उरी से मुजफ्फराबाद की तरफ जाने वाला रास्ता.
उरी:
श्रीनगर से मुजफ्फ़राबाद के लिए निकली बस 'कारवां ए अमन' अपने तय वक्त पर उरी में उसी रास्ते से गुजरी जहां रविवार को सुबह ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर आतंकी हमला हुआ था. यहां से मुजफ्फराबाद 70 किलोमीटर है, जबकि पाक अधिकृत कश्मीर सिर्फ 20 किमी बाद चकोठी से शुरू हो जाता है.
हालांकि काला पहाड़ ब्रिगेड के कमान पोस्ट से गुजरने वाली यह इकलौती बस रही, जिसमें सिर्फ दो यात्री थे. अन्य स्थानीय नागरिकों और कर्मचारियों को आगे जाने से रोक दिया गया.
उरी में एनएचपीसी के 500 कर्मचारी के दो पावर स्टेशनों में काम करते हैं. मध्यप्रदेश के रहने वाले संजय वर्मा एनएचपीसी में सिविल इंजीनियर हैं. उन्होंने एनडीटीवी को बताया "हमारा दफ्तर इस गेट के करीब छह किलोमीटर अंदर है, लेकिन आज हम इसके अंदर जाने से रहे." इलेक्ट्रिकल इंजीनियर गजानन निंबोली का कहना है कि "हमने हमले के बारे में टीवी में देखा था. अब इस रास्ते से गुजरने में थोड़ा डर लगता है." मैकेनिकल इंजीनियर विनोद कुमार ने बताया कि "वैसे तो डर नहीं है क्योंकि यहां के लोग बहुत अच्छे हैं. लेकिन जब इस तरह के हादसे होते हैं तो कुछ डर लगता है."
दरअसल बीते दिनों घाटी में लगातार रहे कर्फ्यू की वजह से केंद्र सरकार के कई कर्मचारी अपने दफ्तरों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. इसके अलावा बीते 15 सालों से मिडिल स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे शौकत हुसैन को भी सुरक्षा कारणों से जाने की इजाजत नहीं मिली. शौकत हुसैन का कहना है कि "मैं पिछले 15 साल से पढ़ा रहा हूं. बंद का असर इस इलाके पर नहीं पड़ा. अब वैसे भी सरकार ने यह लाज़मी बना दिया है कि सब सरकारी कर्मचारी दफ्तर पहुंचें, लेकिन शायद आज मैं न पहुंच सकूं."
इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर पहाड़ी और गूजर हैं. आमतौर पर यहां न सिर्फ शांति होती है बल्कि सेना से उनके रिश्ते भी बेहद दोस्ताना रहे हैं. हमने पास के बाजार में भी कुछ लड़कों से बात की जो बेहतर हालात का इंतजार कर रहे हैं. एक युवक ने कहा कि "मैं डिग्री कॉलेज में पढ़ता हूं. हड़ताल का असर इस इलाके में कम जरूर है." एक अन्य युवक ने कहा कि "सेना हमारी मदद करती है, हम उसकी करते हैं."
हालांकि काला पहाड़ ब्रिगेड के कमान पोस्ट से गुजरने वाली यह इकलौती बस रही, जिसमें सिर्फ दो यात्री थे. अन्य स्थानीय नागरिकों और कर्मचारियों को आगे जाने से रोक दिया गया.
उरी में एनएचपीसी के 500 कर्मचारी के दो पावर स्टेशनों में काम करते हैं. मध्यप्रदेश के रहने वाले संजय वर्मा एनएचपीसी में सिविल इंजीनियर हैं. उन्होंने एनडीटीवी को बताया "हमारा दफ्तर इस गेट के करीब छह किलोमीटर अंदर है, लेकिन आज हम इसके अंदर जाने से रहे." इलेक्ट्रिकल इंजीनियर गजानन निंबोली का कहना है कि "हमने हमले के बारे में टीवी में देखा था. अब इस रास्ते से गुजरने में थोड़ा डर लगता है." मैकेनिकल इंजीनियर विनोद कुमार ने बताया कि "वैसे तो डर नहीं है क्योंकि यहां के लोग बहुत अच्छे हैं. लेकिन जब इस तरह के हादसे होते हैं तो कुछ डर लगता है."
दरअसल बीते दिनों घाटी में लगातार रहे कर्फ्यू की वजह से केंद्र सरकार के कई कर्मचारी अपने दफ्तरों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. इसके अलावा बीते 15 सालों से मिडिल स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे शौकत हुसैन को भी सुरक्षा कारणों से जाने की इजाजत नहीं मिली. शौकत हुसैन का कहना है कि "मैं पिछले 15 साल से पढ़ा रहा हूं. बंद का असर इस इलाके पर नहीं पड़ा. अब वैसे भी सरकार ने यह लाज़मी बना दिया है कि सब सरकारी कर्मचारी दफ्तर पहुंचें, लेकिन शायद आज मैं न पहुंच सकूं."
इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर पहाड़ी और गूजर हैं. आमतौर पर यहां न सिर्फ शांति होती है बल्कि सेना से उनके रिश्ते भी बेहद दोस्ताना रहे हैं. हमने पास के बाजार में भी कुछ लड़कों से बात की जो बेहतर हालात का इंतजार कर रहे हैं. एक युवक ने कहा कि "मैं डिग्री कॉलेज में पढ़ता हूं. हड़ताल का असर इस इलाके में कम जरूर है." एक अन्य युवक ने कहा कि "सेना हमारी मदद करती है, हम उसकी करते हैं."
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