यूनिसेफ ने सेहत और शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए रेडियो को आधार बनाया
नई दिल्ली:
चाय के बागानों से घिरा असम का दरंग जिले की खूबसूरती अपनेआप में बेमिसाल है। ब्रह्मपुत्र का इलाका होने के कारण यहां धान, गन्ना और राई भी खूब होता है. कुदरत की नेमत से भरपूर इस जिले में सरकारी योजनाएं दम तोड़ती नज़र आती हैं. एक तरफ जहां भारत डिज़िटल इंडिया बनने की ओर अग्रसर है वहीं, दरंग में बुनियादी सुविधाएं जैसे, स्वास्थ्य और शिक्षा की आम लोगों तक पहुंच बहुत कम है.
सरकार द्वारा चलाया जा रहा टीकाकरण अभियान (मिशन इंद्रधनुष) यहां के लोगों की पहुंच से अभी भी बहुत दूर है। करीब 15 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में स्वास्थ्य के प्रति लोगों लोगों में जागरुकता फैलाने का काम सरकारी तंत्र पर ही है। अख़बार आदि में विज्ञापन देकर इस जिम्मेदारी की इतिश्री मान ली जाती है.
बच्चे सेहतमंद हों, इसके लिए उनका समय पर टीकाकरण बहुत जरुरी है, लेकिन जागरुकता की कमी के कारण लोगों तक चीजें पहुंच नहीं पा रही हैं. लोगों को उनकी सेहत के प्रति जागरुक करने के लिए बीड़ा उठाया है वहां के स्थानीय एफ.एम. चैनलों ने. यहां रेडियो एकमात्र ऐसा साधन है जो जन-जन तक अपनी पैठ बनाए हुए हैं. अपनी इसी पैठ का फायदा उठाकर यहां के लोकल एफ.एम. चैनल लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति जागरुक कर रहे हैं.
कुछ इसी तरह का हाल ओडिशा के गजपति जिले का है. करीब 6 लाख की आबादी वाले इस जिले की साक्षरता दर महज 54 फीसदी ही है. यानी कुल आबादी में से आधे लोग ही साक्षर हैं. जब शिक्षा की स्थिति यह है तो स्वास्थ्य सेवाओं के हाल का आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं.
आदिवासी बाहुल्य और खासकर नक्सल से प्रभावित इस जिले में लोगों का जीवन स्तर बहुत दयनीय है. कुनापाडा की नमिता मंडल और गीता रैता से जब टीकाकरण के बारे पूछा गया तो उन्होंने उल्टा सवाल दागा कि ये क्या है. उनके यहां से सरकारी अस्पताल करीब 20 किलोमीटर दूर है। बच्चों का बुखार आदि आने पर गांव के ही डॉक्टर या फिर झाड़-फूंक ही उनका इलाज है.
अख़बार की पहुंच शहर के ख़ास घरों तक ही है। गांव-देहात में टीवी तो लगे हैं मगर उतने नहीं जितने की दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में नज़र आते हैं. हां, रेडियो जरुर लोग अपने मोबाइल फोन पर जरुर सुनते हैं. रेडियो कम मोबाइल सेट पर स्थानीय भाषा में गाने के बोल के साथ अपने सुर मिलाते संतोष से पूछा कि वे अख़बार पढ़ते हैं तो उसने तुरंत ना में सिर हिला दिया। समाचारों के बारे में पूछने पर उसने अपने मोबाइल की तरफ इशारा कर दिया.
गजपति जिले में भी स्थानीय रेडियो चैनल बिना किसी प्रायोजक के स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए जिंगल आदि का सहारा लेते हैं.
आखिर रेडियो ही क्यों जनस्वास्थ्य के मुद्दों पर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, इसका जबाव मिला यूनिसेफ से. संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने लोगों में रेडियो की घुसपैठ को देखते हुए सेहत और शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए रेडियो को आधार बनाया. और वह भी उन इलाकों में जो देश के दूरदराज के और पिछड़े जिलों में आते हैं.
ये हाल दरंग या जगपति जिले का नहीं है बल्कि पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, झारखंड आदि पिछले राज्यों के दूरदराज के इलाकों में रेडियो स्थानीय भाषा में जिंगल, गीत-संगीत, संदेश और रिपोर्टिंग के माध्यम से सरकार की जिम्मेदारियों को बिना किसी लोभ-लालच के निभा रहा है.
यूनिसेफ की मीडिया प्रबंधक सोनिया सरकार ने बताया कि यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि साल 2030 तक दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के 16.7 करोड़ बच्चे गरीबी की चपेट में होंगे, जिसमें 6.9 करोड़ बच्चे भूख और देखभाल की कमी से मौत का शिकार हो सकते हैं. “स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट 2016” के मुताबिक भारत में बच्चों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.
यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में दक्षिण एशिया में अपने जन्म के महज 28 दिनों के भीतर जो दस लाख बच्चे मृत हो गए, उनमें से सात लाख बच्चे अकेले भारत के थे. सोनिया बताती हैं कि इसके पीछे मुख्य वजह है लोगों का स्वास्थ्य के प्रति जागरुक न होना.
उन्होंने बताया कि लोगों को इन्हीं मुद्दों पर जागरुकता फैलाने के लिए अन्य साधनों के साथसाथ रेडियो का सहारा लिया गया. इसके तहत उन्होंने रेडियो पर प्रसारित होने वाले टीकाकरण आदि जागरुकता पर चलाए जा रहे कार्यक्रमों को पुरस्कृत करने के लिए देशभर से आवेदन मंगवाये, जिनमें रेडियो जर्नलिस्ट ने समाचार, जिंगल, रिपोर्ट आदि के माध्यम से लोगों में जागरुकता का संदेश दिया है. ख़ास बात ये है कि रेडियो की पहल का लोगों में असर भी देखा गया है.
सोनिया ने बताया कि रेडियो पत्रकारों को सम्मानित करने का काम साल 2014 में शुरु किया गया था. उनकी पहल इतनी सफल रही कि इस साल कई गुना आवेदन उन्हें देशभर से हासिल हुए हैं.
ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली के उप महानिदेशक राजीव कुमार शुक्ल बताते हैं कि देश की 90 फीसदी से अधिक आबादी में रेडियो की पहुंच है. सरकारी तथा निजी चैनल विभिन्न तरीकों से लोगों को उनके स्वास्थ्य और अधिकारों के प्रति जागरुक करने की कोशिश कर रहे हैं और इसके सकारात्मक परिणाम भी आ रहे हैं. लोग रेडियो पर खुलकर अपनी बातों को साझा करते हैं और सुझावों का आदान-प्रदान करते हैं.
सामाजिक सरोकारों में रेडियो की भूमिका पर पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं एपीजे सत्या यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म एवं मास कम्यूनिकेशन विभाग के प्रमुख प्रो. परवेज़ आलम बताते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि रेडियो जन-जन का माध्यम है. बदलते समय में रेडियो ने खुद को भी बदला है और नए स्वरुप में आया है. एफएम इसका अच्छा उदाहरण है. वह बताते हैं कि रेडियो के अभी अच्छे दिन आने बाकि हैं.
परवेज़ आलम बताते हैं कि जिंगल, रेडियो जर्नलिस्ट लिंक, फिल्ड रिपोर्टिंग, फोन इन तथा डाक्यूमेंट्री के माध्यम से लोगों तक सामाजिक सरोकार की चीजें पहुंच रही हैं और लोग उनका फायदा भी उठा रहे हैं.
सरकार द्वारा चलाया जा रहा टीकाकरण अभियान (मिशन इंद्रधनुष) यहां के लोगों की पहुंच से अभी भी बहुत दूर है। करीब 15 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में स्वास्थ्य के प्रति लोगों लोगों में जागरुकता फैलाने का काम सरकारी तंत्र पर ही है। अख़बार आदि में विज्ञापन देकर इस जिम्मेदारी की इतिश्री मान ली जाती है.
बच्चे सेहतमंद हों, इसके लिए उनका समय पर टीकाकरण बहुत जरुरी है, लेकिन जागरुकता की कमी के कारण लोगों तक चीजें पहुंच नहीं पा रही हैं. लोगों को उनकी सेहत के प्रति जागरुक करने के लिए बीड़ा उठाया है वहां के स्थानीय एफ.एम. चैनलों ने. यहां रेडियो एकमात्र ऐसा साधन है जो जन-जन तक अपनी पैठ बनाए हुए हैं. अपनी इसी पैठ का फायदा उठाकर यहां के लोकल एफ.एम. चैनल लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति जागरुक कर रहे हैं.
कुछ इसी तरह का हाल ओडिशा के गजपति जिले का है. करीब 6 लाख की आबादी वाले इस जिले की साक्षरता दर महज 54 फीसदी ही है. यानी कुल आबादी में से आधे लोग ही साक्षर हैं. जब शिक्षा की स्थिति यह है तो स्वास्थ्य सेवाओं के हाल का आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं.
आदिवासी बाहुल्य और खासकर नक्सल से प्रभावित इस जिले में लोगों का जीवन स्तर बहुत दयनीय है. कुनापाडा की नमिता मंडल और गीता रैता से जब टीकाकरण के बारे पूछा गया तो उन्होंने उल्टा सवाल दागा कि ये क्या है. उनके यहां से सरकारी अस्पताल करीब 20 किलोमीटर दूर है। बच्चों का बुखार आदि आने पर गांव के ही डॉक्टर या फिर झाड़-फूंक ही उनका इलाज है.
अख़बार की पहुंच शहर के ख़ास घरों तक ही है। गांव-देहात में टीवी तो लगे हैं मगर उतने नहीं जितने की दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में नज़र आते हैं. हां, रेडियो जरुर लोग अपने मोबाइल फोन पर जरुर सुनते हैं. रेडियो कम मोबाइल सेट पर स्थानीय भाषा में गाने के बोल के साथ अपने सुर मिलाते संतोष से पूछा कि वे अख़बार पढ़ते हैं तो उसने तुरंत ना में सिर हिला दिया। समाचारों के बारे में पूछने पर उसने अपने मोबाइल की तरफ इशारा कर दिया.
गजपति जिले में भी स्थानीय रेडियो चैनल बिना किसी प्रायोजक के स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए जिंगल आदि का सहारा लेते हैं.
आखिर रेडियो ही क्यों जनस्वास्थ्य के मुद्दों पर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, इसका जबाव मिला यूनिसेफ से. संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने लोगों में रेडियो की घुसपैठ को देखते हुए सेहत और शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए रेडियो को आधार बनाया. और वह भी उन इलाकों में जो देश के दूरदराज के और पिछड़े जिलों में आते हैं.
ये हाल दरंग या जगपति जिले का नहीं है बल्कि पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, झारखंड आदि पिछले राज्यों के दूरदराज के इलाकों में रेडियो स्थानीय भाषा में जिंगल, गीत-संगीत, संदेश और रिपोर्टिंग के माध्यम से सरकार की जिम्मेदारियों को बिना किसी लोभ-लालच के निभा रहा है.
यूनिसेफ की मीडिया प्रबंधक सोनिया सरकार ने बताया कि यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि साल 2030 तक दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के 16.7 करोड़ बच्चे गरीबी की चपेट में होंगे, जिसमें 6.9 करोड़ बच्चे भूख और देखभाल की कमी से मौत का शिकार हो सकते हैं. “स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट 2016” के मुताबिक भारत में बच्चों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.
यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में दक्षिण एशिया में अपने जन्म के महज 28 दिनों के भीतर जो दस लाख बच्चे मृत हो गए, उनमें से सात लाख बच्चे अकेले भारत के थे. सोनिया बताती हैं कि इसके पीछे मुख्य वजह है लोगों का स्वास्थ्य के प्रति जागरुक न होना.
उन्होंने बताया कि लोगों को इन्हीं मुद्दों पर जागरुकता फैलाने के लिए अन्य साधनों के साथसाथ रेडियो का सहारा लिया गया. इसके तहत उन्होंने रेडियो पर प्रसारित होने वाले टीकाकरण आदि जागरुकता पर चलाए जा रहे कार्यक्रमों को पुरस्कृत करने के लिए देशभर से आवेदन मंगवाये, जिनमें रेडियो जर्नलिस्ट ने समाचार, जिंगल, रिपोर्ट आदि के माध्यम से लोगों में जागरुकता का संदेश दिया है. ख़ास बात ये है कि रेडियो की पहल का लोगों में असर भी देखा गया है.
सोनिया ने बताया कि रेडियो पत्रकारों को सम्मानित करने का काम साल 2014 में शुरु किया गया था. उनकी पहल इतनी सफल रही कि इस साल कई गुना आवेदन उन्हें देशभर से हासिल हुए हैं.
ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली के उप महानिदेशक राजीव कुमार शुक्ल बताते हैं कि देश की 90 फीसदी से अधिक आबादी में रेडियो की पहुंच है. सरकारी तथा निजी चैनल विभिन्न तरीकों से लोगों को उनके स्वास्थ्य और अधिकारों के प्रति जागरुक करने की कोशिश कर रहे हैं और इसके सकारात्मक परिणाम भी आ रहे हैं. लोग रेडियो पर खुलकर अपनी बातों को साझा करते हैं और सुझावों का आदान-प्रदान करते हैं.
सामाजिक सरोकारों में रेडियो की भूमिका पर पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं एपीजे सत्या यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म एवं मास कम्यूनिकेशन विभाग के प्रमुख प्रो. परवेज़ आलम बताते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि रेडियो जन-जन का माध्यम है. बदलते समय में रेडियो ने खुद को भी बदला है और नए स्वरुप में आया है. एफएम इसका अच्छा उदाहरण है. वह बताते हैं कि रेडियो के अभी अच्छे दिन आने बाकि हैं.
परवेज़ आलम बताते हैं कि जिंगल, रेडियो जर्नलिस्ट लिंक, फिल्ड रिपोर्टिंग, फोन इन तथा डाक्यूमेंट्री के माध्यम से लोगों तक सामाजिक सरोकार की चीजें पहुंच रही हैं और लोग उनका फायदा भी उठा रहे हैं.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं