सबरीमाला मंदिर की फाइल फोटो
नई दिल्ली:
सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश की इजाजत देने के संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार याचिकाओं पर जल्द सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई ने कहा कि ये केस नियमित तरीके से सुना जाएगा. CJI गोगोई ने कहा कि कितनी भी जल्दी हो तो 16 अक्टूबर से पहले ये संभव नहीं है. याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि 16 अक्टूबर को मंदिर खुल रहा है, इसलिए कम से कम शुक्रवार को फैसले पर अंतरिम रोक लगाने के लिए सुनवाई हो. इस पर CJI ने कहा कि लेटर दें दो, वो देखेंगे.
सबरीमाला मंदिर: सुप्रीम कोर्ट के आदेश को केरल सरकार ने लागू करने का लिया फैसला तो संघ ने बताया दुर्भाग्यपूर्ण
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को हटा दी थी और इस प्रथा को असंवैधानिक करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबरीमाला मंदिर के दरवाजे सभी महिलाओं के लिए खोल दिये गए थे. फिलहाल 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी. मगर अब सब मंदिर में दर्शन करने जा सकेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धर्म एक है गरिमा और पहचान है. अयप्पा कुछ अलग नहीं हैं. जो नियम जैविक और शारीरिक प्रक्रिया पर बने हैं वो संवैधानिक टेस्ट पर पास नहीं हो सकते. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 4-1 के बहुमत से आया. क्योंकि जस्टिस इंदू मल्होत्रा की अलग राय थी. उन्होंने कहा कि कोर्ट को धार्मिक परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिए.
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरोध में सड़कों पर उतरे लोग, कहा - अदालत का फैसला अस्वीकार्य
जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा था कि इस मुद्दे का दूर तक असर जाएगा. धार्मिक परंपराओं में कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए. अगर किसी को किसी धार्मिक प्रथा में भरोसा है तो उसका सम्मान हो. ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं. समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखना चाहिए. कोर्ट का काम प्रथाओं को रद्द करना नहीं है.
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरोध में सड़कों पर उतरे लोग, कहा - अदालत का फैसला अस्वीकार्य
जस्टिस चंद्रचूड ने कहा था कि क्या संविधान महिलाओं के लिए अपमानजनक बात को स्वीकार कर सकता है ? पूजा से इनकार करना महिला गरिमा से इनकार करना. महिलाओं को भगवान की कमतर रचना की तरह बर्ताव संविधान से आंख मिचौली. पहले के दिनों में प्रतिबिंध प्राकृतिक कारणों से था. उन्होंने कहा था कि अनुच्छेद 25 के मुताबिक सब बराबर हैं. समाज में बदलाव दिखना जरूरी. वैयक्तिक गरिमा अलग चीज़ है. लेकिन समाज मे सबकी गरिमा का ख्याल रखना ज़रूरी. पहले महिलाओं पर पाबन्दी उनको कमज़ोर मानकर लगाई जा रही थी. सबरीमला मामले में ब्रह्मचर्य से डिगने की आड़ में 10-50 वर्ष की महिलाओं पर मन्दिर में आने पर पाबन्दी लगाई गई थी. जस्टिस नरीमन में ने कहा कि मंदिर में महिलाओं को भी पूजा का समान अधिकार. ये मौलिक अधिकार है.
जानिए, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर बहुमत से अलग क्यों रहा जस्टिस इंदु मल्होत्रा का फैसला
गौरतलब है कि इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और अन्य ने इस प्रथा को चुनौती दी थी. उन्होंने यह कहते हुए कि यह प्रथा लैंगिक आधार पर भेदभाव करती है, इसे खत्म करने की मांग की थी. याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना था कि यह संवैधानिक समानता के अधिकार में भेदभाव है. एसोसिएशन ने कहा है कि मंदिर में प्रवेश के लिए 41 दिन से ब्रहचर्य की शर्त नहीं लगाई जा सकती क्योंकि महिलाओं के लिए यह असंभव है.
VIDEO: केरल का सबरीमाला मंदिर अब सबके लिए!
सबरीमाला मंदिर: सुप्रीम कोर्ट के आदेश को केरल सरकार ने लागू करने का लिया फैसला तो संघ ने बताया दुर्भाग्यपूर्ण
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को हटा दी थी और इस प्रथा को असंवैधानिक करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबरीमाला मंदिर के दरवाजे सभी महिलाओं के लिए खोल दिये गए थे. फिलहाल 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी. मगर अब सब मंदिर में दर्शन करने जा सकेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि धर्म एक है गरिमा और पहचान है. अयप्पा कुछ अलग नहीं हैं. जो नियम जैविक और शारीरिक प्रक्रिया पर बने हैं वो संवैधानिक टेस्ट पर पास नहीं हो सकते. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 4-1 के बहुमत से आया. क्योंकि जस्टिस इंदू मल्होत्रा की अलग राय थी. उन्होंने कहा कि कोर्ट को धार्मिक परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिए.
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरोध में सड़कों पर उतरे लोग, कहा - अदालत का फैसला अस्वीकार्य
जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा था कि इस मुद्दे का दूर तक असर जाएगा. धार्मिक परंपराओं में कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए. अगर किसी को किसी धार्मिक प्रथा में भरोसा है तो उसका सम्मान हो. ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं. समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखना चाहिए. कोर्ट का काम प्रथाओं को रद्द करना नहीं है.
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरोध में सड़कों पर उतरे लोग, कहा - अदालत का फैसला अस्वीकार्य
जस्टिस चंद्रचूड ने कहा था कि क्या संविधान महिलाओं के लिए अपमानजनक बात को स्वीकार कर सकता है ? पूजा से इनकार करना महिला गरिमा से इनकार करना. महिलाओं को भगवान की कमतर रचना की तरह बर्ताव संविधान से आंख मिचौली. पहले के दिनों में प्रतिबिंध प्राकृतिक कारणों से था. उन्होंने कहा था कि अनुच्छेद 25 के मुताबिक सब बराबर हैं. समाज में बदलाव दिखना जरूरी. वैयक्तिक गरिमा अलग चीज़ है. लेकिन समाज मे सबकी गरिमा का ख्याल रखना ज़रूरी. पहले महिलाओं पर पाबन्दी उनको कमज़ोर मानकर लगाई जा रही थी. सबरीमला मामले में ब्रह्मचर्य से डिगने की आड़ में 10-50 वर्ष की महिलाओं पर मन्दिर में आने पर पाबन्दी लगाई गई थी. जस्टिस नरीमन में ने कहा कि मंदिर में महिलाओं को भी पूजा का समान अधिकार. ये मौलिक अधिकार है.
जानिए, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर बहुमत से अलग क्यों रहा जस्टिस इंदु मल्होत्रा का फैसला
गौरतलब है कि इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और अन्य ने इस प्रथा को चुनौती दी थी. उन्होंने यह कहते हुए कि यह प्रथा लैंगिक आधार पर भेदभाव करती है, इसे खत्म करने की मांग की थी. याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना था कि यह संवैधानिक समानता के अधिकार में भेदभाव है. एसोसिएशन ने कहा है कि मंदिर में प्रवेश के लिए 41 दिन से ब्रहचर्य की शर्त नहीं लगाई जा सकती क्योंकि महिलाओं के लिए यह असंभव है.
VIDEO: केरल का सबरीमाला मंदिर अब सबके लिए!
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं