यह ख़बर 30 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : जीएम फूड खेती की समस्या का अचूक समाधान है?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। जीएम फूड, जैव संवर्धित फसलों के बारे में आपकी कोई राय है। नहीं है तो कोई बात नहीं, मगर इस विवाद को आप किसी परिकथा की तरह न देखें तो ठीक रहेगा। जहां कोई चांद से आता है और खेती किसानी से लेकर भूखमरी तक की समस्या का हल कर जाता है। दुनिया भर में जीएम फूड को लेकर अनंत विवाद हैं। सरकारें, मंज़ूरी देने वाली एजेंसिया, जीएम फूड के बीज बनाने वाली कंपनियां, सबकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे हैं।

यू- टूब पर कई डॉक्यूमेंट्री मिल जाएगी तो कई विश्वसनीय वेबसाइट पर खूब सारे लेख। फिलहाल टीवी के लिए हम चंद सवालों तक सीमित रहेंगे।

क्या जी एम फूड हमारे स्वास्थ्य के लिए सही है?
क्या जीएम फूड खेती की समस्या का अचूक समाधान है?
क्या जीएम फूड से खेती पर कॉरपोरेट का कब्ज़ा हो जाएगा?
जीएम फूड के बीज के दाम पर किसका नियंत्रण होगा?
क्या जीएम फूड से हमारे खेतों की जैव विविधता समाप्त हो जाएगी?

मोटे तौर पर हमारे स्वास्थ्य पर असर और जीएम बीजों पर कंपनियों के एकाधिकार का सवाल महत्वपूर्ण है। एकाधिकार का मतलब है कि आप बीटी चने का बीज एक ही कंपनी से खरीदेंगे और कंपनी तय करेगी कि कितना दाम होगा। हर साल नई बीज खरीदनी होगी।

जैसे अभी कोई कीटनाशक दवा फेल हो जाती है तो किसान कंपनियों से ये तक नहीं पूछ पाता कि आपने ऐसा दावा क्यों किया था। बीज के बारे में यही हाल है। हमारे देश में इन चीज़ों पर नियंत्रण रखने की कोई विश्वसनीय संस्था तक नहीं है।

एक जानकार ने कहा कि अगर सरकार संतुष्ट ही है कि जीएम फूड होना चाहिए तो पूसा जैसे अपने कृषि संस्थानों को क्यों नहीं कहती कि जीएम बीजों का उत्पादन करे और किसानों में बांटे। अगर यही समाधान है तो सरकार क्यों नहीं देती।

हाल का विवाद इसलिए उठा है कि क्योंकि खबर आई कि जैव इंजीनियरिंग पुनरीक्षण कमेटी यानी जी ई ए सी ने भारत में 15 जैव फसलों के परीक्षण की अनुमति दे दी है। अनुमति देने वाली संस्था पर्यावरण मंत्रालय के अधीन है।

इसलिए आरएसएस से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मिलकर फील्ड परीक्षण की अनुमति का विरोध किया। मंत्री ने स्वदेशी जागरण मंच को आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। प्रतिनिधिमंडल ने मंत्री जी को याद दिलाया कि संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी जीएम फसलों पर 9 अगस्त 2013 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी जिसमें किसी भी प्रकार के परीक्षण को रोकने का सुझाव दिया है। जब तक ऐसी नियामक संस्था न बन जाए जीएम फसलों के ट्रायल की अनुमति नहीं देनी चाहिए क्योंकि अगर एक बार आपने जीएम फसल लगा दी तो वापस आप उस खेत में पुराने बीज से खेती नहीं कर सकेंगे।

कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है जो बताता हो कि जीएम टेक्नोलजी से उत्पादकता बढ़ती है। जीएम टेक्नालजी कुछ ही कंपनियां बनाती हैं, लिहाज़ा भारत की खाद्य सुरक्षा दो चार कंपनियों के हाथ में चली जाएंगी। सरकार को उद्योगों और संस्थाओं से तैयार रिपोर्ट पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि अतीत में इन कंपनियों के ऐसी रपटों में हेराफेरी के मामले सामने आए हैं।

भारतीय किसान यूनियन ने भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को खत लिखकर विरोध करने की मांग की है।

लेफ्ट से लेकर राइट तक इसके खिलाफ फाइट कर रहे हैं तो इसके फेवर में फाइट करने वालों की कोई कमी नहीं है। अपने पाठकों की वित्तीय सहायता से चलने वाली वेबसाइट न्यूज़ लॉन्ड्री में आनंद रंगनाथन ने तीन-तीन लेख लिखे हैं और जीएम फसलों का पक्ष लिया है।

जब हम अमरीकी मेडिकल उपकरण, दवायें, इंटरनेट और फेसबुक पर भरोसा करते हैं तो जीएम फूड पर क्यों नहीं कर सकते?
यह दावा सही नहीं है कि जीएम फूड से लिवर से लेकर किडनी तक फेल हो जाता है। कैंसर होता है।

ऐसे दावों को यूरोपीयन फूड एंड सेफ्टी अथारिटी ने सही नहीं पाया था दावा भी वापस लेना पड़ा था। अमरीका, चीन और यूरोप के कई देश जीएम फसलों को उगाने लगे हैं।

आनंद बताते हैं कि कैसे जीएम फूड के कारण किडनी लीवर फेल होने के दावे वैज्ञानिक जांच के आगे टिक नहीं सके। आखिर अमरीका ऐसी फसलों को क्यों खाएगा मगर वहां की नियामक संस्था की ईमानदारी पर भी सवाल उठ चुके हैं। अतीत में कई दवाओं के साथ हुआ है। जब तक उनका पेटेंट होता है तब तक कंपनियां अरबों डॉलर का मुनाफा बटोरने में लगी रहती हैं और जैसे ही पेटेंट खत्म होता है एक अध्ययन आ जाता है कि इसके इस्तेमाल से कैंसर होता है, वगैरह वगैरह।

हिन्दू अखबार में छपे अपने लेख में शिव विश्वनाथन विज्ञान को लेकर सार्वजनिक बहस और बीज के नियंत्रण का सवाल उठाते हैं।

भारत में इस विवाद की शुरुआत इक्कीसवदीं सदी के पहले दूसरे साल में होती है, जब गुजरात में स्मगलिंग के रास्ते जीएम टेक्नालजी का ट्रांसफर होता है। खुद सरकार और कंपनी जानकर हैरान रह गई थी।

वंदना शिवा ने यह आधार बनाया कि बायो और जेनेटिक तकनीक से खेतों की जैव विविधता खत्म हो जाती है। जैव विविधता मतलब आप गन्ने के साथ कुछ और नहीं उगा पायेंगे। खेतों में कुछ अच्छे खर पतवार भी होते हैं वे भी नष्ट हो जायेंगे। कापीराइट कंपनियों का होगा किसानों का नहीं। किसान संगठन की मांग ठीक है कि जब विज्ञान के इस प्रयोग को लेकर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। यह भी सवाल उठा कि जीएम फसलों के परीक्षण की अनुमति देने वाली संस्था जी ई ए सी कितनी तटस्थ है।

क्या गारंटी है कि इस संस्था ने दबाव में आकर काम नहीं किया होगा। सुरक्षा का मामला कैसे तय होगा। सुरक्षा के सवाल में किसानों की आजीविका का सवाल है या नहीं। विश्वनाथन चाहते हैं कि इस मसले से जुड़े हर सवाल पर अलग-अलग स्तर की बहस होनी चाहिए। नागरिकों को पहले संतुष्ट किया जाना चाहिए फिर अनुमति दी जानी चाहिए।

नरेंद्र मोदी बार-बार कहते हैं कि खेती में विज्ञान और तकनीक का खूब इस्तेमाल होना चाहिए। वे सिंचाई की प्रति बूंद पर अधिकतम फसल हासिल करना चाहते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि हम दाल में प्रोटीन की मात्रा क्यों नहीं बढ़ा सकते हैं। मार्च में महाराष्ट्र के किसानों के साथ चाय पे चर्चा के दौरान एक किसान ने पूछा था कि क्या आप बीटी बैंगन को अनुमति देंगे तो मोदी ने सीधा जवाब नहीं दिया था।

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गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने बीटी बैंगन के परीक्षण की इजाज़त दी थी। उन्होंने हां, ना में जवाब तो नहीं दिया मगर ये ज़रूर कहा था कि गुजरात में बीटी कौटन से किसानों को लाभ हुआ है। प्राइम टाइम