यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (फाइल फोटो)
लखनऊ:
उत्तर प्रदेश में नये लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर राजभवन के साथ गतिरोध के बीच सरकार ने लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन के लिए गुरुवार को विधानमण्डल के दोनों सदनों से एक विधेयक पारित कराया, जिसमें चयन समिति से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव किया गया है।
संसदीय कार्य मंत्री आजम खां ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मौजूदगी में लोकायुक्त तथा उपलोकायुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 को विधानसभा में रखा जिसे विपक्ष के विरोध के बीच ध्वनिमत से पारित किया गया। इस विधेयक के जरिये मौजूदा कानून में तीन सदस्यीय चयन समिति के स्थान पर मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का प्रस्ताव है।
प्रस्तावित समिति में मुख्यमंत्री के अलावा विधानसभा के अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष तथा सर्वोच्च अथवा उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश शामिल होंगे। चौथे सदस्य के रूप में अवकाश प्राप्त न्यायाधीश का चयन मुख्यमंत्री तथा विधानसभा अध्यक्ष के परामर्श से होगा।
विधानसभा से पारित होने के बाद इस विधेयक को विधान परिषद में लाया गया जहां बसपा सदस्यों के बहिर्गमन के बीच इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। इस सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं है।
विधानमण्डल के दोनों सदनों में यह विधेयक ऐसे समय पारित किया गया है जब प्रदेश में लोकायुक्त चयन को लेकर राजभवन और सरकार के बीच गतिरोध चरम पर है।
राजभवन और शासन के बीच फाइल के कई दौर के आवागमन के बाद राज्यपाल राम नाईक ने गत मंगलवार को रवीन्द्र सिंह यादव के नाम का प्रस्ताव खारिज करते हुए मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश की समिति से कहा था कि वह विचार-विमर्श के बाद किसी और का नाम प्रस्तावित करें। नाईक ने सरकार को वापस भेजी गई फाइल के साथ प्रेषित पत्र में कहा था कि लोकायुक्त चयन प्रक्रिया में विचार-विमर्श की वैधानिक आवश्यकता को पूरा नहीं किया गया।
राज्यपाल ने पत्र में कहा था कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यादव पर अपनी राय देते हुए कहा है कि सरकार से नजदीकियों के कारण लोकायुक्त का कार्य प्रभावित होने का अंदेशा है, ऐसे में यादव का नाम प्रस्तावित करना उपयुक्त नहीं होगा।
राजभवन और सरकार के बीच लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर उत्पन्न गतिरोध के बीच आज विधानमण्डल के मानसून सत्र के अंतिम दिन संसदीय कार्यमंत्री आजम खां ने विधानसभा में यह विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे सदन ने बसपा, भाजपा और कांग्रेस के सदस्यों के बहिर्गमन के बीच ध्वनिमत से पारित कर दिया।
विधानसभा से पारित विधेयक के जरिये मौजूदा कानून में संशोधन करके लोकायुक्त और उपलोकायुक्त को यह अधिकार भी दिया गया है कि यदि कोई शिकायतकर्ता जानबूझ कर किसी लोकसेवक को तंग करने अथवा दुर्भावना से कोई परिवाद दाखिल करता है तो उसके ऊपर एक लाख रुपये तक जुर्माना लगाया जा सकता है।
इससे पूर्व, विधानसभा में बसपा और प्रतिपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि विधेयक जिस प्रकार जल्दी-जल्दी में लाया गया है, उससे सरकार की नीयत पर सवाल उठता है।
उन्होंने चयन समिति से उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश को हटाये जाने का विरोध करते हुए कहा, ‘‘मुख्य न्यायाधीश पर अविश्वास जता कर सरकार खुद को अथवा अदालत को कठघरे में खड़ा कर रही है।’’
स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि मौजूदा कानून में लोकायुक्त के चयन के लिए मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति की व्यवस्था बहुत सोच समझ कर की गयी थी, ताकि पारदर्शिता और निष्पक्षता बनी रहे। उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की अपनी-अपनी भूमिका है और इनमें से किसी की भी अनदेखी से लोकतंत्र के कत्ल की स्थिति बन जाती है।’’ विधेयक को विचार के लिए सदन की एक प्रवर समिति को भेजने की मांग करते हुए नेता प्रतिपक्ष ने यह भी कहा था कि मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति में विधानसभा के अध्यक्ष को सदस्य नामित किया जाना, सदन के अध्यक्ष पद की गरिमा के विपरीत है।
मौर्य की आपत्तियों के साथ सहमति जताते हुए भाजपा विधानमंडल दल के नेता सुरेश खन्ना ने कानून परिवर्तन की आवश्यकता पर ही सवाल उठाया।
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति से हटाया जाना सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है।
खन्ना ने कहा कि लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए, जिसपर कोई उंगली न उठा सके, जबकि संशोधन विधेयक के जरिये चयन समिति में किये गये परिवर्तन से ऐसा साफ लगता है कि सरकार अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को लोकायुक्त बनाना चाहती है।
कांग्रेस के नेता प्रदीप माथुर ने भी संशोधन विधेयक का विरोध किया और इसकी जरूरत पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह कदम सदन में सत्तापक्ष के बहुमत का दुरूपयोग है। संसदीय कार्यमंत्री आजम खां ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि यह सदन चुने हुए प्रतिनिधियों का है, हमारे पास यह अधिकार होना चाहिए कि हम जनता को न्याय दिला सकें। उन्होंने कहा कि चूंकि लोकायुक्त की नियुक्ति का दायित्व सरकार पर है, इसलिए नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार के पास पर्याप्त अधिकार होने चाहिए।
सरकार की तरफ से लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति के लिए भेजे गये पूर्व न्यायाधीश रवीन्द्र सिंह यादव के नाम पर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की तरफ से आपत्ति जताये जाने की ओर इशारा करते हुए खां ने कहा कि ऐसा करके एक ऐसे व्यक्ति पर उंगली उठायी गयी है, जो लम्बे समय तक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका है। ऐसा करके एक तरीके से पूरी न्यायपालिका पर उंगली उठायी गयी है और कोई नहीं चाहेगा कि न्यायपालिका पर उंगली उठे।
संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि अभी इस विधेयक को राजभवन जाना है, जहां नगर निकाय अधिनियम में संशोधन के लिए पारित विधेयक सहित कई विधेयक अब भी मंजूरी की बाट जोह रहे हैं।
यह कहते हुए कि वे किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि राजभवन की बात कर रहे है, खां ने सवाल करते हुए कहा, ‘‘क्या कभी पहले भी ऐसा हुआ है कि सरकार ने विधान परिषद में सदस्यों के मनोनयन के लिए प्रस्ताव भेजा हो और मंजूरी न मिली हो।’’ उन्होंने कहा कि जिस तरीके से विधान परिषद में मनोनयन के लिए नौ नामों में से चार को मंजूरी दे दी गयी और पांच को रोक लिया गया, वह राजभवन की परंपरा के खिलाफ है।
आजम ने कहा कि राजभवन के प्रति जनता का विश्वास बना रहना चाहिए कि यह 1947 से पहले का नहीं बल्कि उसके बाद का राजभवन हैं।
विपक्षी दलों द्वारा विधेयक को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक होने के आरोप को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि यह विधेयक विधि विभाग से विचार विमर्श के बाद लाया गया है और चूंकि यह सदन द्वारा पारित किया जा रहा है, इसे अलोकतांत्रिक कहना सरासर गलत है।
संसदीय कार्य मंत्री आजम खां ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मौजूदगी में लोकायुक्त तथा उपलोकायुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 को विधानसभा में रखा जिसे विपक्ष के विरोध के बीच ध्वनिमत से पारित किया गया। इस विधेयक के जरिये मौजूदा कानून में तीन सदस्यीय चयन समिति के स्थान पर मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का प्रस्ताव है।
प्रस्तावित समिति में मुख्यमंत्री के अलावा विधानसभा के अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष तथा सर्वोच्च अथवा उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश शामिल होंगे। चौथे सदस्य के रूप में अवकाश प्राप्त न्यायाधीश का चयन मुख्यमंत्री तथा विधानसभा अध्यक्ष के परामर्श से होगा।
विधानसभा से पारित होने के बाद इस विधेयक को विधान परिषद में लाया गया जहां बसपा सदस्यों के बहिर्गमन के बीच इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। इस सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं है।
विधानमण्डल के दोनों सदनों में यह विधेयक ऐसे समय पारित किया गया है जब प्रदेश में लोकायुक्त चयन को लेकर राजभवन और सरकार के बीच गतिरोध चरम पर है।
राजभवन और शासन के बीच फाइल के कई दौर के आवागमन के बाद राज्यपाल राम नाईक ने गत मंगलवार को रवीन्द्र सिंह यादव के नाम का प्रस्ताव खारिज करते हुए मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश की समिति से कहा था कि वह विचार-विमर्श के बाद किसी और का नाम प्रस्तावित करें। नाईक ने सरकार को वापस भेजी गई फाइल के साथ प्रेषित पत्र में कहा था कि लोकायुक्त चयन प्रक्रिया में विचार-विमर्श की वैधानिक आवश्यकता को पूरा नहीं किया गया।
राज्यपाल ने पत्र में कहा था कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यादव पर अपनी राय देते हुए कहा है कि सरकार से नजदीकियों के कारण लोकायुक्त का कार्य प्रभावित होने का अंदेशा है, ऐसे में यादव का नाम प्रस्तावित करना उपयुक्त नहीं होगा।
राजभवन और सरकार के बीच लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर उत्पन्न गतिरोध के बीच आज विधानमण्डल के मानसून सत्र के अंतिम दिन संसदीय कार्यमंत्री आजम खां ने विधानसभा में यह विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे सदन ने बसपा, भाजपा और कांग्रेस के सदस्यों के बहिर्गमन के बीच ध्वनिमत से पारित कर दिया।
विधानसभा से पारित विधेयक के जरिये मौजूदा कानून में संशोधन करके लोकायुक्त और उपलोकायुक्त को यह अधिकार भी दिया गया है कि यदि कोई शिकायतकर्ता जानबूझ कर किसी लोकसेवक को तंग करने अथवा दुर्भावना से कोई परिवाद दाखिल करता है तो उसके ऊपर एक लाख रुपये तक जुर्माना लगाया जा सकता है।
इससे पूर्व, विधानसभा में बसपा और प्रतिपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि विधेयक जिस प्रकार जल्दी-जल्दी में लाया गया है, उससे सरकार की नीयत पर सवाल उठता है।
उन्होंने चयन समिति से उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश को हटाये जाने का विरोध करते हुए कहा, ‘‘मुख्य न्यायाधीश पर अविश्वास जता कर सरकार खुद को अथवा अदालत को कठघरे में खड़ा कर रही है।’’
स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि मौजूदा कानून में लोकायुक्त के चयन के लिए मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति की व्यवस्था बहुत सोच समझ कर की गयी थी, ताकि पारदर्शिता और निष्पक्षता बनी रहे। उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की अपनी-अपनी भूमिका है और इनमें से किसी की भी अनदेखी से लोकतंत्र के कत्ल की स्थिति बन जाती है।’’ विधेयक को विचार के लिए सदन की एक प्रवर समिति को भेजने की मांग करते हुए नेता प्रतिपक्ष ने यह भी कहा था कि मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति में विधानसभा के अध्यक्ष को सदस्य नामित किया जाना, सदन के अध्यक्ष पद की गरिमा के विपरीत है।
मौर्य की आपत्तियों के साथ सहमति जताते हुए भाजपा विधानमंडल दल के नेता सुरेश खन्ना ने कानून परिवर्तन की आवश्यकता पर ही सवाल उठाया।
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति से हटाया जाना सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है।
खन्ना ने कहा कि लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए, जिसपर कोई उंगली न उठा सके, जबकि संशोधन विधेयक के जरिये चयन समिति में किये गये परिवर्तन से ऐसा साफ लगता है कि सरकार अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को लोकायुक्त बनाना चाहती है।
कांग्रेस के नेता प्रदीप माथुर ने भी संशोधन विधेयक का विरोध किया और इसकी जरूरत पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह कदम सदन में सत्तापक्ष के बहुमत का दुरूपयोग है। संसदीय कार्यमंत्री आजम खां ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि यह सदन चुने हुए प्रतिनिधियों का है, हमारे पास यह अधिकार होना चाहिए कि हम जनता को न्याय दिला सकें। उन्होंने कहा कि चूंकि लोकायुक्त की नियुक्ति का दायित्व सरकार पर है, इसलिए नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार के पास पर्याप्त अधिकार होने चाहिए।
सरकार की तरफ से लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति के लिए भेजे गये पूर्व न्यायाधीश रवीन्द्र सिंह यादव के नाम पर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की तरफ से आपत्ति जताये जाने की ओर इशारा करते हुए खां ने कहा कि ऐसा करके एक ऐसे व्यक्ति पर उंगली उठायी गयी है, जो लम्बे समय तक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका है। ऐसा करके एक तरीके से पूरी न्यायपालिका पर उंगली उठायी गयी है और कोई नहीं चाहेगा कि न्यायपालिका पर उंगली उठे।
संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि अभी इस विधेयक को राजभवन जाना है, जहां नगर निकाय अधिनियम में संशोधन के लिए पारित विधेयक सहित कई विधेयक अब भी मंजूरी की बाट जोह रहे हैं।
यह कहते हुए कि वे किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि राजभवन की बात कर रहे है, खां ने सवाल करते हुए कहा, ‘‘क्या कभी पहले भी ऐसा हुआ है कि सरकार ने विधान परिषद में सदस्यों के मनोनयन के लिए प्रस्ताव भेजा हो और मंजूरी न मिली हो।’’ उन्होंने कहा कि जिस तरीके से विधान परिषद में मनोनयन के लिए नौ नामों में से चार को मंजूरी दे दी गयी और पांच को रोक लिया गया, वह राजभवन की परंपरा के खिलाफ है।
आजम ने कहा कि राजभवन के प्रति जनता का विश्वास बना रहना चाहिए कि यह 1947 से पहले का नहीं बल्कि उसके बाद का राजभवन हैं।
विपक्षी दलों द्वारा विधेयक को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक होने के आरोप को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि यह विधेयक विधि विभाग से विचार विमर्श के बाद लाया गया है और चूंकि यह सदन द्वारा पारित किया जा रहा है, इसे अलोकतांत्रिक कहना सरासर गलत है।
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