नमस्कार मैं रवीश कुमार। जिसे पढ़ना चाहिए वह धरने पर है और जिसे करना चाहिए वह पढ़ रहा है। यूपीएससी के छात्र धरने पर बैठे हैं और सरकार अरविंद वर्मा कमेटी की रिपोर्ट पढ़ रही है। 24 अगस्त को यूपीएससी की प्राथमिक परीक्षा का सी-सैट पेपर है। आज एक अगस्त है। 23 दिन पहले तक किसो को पता नहीं कि इस पेपर का भविष्य क्या है?
आज जब इंडियन एक्सप्रेस में ऋतु सरीन ने सबसे पहले ख़बर दी कि यूपीएससी ने 24 अगस्त की परीक्षा टालने या रद्द करने का विरोध किया है। इस रिपोर्ट में लिखा है कि भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय ने अपने सवाल यूपीएसएसी के पास भेजे थे, जिसका बिंदुवार जवाब दे दिया गया है। यह बताते हुए कि ज़्यादातर सुझावों को आखिरी वक्त में लागू करना मुमकिन नहीं है। यह सिर्फ हिन्दी के छात्रों का मामला नहीं है। देश भर के 9 लाख छात्रों का मामला है। सरकार ने यह भी पूछा था कि क्या उन छात्रों का एक और मौका दिया जा सकता है, जिनके 2011 से पहले सारे चांस समाप्त हो चुके हैं। 2011 में ही सी-सैट आया था।
ऋतु सरीन की रिपोर्ट कहती है कि इस बिन्दु पर यूपीएससी का रुख कुछ लचीला प्रतीत होता है। अब जब ये खबर आई तो संसद के दोनों सदनों में सांसदों ने सवाल उठाए। राज्स सभा में शरद यादव ने कहा कि सरकार ने वादा किया था कि सात दिन में समाधान हो जाएगा तो समाधान कहां है?
28 जुलाई को राजनाथ सिंह ने कहा था कि यूपीएससी विवाद को हफ्ते के अंदर हल कर लिया जाएगा। इस मुद्दे पर राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी की थी। कार्मिक राज्य मंत्री जीतेंद्र सिंह ने कहा कि सरकार को रिपोर्ट आज मिली है। संवेदनशील मसला है। अलग-अलग मत हैं। अध्ययन के लिए कुछ समय दीजिए। जीतेंद्र सिंह ने कहा कि बीच में छुट्टी पड़ गई थी, इसलिए सरकार को चार पांच दिन ही मिले।
यूपीएससी का इम्तहान टालना मामूली फैसला नहीं है। अंतिम घड़ी में ऐसा करने के साथ यूपीएससी जैसी संवैधानिक संस्था के साथ छेड़छाड़ की भी शुरुआत हो सकती है, लेकिन पिछली सरकार के समय भी यूपीएससी के कई प्रावधान राजनीतिक विरोध के बाद बदले गए थे।
दिक्कत यह है कि विपक्ष के अलावा सरकार के मंत्री या सरकार के दल के सांसदों ने शुरू में इस आंदोलन को समर्थन दिया, जिससे उम्मीदवारों को भरोसा हुआ कि सरकार उनकी मांग से प्राथमिक रूप से सहमत है और कुछ करेगी। गुजरते वक्त के साथ भरोसा कमज़ोर पड़ता जा रहा है।
धरने पर बैठे छात्रों की पिटाई और उठाई की खबरें मिल रही हैं। हिंसक टकराव भी हुआ। मगर इनकी पिटाई की खबरों को लेकर अंग्रेजी मीडिया ने दंगाई लिखा तो सोशल मीडिया पर इनके आंदोलन को शांतिपूर्ण बताया गया। ऐसी तस्वीरें जारी की गईं, जिनमें छात्रों के सिर फूटे पड़े हैं।
सरकार तो दो-चार मौकों पर हिन्दी बोलकर हिन्दी की चैम्पियन हो गई, मगर अपनी भाषा में प्रतिभा का परिचय देने की मांग करने वाले इन छात्रों को हिन्दी मीडियम यानी दोयम दर्जे का ब्रांडेड कर दिया गया। इन छात्रों की मांग को लेकर कई पक्ष हो सकते हैं और हो सकता है कि इनकी मांग तकनीकी आधार पर टिके भी न लेकिन जिस तरह से इनकी पिटाई होती रही और समाज, सरकार और विपक्ष का बड़ा हिस्सा चुप रहा है, वह बताता है कि हम भाषाई छात्रों के प्रति कितना संवेदनशील हैं।
सी-सैट विरोधी आंदोलन में शरीक जतीन मानते हैं कि इससे सिर्फ अंग्रेजी और टेक्निकल छात्रों को लाभ मिल रहा है। वहीं अंकित सी-सैट के पक्ष में हैं। कहते हैं कि विदेश सेवा में बिना अंग्रेजी के दुनिया के मंच पर कैसे बात रखेंगे? वैसे भी यह भाषा की जांच करने वाला इम्तहान नहीं है। एप्डिटयूड टेस्ट है।
फेसबुक पर किसी ने लिख दिया कि इस लिहाज़ से प्रधानमंत्री के लिए भी अंग्रेजी अनिवार्य हो जाए। बीबीसी की साइट पर एक दलील यह मिली कि ऐसा क्यों न हो अंग्रेजी माध्यम में परीक्षा देने वाले छात्र दस फीसदी सवालों के जवाब किसी भी क्षेत्रीय भाषा में दें, जहां से वे आते हैं। वैसे तथ्य यह है कि आईएएस बनने के बाद जिस राज्य में तैनाती होती है, वहां की भाषा सीखनी पड़ती है। इस दलील से अंग्रेजी भी बाद में सीखी या सीखाई जा सकती है। हमें दलील और बतकुच्चन में फर्क समझना होगा।
इस मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया में आईएएस अफसर श्रीवत्स कृष्णा का लेख और द हिन्दू में अनिता जोशुआ की रिपोर्ट को भी चर्चा के संदर्भ में लाना चाहता हूं। श्रीवत्स ने लिखा है कि क्या कोई आईआईटी, आईआईएम या जीमैट परीक्षाओं के लिए ऐसी मांग करने का साहस करेगा। अखिल भारतीय परीक्षा के लिए सभी विषयों के लिए एक कॉमन मंच बनाना होता है। भारत और उसकी संस्थाएं ग्लोबल हो रही हैं। सी-सैट रटंत विद्या की जगह विश्लेषण करने की क्षमता तर्कबुद्धि पर ज़ोर देता है और बेसिक अंग्रेजी की जांच करता है। अगर कोई दसवीं कक्षा का गणित या अंग्रेजी का पर्चा हल नहीं कर सकता तो उसे आईएएस नहीं बनना चाहिए। हिन्दी के खिलाफ जिस साज़िश की बात हो रही है वह हर इम्तहान पर लागू होती है।
यह भी तो हो सकता है। खैर हिन्दू में अनिता जोशुआ ने दूसरे तर्कों को सामने रखा है। इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं ताकि आंदोलनकारी छात्रों के समानांतर और भी दलीलें आ सकें।
अनिता का विश्लेषण बताता है कि 2010 के इम्तहान में ग्रामीण पृष्ठभूमि के 29.3 प्रतिशत उम्मीदवार चुने गए थे, जो 2011 में घटकर 27.13 हो गया। मगर यह कहना सही नहीं है कि सी-सैट के कारण हुआ। पुराना फार्मेट में भी ग्रामीण उम्मीदवारों में गिरावट शुरू हो चुकी है। लिहाज़ा इसके कारण कहीं और हैं, सी-सैट में नहीं। 2011 में मेन्स में हिन्दी में निबंध का चुनाव करने वाले छात्रों की संख्या थी 1682, जबकि 2012 में 1956 हो गई। बढ़ ही गई। कन्नड़, तमिल और तेलुगु में भी यही देखा गया है।
मैं अपनी चर्चा को इस विवाद के संदर्भ में घटिया अनुवाद के आस-पास नहीं रखना चाहता। बहुत बातें हो चुकी हैं। क्या हम इस सवाल को राजनीतिक नज़रिये से देख सकते हैं कि जब कोई प्रधानमंत्री चीन के सामने हिन्दी बोलकर देश के लिए राजनीतिक आत्मविश्वास का प्रदर्शन कर सकता है तो अंग्रेजी की तरफ झुकी जा रही हमारी परीक्षाओं को भारतीय भाषाओं की तरफ क्यों नहीं मोड़ा जा सकता।
यह भी ध्यान में रखियेगा कि पिछले दो दशकों में देश भर में अंग्रेजी मीडिया स्कूलों का प्रसार हुआ है। हर कोई इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालना चाहता है। हमारे पास इस बात की जांच का कोई मुकम्मल पैमाना नहीं है कि प्रतिभाएं सिर्फ गांवों और स्थानीय भाषाओं में ही हो सकती हैं।
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