपने अध्यक्ष के लिए डिप्टी सीएम का पद भी चाहती है. बताया जा रहा है कि उनकी पार्टी इस मांग पर अड़ गई है. जबकि मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो तेजस्वी यादव ने उन्हें 12 सीटें ऑफर की हैं.
महागठबंधन के घटक दलों पर नजर डालें तो मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी वहां आरजेडी और कांग्रेस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है.
प्रदेश के निषाद वोटों में अपनी पैठ रखने वाले मुकेश सहनी का बिहार की राजनीति में बहुत महत्व है. मुकेश सहनी निषाद जाति के मल्लाह समूह से आते हैं. मुकेश खुद को 'सन ऑफ मल्लाह' कहते हैं और उनके अनुसार इस समूह की आबादी बिहार में 10 प्रतिशत से अधिक है. हालांकि जातीय सर्वेक्षण में इन्हें 2.61% बताया गया है. वहीं जिस निषाद समाज से मुकेश सहनी आते हैं उनकी राज्य में आबादी करीब सात से आठ प्रतिशत है, लिहाजा राज्य की कई सीटों पर उनका अच्छा खासा प्रभाव है.
माना जाता है कि बिहार की करीब तीन दर्जन सीटों पर निषादों का वोट बैंक उलटफेर करने की क्षमता रखता है. यही कारण है कि राज्य के दोनों बड़े गठबंधन निषादों को साधने में लगे रहते हैं. बिहार में निषाद वोट को साधने की होड़ में मोदी कैबिनेट में राजभूषण निषाद को मंत्री बनाया गया तो राज्य में हरि सहनी और मदन सहनी को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया.
कभी अमित शाह और नीतीश कुमार के करीबी रहे मुकेश सहनी बीते एक दशक के दरम्यान मल्लाहों के नेता के तौर पर उभरे हैं. लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी के स्टार कैंपेनर से राजनीति में उभरे मुकेश सहनी ने उस चुनाव के बाद एनडीए का साथ छोड़ दिया वहीं 2015 के विधानसभा चुनाव में मुकेश सहनी ने नीतीश कुमार को सपोर्ट किया पर उनसे भी अलग हो गए. दोनों बार अलग होने की वजह निषाद उपजातियों के लिए आरक्षण की उनकी मांग को ठुकराया जाना था. इसके बाद मुकेश सहनी ने 2019 में अपनी पार्टी वीआईपी का गठन किया और बाद में महागठबंधन के साथ चुनाव में उतरे और अपने पहले ही चुनाव में राज्य में चार सीटें और 1.5 प्रतिशत वोट हासिल किए.

असदुद्दीन ओवैसी
चुनाव दर चुनाव ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी बिहार चुनाव में एक बड़ा किरदार अदा करने की स्थिति में आ रहे हैं. पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान सीमांचल में पैठ बनाने के बाद इस बार ओवैसी मिथिलांचल में भी अपनी पार्टी को आजमाना चाहते हैं. इसी क्रम में उन्होंने अपनी एक रैली के दौरान कहा, "एआईएमआईएम सीमांचल के बाद अब मिथिलांचल की चार सीटों पर चुनाव लड़ेगी."
ओवैसी के मुताबिक उनकी पार्टी मिथिलांचल की चार सीटों दरभंगा टाउन, जाले, केवटी और मधुबनी में बिस्फी) पर चुनाव लड़ेगी. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने राज्य की 24 सीटों पर चुनाव लड़ा था और मुस्लिम बहुत किशनगंज और पूर्णिया में दो-दो तो अररिया में एक सीट समेत कुल पांच सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी. हालांकि बाद में उसके चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए और बचे एक एकमात्र विधायक अख्तरूल ईमान इस समय राज्य इकाई के अध्यक्ष हैं.
2015 में बिहार की राजनीति में कदम रखने वाली एआईएमआईएम को तब सफलता नहीं मिली थी लेकिन किशनगंज सीट पर 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे अप्रत्याशित सफलता मिली. तब इसके प्रत्याशी अख्तरूल ईमान जीत तो नहीं सके पर उन्हें तीन लाख वोट हासिल हुए पर 2019 के विधानसभा उप-चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने अपना खाता खोल लिया. आखिर लगातार कोशिशों में लगे ओवैसी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में पांच सीटें झटक कर बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल में अपनी एक मजबूत जमीन तैयार कर ली. पहले यहां आरजेडी को जीत हासिल हुआ करती थी.
अब अगर ओवैसी की पार्टी महागठबंधन के साथ सीटों का तालमेल कर सकी तो सीमांचल में एकतरफा मुकाबला हो सकता है. वहीं अगर ओवैसी महागठबंधन के साथ गए तो इसका पूरे बिहार में असर पड़ सकता है क्योंकि उन्हें समर्थन करने वाला मुस्लिम वोट एकजुट होकर महागठबंधन के झोली में जाएगा जो बिहार में बिहार की 13 करोड़ से अधिक की आबादी में लगभग 17.7% हैं.
हालांकि पिछले चुनाव के बाद से बिहार की राजनीति में प्रशांत किशोर की एंट्री हुई है और यह आरजेडी और ओवैसी दोनों के लिए मुस्लिम वोट काटने वाली पार्टी साबित हो सकती है क्योंकि जनसुराज ने विशेषकर मुस्लिम और कुर्मी वोटों में अपनी पैठ बनाई है.

उपेंद्र कुशवाहा
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उपेंद्र कुशवाहा
कोईरी या कुशवाहा जाति के उपेंद्र कुशवाहा का रुख बिहार के विधानसभा चुनाव में बहुत बड़ा असर डाल सकता है क्योंकि इनकी आबादी यहां चार फीसद से अधिक है. बिहार में 2023 में जारी की गई जातीय जनगणना के मुताबिक कुशवाहा आबादी चार प्रतिशत से अधिक थी. ओबीसी समुदाय में आने वाले कोइरी (कुशवाहा) की आबादी यादवों (करीब 14 प्रतिशत) के बाद दूसरे स्थान पर है. इसके बावजूद राज्य में इन्हें यादवों से कम अहमियत नहीं मिलती है. पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए और इंडिया गठबंधन ने कुल 16 यादवों को मैदान में उतारा तो वहीं कुशवाहा वर्ग को 11 सीटों पर इन दो गठबंधनों ने मौका दिया.
हालांकि आज की तारीख में लगभग हर पार्टी में इस समुदाय के लोग शीर्ष पदों पर आसीन हैं. बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश सिंह भी कुशवाहा समुदाय के हैं. कुशवाहा समुदाय के लोग समूचे राज्य में फैले हुए हैं जो कई सीटों पर हार जीत के फैसले में अहम भूमिका निभाते रहे हैं.
उपेंद्र कुशवाहा लगातार नई पार्टी बनाते रहे हैं. पिछले चुनाव तक उन्होंने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) के साथ चुनाव में जोर आजमाइश की थी. भले ही पिछले चुनाव में कोई सीट हासिल नहीं की पर उसके वोट शेयर करीब दो प्रतिशत हैं और यह किसी भी उम्मीदवार के वोटों को एक पक्ष से दूसरे पक्ष में करने में बड़ा किरदार निभा सकता है. इस बार उपेंद्र कुशवाहा राष्ट्रीय लोक मोर्चा के साथ मैदान में होंगे.
बीते लोकसभा चुनाव में एनडीए ने राष्ट्रीय लोक मोर्चा को केवल एक ही सीट दी थी. चुनाव हारने के बावजूद उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा में जगह दी गई. फिलहाल उपेद्र कुशवाहा सीटों की अपनी मांग पर खुल कर कुछ नहीं बोल रहे हैं पर करीब एक दर्जन सीटों पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ता सक्रिय हैं तो माना जा रहा है कि 10 से अधिक सीटों पर उनके उम्मीदवार अपनी किस्मत की आजमाइश कर सकते हैं. हालांकि अगर चिराग पासवान की पार्टी अधिक सीटों की अपनी मांग पर अड़ी रही तो कुशवाहा की पार्टी को सीटों का खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है.

जीतन राम मांझी
2010 में शून्य से 2015 में एक और 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवामी मोर्चा (हम) को चार सीटें मिली थीं लिहाजा वो राज्यस्तरीय पार्टी नहीं हो सकी थी. यही वजह है कि चुनाव आयोग ने पिछले हफ्ते हुई बैठक में उनकी पार्टी को आमंत्रित नहीं किया था. अब मांझी का लक्ष्य अधिक से अधिक सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर यह योग्यता हासिल करने पर है, जिसके लिए उनके पास सात से आठ विधायक होने चाहिए. यही कारण है कि वो 22 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारना चाहते हैं.
हालांकि बिहार में चुनाव की तारीखों की घोषणा से ठीक एक दिन पहले बीजेपी के बिहार चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान, विनोद तावड़े और डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने कई सहयोगी दलों के नेताओं से ही मुलाकात की. इसी क्रम में वो जीतन राम मांझी से भी मिले. लेकिन एनडीटीवी के सूत्रों के मुताबिक यह बैठक महज 15 मिनट तक चली और इस मुलाकात के बाद जीतन राम मांझी नाराज बताए जा रहे हैं.
बताया जा रहा है कि मांझी ने 22 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की लिस्ट इन नेताओं को थमाई थी पर उन्हें केवल 7 सीटों का ऑफर दिया गया है. अब ऐसे में अगर मांझी बिफरे तो एनडीए को बड़ा नुकसान होगा क्योंकि पिछले चुनाव में इनका वोट शेयर करीब एक फीसद था तो उससे पहले 2015 में उनके हिंदुस्तानी अवामी मोर्चा को 2.3 फीसद वोट शेयर हासिल हुए थे.
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