पीएम मोदी की फाइल फोटो
नई दिल्ली:
ईमानदार नौकरशाहों को अच्छी मंशा से किए गए फैसलों के लिए मुकदमे से डरने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अनुमति का कवच पद से इस्तीफा दे देने या सेवानिवृत्त होने के बावजूद उन्हें मिलता रहेगा।
भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 में जिन नए संशोधनों को बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी उनमें यह भी शामिल है। इसमें भ्रष्टाचार को जघन्य अपराधों की श्रेणी में डालना भी शामिल है जिसके लिए सात साल तक के कारावास की सजा हो सकती है।
भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई के मुकदमा चलाने को और कठिन बनाते हुए प्रस्तावित संशोधन में जांच एजेंसी के लिए लोकपाल या लोकायुक्त से पूर्व अनुमति लिए जाने को अनिवार्य बना दिया गया है। उन्हें लोक सेवक द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान की गई अनुशंसाओं या फैसले से संबंधित अपराधों की जांच के लिए लोकपाल या लोकायुक्त से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता होगी।
यह संशोधन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नौकरशाहों को दिए गए उस आश्वासन के मद्देनजर आया है जिसमें कहा गया था कि वे निर्भीक होकर फैसले करें और वह सही फैसलों के लिए उनका समर्थन करेंगे।
राजग सरकार भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में बड़े पैमाने पर संशोधन पेश करने से बची है और भ्रष्टाचार निरोधक (संशोधन) विधेयक, 2013 में सिर्फ कुछ बदलाव किए हैं, जिसे 19 अगस्त 2013 को पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने राज्यसभा में पेश किया था।
नए संशोधनों को शीघ्र ही राज्यसभा में पेश किया जाएगा। इसमें रिश्वत देने वालों के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान होगा, जो मौजूदा कानून में नहीं है। भ्रष्टाचार के अपराध के लिए न्यूनतम सजा छह माह से बढ़ाकर तीन वर्ष कर दी गई है और अधिकतम सजा पांच साल से बढ़ाकर सात साल कर दी गई है। सात साल की कोई भी सजा अपराध को जघन्य श्रेणी में डालती है।
भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी प्रक्रियाओं में विलंब का संज्ञान लेते हुए अधिनियम में किए गए प्रस्तावित बदलावों में अदालतों के लिए मुकदमा दो साल के भीतर पूरा करना अनिवार्य बना दिया गया है।
एक आधिकारिक विज्ञप्ति में कहा गया, ‘‘पिछले चार वर्षों में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकदमे की औसत अवधि आठ साल से अधिक है। यह प्रस्ताव किया जाता है कि दो साल के भीतर मुकदमा पूरा करके त्वरित गति से मुकदमा सुनिश्चित किया जाए।’’
आधिकारिक संशोधनों में संपत्ति कुर्क करने की शक्ति जिला अदालत की बजाय निचली अदालत (विशेष न्यायाधीश) को दी गई है।
कोयला घोटाला जैसे मामलों से प्रभावित होकर प्रस्तावित संशोधनों में इस बात को सुनिश्चित करने की मांग की गई है कि सीबीआई और भ्रष्टाचार निरोधी अन्य इकाइयां नौकरशाहों का पीछा नहीं करें जब तक कि यह नहीं पाया जाता है कि आधिकारिक क्षमता से किए गए फैसले से उन्हें व्यक्तिगत लाभ हुआ है।
भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 में जिन नए संशोधनों को बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी उनमें यह भी शामिल है। इसमें भ्रष्टाचार को जघन्य अपराधों की श्रेणी में डालना भी शामिल है जिसके लिए सात साल तक के कारावास की सजा हो सकती है।
भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई के मुकदमा चलाने को और कठिन बनाते हुए प्रस्तावित संशोधन में जांच एजेंसी के लिए लोकपाल या लोकायुक्त से पूर्व अनुमति लिए जाने को अनिवार्य बना दिया गया है। उन्हें लोक सेवक द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान की गई अनुशंसाओं या फैसले से संबंधित अपराधों की जांच के लिए लोकपाल या लोकायुक्त से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता होगी।
यह संशोधन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नौकरशाहों को दिए गए उस आश्वासन के मद्देनजर आया है जिसमें कहा गया था कि वे निर्भीक होकर फैसले करें और वह सही फैसलों के लिए उनका समर्थन करेंगे।
राजग सरकार भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में बड़े पैमाने पर संशोधन पेश करने से बची है और भ्रष्टाचार निरोधक (संशोधन) विधेयक, 2013 में सिर्फ कुछ बदलाव किए हैं, जिसे 19 अगस्त 2013 को पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने राज्यसभा में पेश किया था।
नए संशोधनों को शीघ्र ही राज्यसभा में पेश किया जाएगा। इसमें रिश्वत देने वालों के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान होगा, जो मौजूदा कानून में नहीं है। भ्रष्टाचार के अपराध के लिए न्यूनतम सजा छह माह से बढ़ाकर तीन वर्ष कर दी गई है और अधिकतम सजा पांच साल से बढ़ाकर सात साल कर दी गई है। सात साल की कोई भी सजा अपराध को जघन्य श्रेणी में डालती है।
भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी प्रक्रियाओं में विलंब का संज्ञान लेते हुए अधिनियम में किए गए प्रस्तावित बदलावों में अदालतों के लिए मुकदमा दो साल के भीतर पूरा करना अनिवार्य बना दिया गया है।
एक आधिकारिक विज्ञप्ति में कहा गया, ‘‘पिछले चार वर्षों में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकदमे की औसत अवधि आठ साल से अधिक है। यह प्रस्ताव किया जाता है कि दो साल के भीतर मुकदमा पूरा करके त्वरित गति से मुकदमा सुनिश्चित किया जाए।’’
आधिकारिक संशोधनों में संपत्ति कुर्क करने की शक्ति जिला अदालत की बजाय निचली अदालत (विशेष न्यायाधीश) को दी गई है।
कोयला घोटाला जैसे मामलों से प्रभावित होकर प्रस्तावित संशोधनों में इस बात को सुनिश्चित करने की मांग की गई है कि सीबीआई और भ्रष्टाचार निरोधी अन्य इकाइयां नौकरशाहों का पीछा नहीं करें जब तक कि यह नहीं पाया जाता है कि आधिकारिक क्षमता से किए गए फैसले से उन्हें व्यक्तिगत लाभ हुआ है।
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