इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गुरुवार को 1991 के पीलीभीत फर्जी मुठभेड़ मामले में 43 पुलिसकर्मियों को दी गई उम्रकैद की सजा को 7 साल के सश्रम कारावास में बदल दिया. कोर्ट ने 10 सिखों के एनकाउंटर मामले में 43 पुलिसकर्मियों को गैर इरादतन हत्या का दोषी करार दिया है.
अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत एक निचली अदालत द्वारा पुलिस कर्मियों की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि यह मामला आईपीसी की धारा 303 के अपवाद 3 के तहत आता है, जो यह प्रावधान करता है कि यदि अपराधी हत्या करता है तो गैर इरादतन हत्या नहीं है.
लखनऊ बेंच ने निर्देश दिया कि दोषी जेल में अपनी सजा काट लें और उन पर 10-10 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया. पीठ ने सभी 43 पुलिसकर्मियों को आईपीसी की धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) के तहत दोषी ठहराया. जस्टिस रमेश सिन्हा और सरोज यादव की खंडपीठ ने कहा, पुलिस को आरोपी व्यक्तियों को गिरफ्तार करना है और उनपर मुकदमा चलाना है. उन्होंने कहा कि यह पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य नहीं है कि वे आरोपी को केवल इसलिए मार दें क्योंकि वह एक खूंखार अपराधी है.
पीठ ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपीलकर्ताओं ने कानून द्वारा उन्हें दी गई शक्तियों को पार कर लिया और उन्होंने मृतक की मृत्यु का कारण एक ऐसा कार्य किया जिसे वे सद्भावना से अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए वैध और आवश्यक मानते थे. ऐसे में परिस्थितियों में, अपीलकर्ताओं द्वारा जो अपराध किया गया था, वह गैर इरादतन हत्या थी, जो हत्या की कोटि में नहीं थी."
बता दें कि पुलिसकर्मियों ने 1991 में दस सिखों को खालिस्तान लिब्रेशन फ्रंट का आतंकी बता कर कथित एनकाउंटर में मार दिया था. ट्रायल कोर्ट ने इन पुलिसकर्मियों को हत्या का दोषी पाते हुए 4 अप्रैल 2016 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
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