प्रतीकात्मक फोटो.
नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उम्रकैद या मौत की सजा देने के दौरान सामाजिक आर्थिक कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. कोर्ट ने ये भी कहा है कि मौत की सजा याफ्ता की लंबी लाइन को देखते हुए भी सजा को कम करने पर विचार किया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समाज पर मौत की सजा के निवारक प्रभाव पर कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है. ऐसी ही टिप्पणियां करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मदन बी लोकुर की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने केरल में एक परिवार के 6 सदस्यों के हत्यारे की मौत की सजा और महाराष्ट्र में तीन साल की लड़की के बलात्कार और हत्या करने वाले की सजा घटाकर उम्रकैद कर दी.
पीठ ने कहा कि हालांकि दोषी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति उनके अपराध को अस्वीकार करने का एक ही कारक नहीं है लेकिन ये एक कारक है जिस पर उचित सजा देने के प्रयोजनों के लिए विचार किया जाना चाहिए.
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पहले मामले में केरल में एंटनी ने जनवरी 2001 में एक परिवार के छह सदस्यों की हत्या कर दी थी. 2005 में निचली अदालत ने उन्हें हत्याओं के लिए मौत की सजा सुनाई और 2006 में केरल उच्च न्यायालय ने इसकी पुष्टि की. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने एंटनी की अपील को खारिज कर दिया और मौत की सजा की पुष्टि की. उसकी पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया गया था, लेकिन शीर्ष अदालत के उस फैसले के बाद मामले को फिर से खोल दिया गया था कि पुनर्विचार याचिकाओं को तीन जजों द्वारा खुली अदालत में सुना जाना चाहिए.
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक धारणा है (शायद गलत है) कि केवल गरीबों और मोहताज को ही मृत्युदंड दिया जाता है जबकि अमीरों को छोड़ दिया जाता है. ऐसे में आर्थिक और सामाजिक परिवेश को देखा जाना बहुत जरूरी है. फैसले को लिखते हुए न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, "ऐसे कई मामले हैं जहां छह साल से अधिक समय तक अभियुक्त मौत की सजा की लाइन में है. एक मानक अवधि अपनाई जानी चाहिए ताकि मौत की सजा पाने वालों को उम्रकैद मिल सके.
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एक और मामले में इसी पीठ ने राजेंद्र प्रहलादराल वासनिक की मौत की सजा को मृत्यु तक उम्रकैद में बदल दिया. वासनिक को तीन साल की लड़की के साथ बलात्कार और हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी.
पुनर्विचार याचिका का फैसला करते हुए न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने लिखा, "मौत की सजा" इन कुछ शब्दों का कठोर आपराधिक समेत किसी पर भी Chilly Effect पड़ता है. हमारा समाज अपने निवारक प्रभाव के आधार पर ऐसी सजा मांगता है. हालांकि इसके निवारक प्रभाव पर कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है. हमारा समाज भी एक भयानक अपराध के लिए मृत्यु के रूप में मौत की सजा की मांग करता है. हालांकि फिर से कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है कि क्या प्रतिशोध स्वयं समाज को संतुष्ट करता है."
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोनों निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने समाज में अपीलकर्ता के सुधार, पुनर्वास और सामाजिक पुन: एकीकरण की संभावना पर विचार नहीं किया.
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समाज पर मौत की सजा के निवारक प्रभाव पर कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है. ऐसी ही टिप्पणियां करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मदन बी लोकुर की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने केरल में एक परिवार के 6 सदस्यों के हत्यारे की मौत की सजा और महाराष्ट्र में तीन साल की लड़की के बलात्कार और हत्या करने वाले की सजा घटाकर उम्रकैद कर दी.
पीठ ने कहा कि हालांकि दोषी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति उनके अपराध को अस्वीकार करने का एक ही कारक नहीं है लेकिन ये एक कारक है जिस पर उचित सजा देने के प्रयोजनों के लिए विचार किया जाना चाहिए.
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पहले मामले में केरल में एंटनी ने जनवरी 2001 में एक परिवार के छह सदस्यों की हत्या कर दी थी. 2005 में निचली अदालत ने उन्हें हत्याओं के लिए मौत की सजा सुनाई और 2006 में केरल उच्च न्यायालय ने इसकी पुष्टि की. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने एंटनी की अपील को खारिज कर दिया और मौत की सजा की पुष्टि की. उसकी पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया गया था, लेकिन शीर्ष अदालत के उस फैसले के बाद मामले को फिर से खोल दिया गया था कि पुनर्विचार याचिकाओं को तीन जजों द्वारा खुली अदालत में सुना जाना चाहिए.
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक धारणा है (शायद गलत है) कि केवल गरीबों और मोहताज को ही मृत्युदंड दिया जाता है जबकि अमीरों को छोड़ दिया जाता है. ऐसे में आर्थिक और सामाजिक परिवेश को देखा जाना बहुत जरूरी है. फैसले को लिखते हुए न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, "ऐसे कई मामले हैं जहां छह साल से अधिक समय तक अभियुक्त मौत की सजा की लाइन में है. एक मानक अवधि अपनाई जानी चाहिए ताकि मौत की सजा पाने वालों को उम्रकैद मिल सके.
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एक और मामले में इसी पीठ ने राजेंद्र प्रहलादराल वासनिक की मौत की सजा को मृत्यु तक उम्रकैद में बदल दिया. वासनिक को तीन साल की लड़की के साथ बलात्कार और हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी.
पुनर्विचार याचिका का फैसला करते हुए न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने लिखा, "मौत की सजा" इन कुछ शब्दों का कठोर आपराधिक समेत किसी पर भी Chilly Effect पड़ता है. हमारा समाज अपने निवारक प्रभाव के आधार पर ऐसी सजा मांगता है. हालांकि इसके निवारक प्रभाव पर कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है. हमारा समाज भी एक भयानक अपराध के लिए मृत्यु के रूप में मौत की सजा की मांग करता है. हालांकि फिर से कोई निर्णायक अध्ययन नहीं है कि क्या प्रतिशोध स्वयं समाज को संतुष्ट करता है."
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोनों निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने समाज में अपीलकर्ता के सुधार, पुनर्वास और सामाजिक पुन: एकीकरण की संभावना पर विचार नहीं किया.
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