यह ख़बर 14 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

स्वतंत्रता दिवस : राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बोले, असहिष्णुता, हिंसा लोकतंत्र से विश्वासघात

नई दिल्ली:

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गुरुवार को कहा कि असहिष्णुता एवं हिंसा लोकतंत्र की मूल भावना के साथ धोखा है। उन्होंने ऐसे तत्वों को आड़े हाथ लिया जो 'भड़काऊ जहरीले उद्गारों' में यकीन रखते हैं।

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कट्टरता की ओर इशारा किया और कहा कि पहले से कहीं ज्यादा उथल-पुथल भरे माहौल ने 'हमारे धर्म और इससे आगे' कई खतरे पैदा किए हैं।

मुखर्जी ने कहा, 'प्राचीन सभ्यता होने के बावजूद भारत आधुनिक सपनों से युक्त आधुनिक राष्ट्र है। असहिष्णुता एवं हिंसा लोकतंत्र की भावना के साथ धोखा है।' उन्होंने कहा, 'जो लोग उत्तेजित करने वाले भड़काऊ उद्गारों में विश्वास करते हैं उन्हें न तो भारत के मूल्यों की और न ही इसकी वर्तमान राजनीतिक मन:स्थिति की समझ है। भारतवासी जानते हैं कि आर्थिक या सामाजिक, किसी भी तरह की प्रगति को शांति के बिना हासिल करना कठिन है।'

राष्ट्रपति की ये टिप्पणियां देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में इजाफे के मद्देनजर काफी अहम हैं।

मुखर्जी ने मराठा शासक शिवाजी की ओर से औरंगजेब को लिखे पत्र का उल्लेख किया जो उन्होंने तब लिखा था जब औरंगजेब ने जजिया लगाया था। उन्होंने शहंजाह से कहा था कि शाहजहां, जहांगीर और अकबर भी यह कर लगा सकते थे 'लेकिन उन्होंने अपने हृदय में कट्टरता को जगह नहीं दी क्योंकि उनका मानना था कि हर बड़े अथवा छोटे इंसान को ईश्वर ने विभिन्न मतों और स्वभावों के नमूने के रूप में बनाया है। उन्होंने कहा कि शिवाजी के 17वीं शताब्दी के इस पत्र में एक संदेश है जो सार्वभौमिक है। इसे वर्तमान समय में हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने वाला जीवंत दस्तावेज बन जाना चाहिए।

उन्होंने कहा, 'हम ऐसे समय में इस संदेश को भूलने का खतरा नहीं उठा सकते जब बढ़ते हुए अशांत अंतरराष्ट्रीय परिवेश ने हमारे क्षेत्र और उससे बाहर खतरे पैदा कर दिए हैं, जिनमें से कुछ तो पूरी तरह दिखाई दे रहे हैं और कुछ अभूतपूर्व उथल-पुथल के बीच धीरेधीरे बाहर आ रहे हैं।'

राष्ट्रपति ने कहा कि एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कट्टरपंथी लड़ाकों द्वारा धार्मिक विचारधारा पर आधारित भौगोलिक सत्ता कायम करने के लिए राष्ट्रों के नक्शों को दोबारा खींचने के प्रयास किए जा रहे हैं।

मुखर्जी ने कहा, 'भारत इसके दुष्परिणामों को महसूस करेगा, खासकर इसलिए क्योंकि यह उन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है जो आतंकवाद के हर स्वरूप को खारिज करते हैं। भारत लोकतंत्र, संतुलन, अंतर एवं अत:धार्मिक समरसता की मिसाल है।'

राष्ट्रपति ने कहा, 'हमें निश्चित तौर पर पूरी ताकत के साथ अपने धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को बचाए रखना है। हमें अपनी सुरक्षा तथा विदेश नीतियों में कूटनीति की कोमलता के साथ ही फौलादी ताकत का समावेश करना होगा, इसके साथ ही समान विचारधारा वाले तथा ऐसे अन्य लोगों को भी उन भारी खतरों को पहचानने के लिए तैयार करना होगा जो उदासीनता के अंदर पनपते हैं।'

अच्छे प्रशासन का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि भारत को शासन में ऐसे रचनात्मक चिंतन की जरूरत है जो त्वरित गति से विकास में सहयोग दे तथा सामाजिक सौहार्द का भरोसा दिलाए।
उन्होंने कहा, 'राष्ट्र को पक्षपातपूर्ण उद्वेगों से उपर रखना होगा। जनता सबसे पहले है।' राष्ट्रपति ने कहा कि किसी लोकतंत्र में अच्छे प्रशासन की शक्ति का प्रयोग राज्य की संस्थाओं के माध्यम से संविधान के ढांचे के तहत किया जाना होता है।

उन्होंने कहा, 'समय के बीतने तथा पारितंत्र में बदलाव के साथ कुछ विकृतियां भी सामने आती हैं जिससे कुछ संस्थाएं शिथिल पड़ने लगती हैं। जब कोई संस्था उस ढंग से कार्य नहीं करती जैसी उससे अपेक्षा होती है तो हस्तक्षेप की घटनाएं दिखाई देती हैं।'

राष्ट्रपति ने कहा, 'कुछ नई संस्थाओं की आवश्यकता हो सकती है परंतु इसका वास्तविक समाधान, प्रभावी सरकार के उद्देश्य को पूरा करने के लिए मौजूदा संस्थाओं को नया स्वरूप देने और उनका पुनरुद्धार करने में निहित है।'

मुखर्जी ने कहा, 'सुशासन वास्तव में विधि के शासन, सहभागितापूर्ण निर्णयन, पारदर्शिता, तत्परता, जवाबदेही, साम्यता तथा समावेशिता पर पूरी तरह निर्भर होता है। इसके तहत राजनीतिक प्रक्रिया में सिविल समाज की व्यापक भागीदारी की अपेक्षा होती है। इसमें युवाओं की लोकतंत्र की संस्थाओं में सघन सहभागिता जरूरी होती है। इसमें जनता को तुरंत न्याय प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है। मीडिया से नैतिक तथा जवाबदेही भरे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है।'

राष्ट्रपति ने कहा, 'हमारे जैसे आकार, विविधता एवं जटिलता वाले देश के लिए शासन के संस्कृति आधारित मॉडलों की जरूरत है। इसमें शक्ति के प्रयोग तथा उत्तरदायित्व के वहन के सभी भागीदारों का सहयोग अपेक्षित होता है। इसके लिए राज्य तथा इसके नागरिकों के बीच रचनात्मक भागीदारी की जरूरत होती है। इसमें देश के हर घर और हर गांव के दरवाजे तक तत्पर प्रशासन के पहुंचने की अपेक्षा की जाती है।'

मुखर्जी ने यह कहते हुए गरीबी के मुद्दे को भी छुआ कि गरीबी के अभिशाप को खत्म करना हमारे समय की निर्णायक चुनौती है।

उन्होंने कहा, 'पिछले छह दशकों में गरीबी का अनुपात 60 प्रतिशत से अधिक की पिछली दर से कम होकर 30 प्रतिशत से नीचे आ चुका है। इसके बावजूद, हमारी जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा है।'

राष्ट्रपति ने कहा, 'गरीबी केवल आंकड़ा नहीं है। गरीबी का चेहरा होता है और वह तब असहनीय हो जाता है जब यह बच्चे के मन पर अपने निशान छोड़ जाता है। गरीब अब एक और पीढ़ी तक न तो इस बात का इंतजार कर सकती है और न ही करेगी कि उसे जीवन के लिए अनिवार्य - भोजन, आवास, शिक्षा तथा रोजगार तक पहुंच से वंचित रखा जाए। आर्थिक विकास से होने वाले लाभ निर्धन से निर्धनतम व्यक्ति तक पहुंचने चाहिए।'

मौजूदा आर्थिक हालात की तरफ इशारा करते हुए राष्ट्रपति ने कहा, 'हालांकि, पिछले दो वषरें के दौरान आर्थिक वृद्धि दर पांच प्रतिशत से कम की अल्प दर पर रही परंतु मुझे वातावरण में नवीन ऊर्जा तथा आशावादिता महसूस हो रही है। पुनरुत्थान के संकेत दिखाई देने लगे हैं।'

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