राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली
नई दिल्ली:
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था के बदले न्यायिक नियुक्तियां आयोग गठित करने का रास्ता साफ करने वाले संविधान (120वां संशोधन) विधेयक को राज्यसभा ने एनडीए के वॉकआउट के बीच अपनी मंजूरी दे दी।
बीजेपी इस विधेयक को स्थायी समिति में भेजे जाने की मांग कर रही थी। अपनी मांगें नहीं माने जाने पर बीजेपी, शिरोमणि अकाली दल और शिवेसना के सदस्यों ने सदन से वॉकआउट किया। सदन ने एक के मुकाबले 131 मतों से विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी।
सदन ने हालांकि, प्रस्तावित निकाय की स्थापना का ब्योरा देने वाले विधेयक न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक, 2013 को स्थायी समिति को भेज दिया। विधेयक पर चर्चा के दौरान कानून मंत्री कपिल सिब्बल और सदन में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने अपनी राय के पक्ष में तर्क दिए।
जेटली ने कहा कि संविधान संशोधन विधेयक का अभी पारित किया जाना उचित नहीं होगा, क्योंकि कॉलेजियम तंत्र के बदले कोई नई व्यवस्था नहीं लागू की जा रही है। उन्होंने संवैधानिक गतिरोध पैदा होने की आशंका व्यक्त की। उन्होंने कहा कि स्थायी समिति संसद के अगले सत्र के पहले इस पर विचार कर अपनी रिपोर्ट दे सकती है और इसे अगले सत्र के पहले दिन ही पारित कराया जा सकता है। सिब्बल ने जेटली की आशंकाओं को खारिज कर दिया और कहा कि न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक पारित होने तक सरकार संविधान संशोधन राष्ट्रपति के पास नहीं भेजेगी।
सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीश नियुक्तियां विधेयक पर स्थायी समिति की रिपोर्ट आएगी, उस समय तक केंद्र विभिन्न राज्यों को इसकी अभिपुष्टि करने के लिए कहेगा। इस प्रक्रिया में छह से आठ महीने लग सकते हैं। उन्होंने कहा कि कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी जरूरी है। इसके पहले सरकार और विपक्ष ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चयन मंडल (कॉलेजियम) के तरीके की एक सुर में आलोचना की।
उन्होंने इस व्यवस्था को समाप्त कर पारदर्शिता सुनिश्चित किए जाने की मांग करते हुए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों को लेकर संतुलन बनाने की जरूरत पर बल दिया। कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था सही तरीके से काम नहीं कर सकी है, इस वजह से विधेयक लाने की जरूरत हुई। उन्होंने कहा कि नियुक्ति की प्रक्रिया में कार्यपालिका की राय भी ली जानी चाहिए।
सिब्बल ने कहा कि 1993 में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की तत्कालीन प्रक्रिया को बदलने की बात की थी। कानून मंत्री ने कहा कि वह संविधान को फिर से लिखने का प्रयास था। इससे विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच का संतुलन प्रभावित हुआ। उन्होंने कहा कि नियुक्ति कार्यपालिका का काम है और इसका न्यायिक कामकाज से कोई संबंध नहीं है।
बीजेपी इस विधेयक को स्थायी समिति में भेजे जाने की मांग कर रही थी। अपनी मांगें नहीं माने जाने पर बीजेपी, शिरोमणि अकाली दल और शिवेसना के सदस्यों ने सदन से वॉकआउट किया। सदन ने एक के मुकाबले 131 मतों से विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी।
सदन ने हालांकि, प्रस्तावित निकाय की स्थापना का ब्योरा देने वाले विधेयक न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक, 2013 को स्थायी समिति को भेज दिया। विधेयक पर चर्चा के दौरान कानून मंत्री कपिल सिब्बल और सदन में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने अपनी राय के पक्ष में तर्क दिए।
जेटली ने कहा कि संविधान संशोधन विधेयक का अभी पारित किया जाना उचित नहीं होगा, क्योंकि कॉलेजियम तंत्र के बदले कोई नई व्यवस्था नहीं लागू की जा रही है। उन्होंने संवैधानिक गतिरोध पैदा होने की आशंका व्यक्त की। उन्होंने कहा कि स्थायी समिति संसद के अगले सत्र के पहले इस पर विचार कर अपनी रिपोर्ट दे सकती है और इसे अगले सत्र के पहले दिन ही पारित कराया जा सकता है। सिब्बल ने जेटली की आशंकाओं को खारिज कर दिया और कहा कि न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक पारित होने तक सरकार संविधान संशोधन राष्ट्रपति के पास नहीं भेजेगी।
सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीश नियुक्तियां विधेयक पर स्थायी समिति की रिपोर्ट आएगी, उस समय तक केंद्र विभिन्न राज्यों को इसकी अभिपुष्टि करने के लिए कहेगा। इस प्रक्रिया में छह से आठ महीने लग सकते हैं। उन्होंने कहा कि कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी जरूरी है। इसके पहले सरकार और विपक्ष ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चयन मंडल (कॉलेजियम) के तरीके की एक सुर में आलोचना की।
उन्होंने इस व्यवस्था को समाप्त कर पारदर्शिता सुनिश्चित किए जाने की मांग करते हुए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों को लेकर संतुलन बनाने की जरूरत पर बल दिया। कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था सही तरीके से काम नहीं कर सकी है, इस वजह से विधेयक लाने की जरूरत हुई। उन्होंने कहा कि नियुक्ति की प्रक्रिया में कार्यपालिका की राय भी ली जानी चाहिए।
सिब्बल ने कहा कि 1993 में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की तत्कालीन प्रक्रिया को बदलने की बात की थी। कानून मंत्री ने कहा कि वह संविधान को फिर से लिखने का प्रयास था। इससे विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच का संतुलन प्रभावित हुआ। उन्होंने कहा कि नियुक्ति कार्यपालिका का काम है और इसका न्यायिक कामकाज से कोई संबंध नहीं है।
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